रविवार, 3 नवंबर 2019

यात्रा…….पंढरपुर

                                       यात्रा…….पंढरपुर     
   भक्त नामदेव के साक्षी श्री कृष्ण भगवान   


    
  पुणे की अपनी यात्रा के दौरान एक रोज यूंही मै एम जी रोड पर विंडो शॉपिंग कर रहा था कि अचानक सामने
से एक विशाल जुलूस आता दृष्टिगत हुआ।सोचा छोटा मोटा कोई धार्मिक जुलूस होगा , निकल जाएगा, अतः ,एक
किनारे पर खड़े हो कर मै इस गुजरते हुए जुलूस को देखने लगा।शुभ्र सफेद कुर्ता,पजामा,साथ में सफेद ही गांधी
टोपी धारण किए ,नंगे पद,साथ में अधिकांश सफेद ही वस्त्र धारण किए हुए स्त्री एवम् पुरुषों के समूह हाथ में मंजीरे
,गले में बड़ी सी मृदंग,ढोलक,खड़ताल,आदी अनेकों प्रकार के वाद्य यंत्रों को बजाते,उनके संगीत पर नृत्य करते ,हाथों
में थामे धार्मिक चिन्हों वाले झंडों के साथ जब मेरे सम्मुख निकलने लगे तो मै सम्मोहित सा देखता ही रह गया ।अरे ! ये
जुलूस तो समाप्त ही नहीं हो रहा है।एक के पश्चात् एक, गाते बजाते,नृत्य करते,झूमते नर नारियों के समूह के समूह
समाप्त ना होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। लाखों लोग,कौन है ये लोग,ये सब इतनी बड़ी संख्या में नाचते गाते,किध
जा रहे हैं ? इस प्रश्न का मै अभी उत्तर खोज ही रहा था कि मैने गौर किया कि अधिकांश महिलाओं ने अपने सिर के
ऊपर भगवान कृष्ण की मूर्तियों को भी धरण किया है साथ ही देखा कि मूर्ति के साथ साथ लोग तुलसी के छोटे छोटे
पोधों के गमले जो कि रंग बिरंगे कपड़ों से सुसजित थे ,को भी अपने सिर और हाथो में उठाए हुए चल रहें है।जिनके
पास कोई मूर्ति या तुलसी के पोधे नहीं थे तो वे छोटी छोटी पताकाओं को लहराते हुए ही चल रहें है और इन सब के
साथ चल रहे थे सैकडों की संख्या में  ट्रक जिनमे अधिकांश में खाने पीने की सामग्री के साथ दैनिक प्रयोग में आने
वाली वस्तुएं भरी हुई थी। निसंदेह मेरी जिज्ञासा चरम पर आ पहुंची !


     
  मैने अपने निकट खड़े एक मराठी व्यक्ति से पूछ ही लिया की ये सब कौन हैं और इतनी अधिक संख्या में एक साथ
किधर जा रहें है! उस व्यक्ति ने जो बताया ,उस को सुनकर मै आश्चर्य के सागर में डूब सा गया।उसके अनुसार " ये
महाराष्ट्र की सब से विशाल धार्मिक यात्रा का जुलूस है जो कि पुणे से लगभग 250 किलो मीटर से भी अधिक दूर एक
पवित्र तीर्थ स्थल पंधर पुर जा रही है ।इसे महाराष्ट्र के महान संत भक्त नाम देव की याद में प्रति वर्ष आषाढ़ माह अर्थात
जुलाई माह में पुणे से पंढरपुर तक निकाली जाती है।आषाढ़ की एकादशी को यह यात्रा पांधर पुर में जाकर समाप्त होती
है ।इसे महाराष्ट्र में राजकीय यात्रा का दर्जा प्राप्त है,इस यात्रा में प्रतिवर्ष लगभग 5 से 6 लाख  लोग भारत ही नहीं अपितु
पूरी दुनिया से सम्मिलित होने के लिए आते हैं।इस यात्रा को सम्पूर्ण होने में 15 दिन लगते हैं।


उसने जुलूस में शामिल एक बहुत ही सजी धजी पालकी की ओर इशारा किया।यह पालकी पूरी ओर से पुष्पों ,लताओं,रंगीन बिजली की लड़ियों एवम् धार्मिक झंडियों से सजी हुई थी।इस पालकी को 2 सफेद रंग के हष्ट
 पुष्ट बैलों की जोड़ी खींच रही थी।उसने बताया कि इस पालकी में नामदेव जी की चरण पादुकाएं रखीं हैं,जिन्हें
प्रतिवर्ष आषाढ़ माह में इसी तरह विशाल जुलूस के साथ , गाजे बाजे के साथ पंधार पुर ले जाया जाता है जहां
 पर भगवान श्री कृष्ण जी की मूर्ति के सम्मुख उन पादुकाओं को एक दिन के लिए स्थापित किया जाता है।


         
 निसंदेह जब इतना विशाल जुलूस लाखों लोगों के साथ इतनी लंबी यात्रा कर रहा है तो अवश्य इसके पीछे कोई
विशेष मान्यता होगी।पुनः उन्हीं सज्जन ने इस यात्रा का कारण एवम् महत्व इस तरह बताया कि मेरा मन भी
इस यात्रा के साथ साथ पंढरपुर जाने के लिए मचल उठा।


      
  पंढरपुर शहर में स्थित भगवान श्री कृष्ण का मंदिर जो की लगभग 1 हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन है,का 12 वीं
शताब्दी में इस मंदिर का जीर्णोद्धार सर्वप्रथम संत ज्ञानेश्वर जी ने ,जिन्हें संत नामदेव भी कहते है ने करवाया था।इन्हीं
संत को बचपन में विठोबा भी कहते थे अतः यह जनश्रुति भी है कि इस कारण से पंढरपुर के भगवान श्री कृष्ण के मंदिर
को विठोबा का मंदिर भी कहते हैं। ऐसी ही एक जनश्रुति के अनुसार एक बार जब ज्ञानेश्वर रात्रि को अपने माता पिता के
पैरों की मालिश कर रहे थे तब उनकी मातृ पितृ भक्ति से भगवान कृष्ण इतने प्रभावित और खुश हुए कि वे ज्ञानेश्वर की
इस सेवा को प्रत्यक्ष देखने स्वयं ज्ञानेश्वर के घर के बाहर जा पहुंचे।उन्होंने जब ज्ञानेश्वर को माता पिता की सेवा करते देखा
तो  प्रभावित हो उनको पुकारने से अपने आप को रोक ना सके।उन्होंने घर के दरवाजे के बाहर से ज्ञानेश्वर जी को आवाज
दी।ज्ञानेश्वर जी ने बिना बाहर आए कहा कि " इस समय मै अपने माता पिता के चरणों की मालिश कर रहा हूं और जब
तक वे सो नहीं जाएंगे वे बाहर नहीं आएंगे" ऐसा कह कर उन्होंने एक ईंट बाहर दरवाजे की ओर फेंकी ओर कहा "आप
चाहें तो इस ईंट पर बैठ सकते हैं"! कुछ समय पश्चात जब उनके माता पिता सो गए तब वे बाहर आए,भगवान श्री कृष्ण
जी को कमर पर हाथ रखे खड़ा पाया,तो उन्होंने श्री कृष्ण जी यहां पधारने का उद्देश्य पूछा !! कृष्ण जी उनकी पितृ भक्ति
से इतने खुश हुए कि उन्होंने उनसे मन चाहा वरदान मांगने को कहा।ज्ञानेश्वर जी ने कहा कि उन्हें किसी भी भौतिक
वस्तु की आवश्यकता नहीं है ,वे आपकी भक्ति एवम् माता पिता की सेवा करते हुए पूर्ण संतुष्ट है उन्हें कुछ नहीं
चाहिए! भगवान कृष्ण उनकी भक्ति से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने पुनः  पुनः उनसे वरदान मांगने को कहा। अंत
में ज्ञानेश्वर जी ने कहा कि अगर आप वरदान देना ही चाहते हैं तो मै आपसे यही वरदान चाहूंगा कि आप इसी स्थान
पर ऐसे ही खड़े रह कर अपने भक्तों एवम् दर्शनार्थियों को दर्शन देते रहें।कहते हैं कि उसी समय से भगवान श्री कृष्ण
ऐसे ही खड़े रूप में मूर्ति के रूप में अपने भक्तों को दर्शन दे रहे हैं, और शायद तभी से उनके भक्त उनके नए नाम
" भगवान विट्ठल " के नाम सेभी जाने जाते रहें हैं। कालांतर में इस स्थान का नाम भी पैंधर पुर के नाम से भी प्रसिद्ध हो
गया है जिसका मराठी भाषा से हिंदी में अर्थ बनता है पत्थर के ऊपर खड़े भगवान श्री कृष्ण। हां ,आपको एक अत्यंत
महत्व पूर्ण बात बताना तो रह गया कि संत ज्ञानेश्वर ने अपने शिष्यों से यह वचन लिया था कि उनकी मृत्यु के पश्चात
उनकी समाधि ,भगवान श्री कृष्ण अर्थात विट्ठल जी के गर्भ गृह को जाने वाली सीढ़ियों में ही बनाई जाए ताकि भगवान
विट्ठल के दर्शनों को आने वाले श्रद्धालु उनकी समाधि पर अपने चरण रखने के बाद ही ,भगवान विट्ठल के दर्शन प्राप्त
कर सकें।धन्य है ऐसी भावना !
       इतना सुनने के पश्चात् तो मैने भी प्रण कर लिया कि ऐसे पवित्र स्थान पर तो मुझे भी जाना चाहिए, और मै निकल
पड़ा " भगवान श्री विट्ठल" जी के दर्शनों के लिए " पंढरपुर" ।



         अगले  दिन प्रातः ही पुणे से पंढरपुर की बस पकड़ ली।पंढरपुर पुणे से हैदराबाद जाने वाले राजमार्ग पर लगभग
250 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।बस ने 3 घंटों की यात्रा के पश्चात् पंढरपुर पहुंचा दिया।पहली दृष्टि में तो ये एक
छोटा सा ,आम धार्मिक शहरों की ही तरह नजर आया। बस स्टैंड से बाहर निकलते ही ऑटो रिक्शाओं के झुण्डों ने जैसे
घेर ही लिया। अपनी विभिन्न यात्राओं के अनुभवों से सीख लेकर मै उनसे किसी प्रकार पीछा छुड़ाकर आगे बढ़ा।इस तरह
की यात्राओं में,मैने अनुभव से ही सीखा है कि अनजाने स्थानों पर घूमने एवम् पूरी जानकारी लेने के लिए किसी जानकार
व्यक्ति अर्थात गाइड की सेवाएं अवश्य ले लेनी चाहिए ।हर तीर्थ स्थान के समान शीघ्र ही मुझे एक गाइड के रूप में
स्थानीय निवासी मिल गया।


    
  अब जैसे ही हम थोड़ा आगे बढ़े तो समझ आगया कि ये एक बहुत ही छोटा शहर है परन्तु धार्मिक मामलों में इस शहर
का महत्व इतना है जितना कि आंध्र प्रदेश में स्थित " तिरुपति बालाजी" का।गाइड के अनुसार ये महाराष्ट्र का सबसे अधिक
धार्मिक मान्यता वाला शहर है।कोई भी शुभ कार्य हो,कोई भी कार्य की मानता हो ,पूरे प्रदेश से नर नारी,सर्व प्रथम इसी
विट्ठल भगवान के दर्शन के पश्चात् ही ,करते हैं।वैसे तो वर्ष पर्यंत यहां दर्शनार्थियों के समूह के समूह आते रहते हैं परन्तु
आषाढ़  माह में इस मंदिर के दर्शनों का विशेष महत्व होने के कारण,पुणे से आनेवाली,महाराष्ट्र की सबसे बड़ी धार्मिक
यात्रा जिसे यहां " वारी " के नाम से संबोधन किया जाता है ,के कारण भी दर्शनार्थियों से यह शहर भरा हुआ था। गाइड
के अनुसार इस शहर का इतिहास लगभग 1 हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन है।मंदिर की ओर बढ़ते हुए मैने देखा कि
एक के बाद एक छोटे छोटे समूहों में ,गाजे बाजे के साथ ,बैलगाड़ी की पालकी के साथ जिसमें ज्ञानेश्वर उर्फ संत नामदेव
जी की चरण पादुकाओं के प्रतीक के रूप में स्थापित चिन्हों,ध्वजों के साथ विट्ठल भगवान के जयघोष के साथ,मराठी
भाषा के भजनों को गाते ,नृत्य करते विट्ठल भगवान के मंदिर की ओर बढ़े चले जा रहे थे।बाजार छोटे छोटे थे,परन्तु
सम्पूर्ण भारत के धार्मिक शहरों के समान सारी की सारी दुकानें धार्मिक और पूजा के सामानों से भरी हुई थी। मै
आश्चर्य चकित हो कर देख रहा था कि बाल बच्चे,नर नारी,अधिकांश शुभ्र सफेद वस्त्रों को ही पहने ,पूरी श्रद्धा सहित
मंदिर की ओर बढ़े चले जा रहे थे।

मै भी श्रद्धा में डूबे उन यात्रियों के साथ सम्मोहित सा मंदिर की ओर बढ़ा चला जा रहा था।कुछ ही देर
 में मैने अपने को एक बहुत ही विशाल परन्तु अत्यंत ही प्राचीन मंदिर के सम्मुख पाया।मंदिर के चारों ओर धार्मिक सामग्रियों से भरी हुई दुकानें थी,जिन पर यात्रियों की भीड़ लगी हुई थी।फिर मैने देखा कि
यात्रियों के समूह ,अपनी अपनी पालकी के साथ सर्व प्रथम मंदिर के चारों ओर बनी सड़क से ही, मंदिर के
 बाहर से ही ,सर्वप्रथम परिक्रमा कर रहे थे,उसके पश्चात ही,मंदिर में स्थित भगवान श्री कृष्ण के विट्ठल स्वरूप के
 दर्शनों के लिए लंबी,लंबी कतारों में खड़े हो रहे थे।मंदिर के चारों ओर ,चारों दिशाओं में फैली विशाल परकोटे की दीवारों मचार दरवाजे थे। उनमें से पूर्व दिशा वाले दरवाजों में से प्रवेश कर के ही,विट्ठल भगवान के दर्शन का मार्गथा।जब मैने गाइड से कहा कि मै भी विट्ठल जी के दर्शन करना चाहता हूं तो उसने जो बताया , मै हैरान रह गया।उसके अनुसार विट्ठल भगवान के दर्शनों के लिए सामान्य दिनों में तो लगभग 5 घंटे लगते है,परन्तु आषाढ़ का माह होने के कारण,अत्यधिक भीड़ होने के कारण इस समय तो दर्शन के लिए लगभग 10  घंटों से भी अधिक समय लगेगा।10 घंटे! इतना अधिक समय लगेगा ,यह तो मैने सोचा ही नहीं था ,ओर ना ही मेरे पास इतना अधिक समय था क्यों कि मुझे तय कार्यक्रम के अनुसार आज ही वापस पुणे लौटना था। मै मायूसी से हाथ जोड़े मंदिर के द्वार पर खड़ा ही था कि मेरे चेहरे के निराशा जनक भाव देख कर गाइड ने जो कहा ,उस सुनकर,जैसे में जोश
में आ गया।" हां ,विट्ठल जी के दर्शनों के लिए एक अन्य मार्ग भी है"।उसके अनुसार इस मंदिर में स्थित भगवान
विट्ठल के दर्शन के लिए 2 कतारें लगती है ।एक कतार में तो 10 घंटे का समय लगता है परन्तु उसका लाभ ये है किआप सीधे मंदिर में स्थापित भगवान विट्ठल जी के चरणों को अपने स्वयं के हाथों से स्पर्श का सकते है,परन्तु जिनके पास इतना अधिक समय
नहीं होता ,वे दूसरी कतार में लग कर दर्शन कर सकते है,इसमें केवल अधिकतम 2 घंटों का ही समय लगता है परन्तु
आप लगभग 10 फुट की दूरी सेही विट्ठल जी के दर्शन कर सकते है, उनके चरण स्पर्श नहीं कर सकते।अन्य कोई भी
विकल्प ना होने से, मै इस दूसरी पंक्ति में ही खड़ा हो गया।

         अब पंक्ति में लगने के पश्चात् मै, आस पास का नजारा लेने लगा।मैने देखा कि चरण स्पर्श के दर्शन वाली पंक्ति
मंदिर की ओर ना जा कर ,समीप ही बने 3 बड़े बड़े भवनों के ओर जा रही है।गाइड से इस संबंध में पूछने से उसने
बताया कि दूसरी पंक्ति में , 100,100  यात्रियों के समूहों को अलग अलग चैम्बरों में जो कि 10 की मात्रा में थे ,भेजा
जाता है।जैसे जैसे मूर्ति के दर्शनार्थ,मूर्ति को एक एक कर के ,चरण पूजा करके मंदिर से बाहर निकलते रहते हैं,एक
चेंबर से दूसरे चेंबर में भेजा जाता है और लगभग 10 घंटों के बाद ,तब कहीं जा कर भगवान विट्ठल जी दर्शन कर पाते
हैं! प्रत्येक चेंबर ,मंदिर के आसपास बने कई मंजिलें भवनों में  स्थित है।हालांकि मेरी पंक्ति में भी लगातार यात्री ,दर्शनों
केलिए खड़े होते जा रहे थे।शायद इन सबके पास भी,मेरी ही तरह,
 दूसरी पंक्ति में लगने वाला समय नहीं था! 
        धीरे धीरे हमारी पंक्ति मंदिर के बाहरी रास्तों से अंदर की ओर बढ़ने लगी।दर्शनार्थियों के जयकारों से मेरे मन
में एक अजीब सी भावना उमड़ने लगी।क्या रिश्ता है भक्तों और भगवान में,क्यों ये सब दूर दूर से अपना समय और
धन खर्च करके ,शरीर को कष्ट देकर इस पंक्ति में लगे हुए हैं? यूंही समय बिताने के लिए जब मैने अपने से आगे ओर
पीछे खड़े व्यक्तियों से इस संदर्भ में पूछना चाहा तो पहली प्रतिक्रिया ये थी कि वे स्वयं भी नहीं जानते थे कि किस
आकर्षण से वे यहां तक चले आएं है,बस आएं है तो आए हैं! ओर अधिक पूछने पर एक दो ने तो सोचा कि शायद में
किसी अन्य धर्म का अनुयाई हूं,परन्तु मेरे से कुछ आगे खड़े एक बुजुर्ग ने उल्टा मुझ से ही पूछ लिया कि मै स्वयं क्यों
यहां आया हूं।तब मुझे भी यकायक उत्तर नहीं सूझा ! कुछ शन मोन रह कर मैने उतर खोजना चाहा … क्या मै घूमने
आया हूं,इस के लिए तो मै किसी मनोरम पर्वतीय स्थल पर भी जा सकता था,तो क्या मै कोई कामना की पूर्ति के लिए
आया हूं,या फिर ….?तभी मेरे मन के उथल पुथल को भांपते हुए,वे बुजुर्ग बोले " बेटा ,हो सकता है यहां आने वाले हरेक
इंसान ,कोई ना कोई इच्छा पूर्ति के लिए आया होगा,शायद तुम खुद भी जाने अंजाने किसी इच्छा के वशीभूत होकर
आए हो ,परन्तु सत्य यही है कि यहां आने वाले हरेक इंसान एक ऐसे विश्वास को लेकर आया है कि विट्ठल के दर्शनों से
उसका कुछ तो भला होगा,ये विश्वास की भावना है जिस के कारण मै,तुम और ये सारे लोग इस समय उहान उपस्थित
हैं! हो सकता है तुम्हारी कोई कामना नहीं हो ,फिर भी तुम इतनी दूर से यहां आए हो तो इसके पीछे भी यही विश्वास
का आकर्षण है जो तुम्हारे,हमारे ओर सब उपस्थित लोगों के हृदय में है"। इस से पहले की वे कुछ ओर कहते ,वे आगे
बढ़ गए। मै स्वयं भी यहां आने का कारण सोचने लगा तो उन बुजुर्ग की बात ही गूंजने लगी कि हां विश्वास ही है जिसके
कारण मै इस समय पंक्ति में खड़ा हूं , और इस विश्वास का कारण मेरी नजर में शायद मेरे वे संस्कार अवश्य रहे होंगे


        
    इस तरह  3 घंटों की इस अध्यात्म,श्रद्धा,भक्ति एवम् विश्वास की यात्रा के पश्चात् मै इस पवित्र मंदिर से बाहर
आया।बाहर का दृश्य पहले ही की तरह भक्ति ,श्रद्धा के साथ श्रद्धालुओं से गुंजायमान था।गाइड ने मुझे फिर एक
ओर चलने का आग्रह किया,ओर मै चल पड़ा।इस छोटे से धार्मिक शहर में,वो मुझे एक एक कर के ,इस शहर के अत्यंत
प्राचीन ओर ऐतिहासिक धरोहरों,देवालयों एवम् भवनों को दिखाते हुए ,मंदिर के पीछे की ओर ले जाने लगा।मार्ग में
ही इन ऐतिहासिक भवनों में थे,अहिल्याबाई होलकर,सिंधिया के वंशजों एवम् पूरे भारत के गुनी जानो द्वारा स्थापित
भवन एवम् देवालय जो देखते ही इस स्थान की पवित्रता ,महत्व के मूक गवाह थे।


समय के अंतराल में इनकी चमक अवश्य फीकी हो गई थी मगर महत्व और अधिक बढ़ता जा रहा था।इन्हीं
सब को देखते ही अचानक मैने अपने आप को एक बहुत चौड़ी,धीरे धीरे बहती नदी के किनारे पाया।" ये चंद्रभागा " नदी है,जो पुणे के समीप से आती है ।पुणे में इसे भिमा नदी के नाम से भी संबोधित करते हैं,गाइड
ने मेरा ज्ञान वर्धन किया।



       
 चंद्रभागा नदी का तट काफी चोड़ा था।इसके इस और के किनारे पर तो जैसे मेले जैसा आयोजन लग रहा था।लोगों
की भारी भीड़ से नदी का तट भरा हुआ था तरह तरह के पकवानों, चाट,गन्ने के रस एवम् चाय की दुकानों की भरमार
थी।एक अनोखी बात और ये थी कि थोड़ी थोड़ी दूर पर काले रंग की विट्ठल जी की,रुक्मणि जी के साथ  बड़ी बड़ी
मूर्तियां पूरी साज सज्जा के साथ दिखाई दे रही थी। गौर करने पर समझ आया कि ये असली नहीं बल्कि अधिकांश
प्लास्टिक अथवा लकड़ी की बनी थी, जिनमे श्रद्धालु बैठकर,खड़े होकर ,एवम् विभिन्न मुद्राओं में अपनी इस धार्मिक
यात्रा के पलों को यादगार बनने के लिए फोटो खिच्वा रहे थे !


चंद्रभागा नदी के एक दम किनारे पर 2 माध्यम आकार के मंदिर नुमा आश्रम बने थे,जिनमे प्रवेश के लिए
 श्रद्धालु पुनः पंक्ति बनाकर खड़े थे,परन्तु मुझमें अब इतनी शक्ति नहीं बची थी कि मै अब और खड़ा भी रह सकूं। मै तो बस इस चंद्रभागा नदी ,उसके आसपास जमा लोगों ,एवम् दुकानों आदी को ही देख कर तृप्त हो
गया था।बस ऐसे ही निष्प्रयोजन कुछ विश्राम के पश्चात् ,गाइड को धन्यवाद अर्पित कर ,पुनः संयोग मिलने पर
 इस भक्ति और श्रद्धा से भरपूर पवित्र तीर्थ स्थल पर पुनः आगमन का विश्वास लेकर पुणे जाने के लिए बस स्टैंड
आ गया ।                                                                                 


                                                            जय श्री कृष्ण,जय श्री विट्ठल !

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2019

यात्रा……….बोधगया

  यात्रा……….बोधगया 
                              
                                    
    " बुधम शरणम् गच्छामि"  
    "धम्मम शरणम् गच्छामि"     
                                     "संघम शरणम् गच्छामि"

    

       बाल्य काल से ही पाठ्य पुस्तकों में बुध के जीवन चरित्र संबंधी जब लेख पढ़ता था
 तभी से लेख के आरम्भ में लिखीं उपरोक्त तीन पंक्तियां मुझे बहुत आकर्षित करती थी।
 मैं इन पंक्तियों को पढ़ तो लेता था पर उनके अर्थ जानने के लिए मै हमेशा आतुर रहता 
था।कौन   थे ये " महत्मा बुध,क्यों उन्होंने अपना राजसी भरा जीवन त्यागा"? विभिन्न
 पुस्तकों में लिखे उनसे संबंधी लेख, उनके त्याग और परोपकार की भावना के वर्णन से 
 ही भरे रहते थे।समय अंतराल के पश्चात् वयस्क होने पर भी बुध से संबंधी अनेकों पुस्तकों
 के लेखों को पढ़कर उनके कार्यस्थल ,विशेष कर ज्ञान प्राप्ति के स्थल के बारे में मेरी 
जिज्ञासा निरंतर बढ़ती ही गई ,ओर फिर एक दिन अभी हाल में पढ़ी  एक पत्रिका के लेख
 ने मेरा ध्यान खींचा कि " महात्मा बुद्ध भगवान विष्णु के अवतार " हैं,तो मै सोच में पड़ गया।
अगर बुध विष्णु के अवतार है तो हम सनातन धर्म के अनुयाई इन की पूजा अर्चना घरों से 
लेकर मंदिरों तक कहीं भी नहीं करते हैं ,मगर क्यों ? इस विषय में जब मैने अपने आस पास
 के गुनी जनो से जान कारी लेनी चाही तो समझ में आ गया कि मेरी तरह वे ही नहीं अपितु
 अधिकांश लोग भी बुध के बारे में जन्म से लेकर मृत्यु तक तो सब जानते है किन्तु बे भगवान
 विष्णु के अवतार है और अगर वे हैं तो क्यों है इसके बारे में उनकी जानकारी भी अल्प ही है।
तब मेरी जिज्ञासा ने मुझे इतना बेचैन कर दिया कि मैने निश्चय किया कि मै बुध के, भगवान
 बुद्ध बनने तक की यात्रा , और उनके विष्णु अवतार बनने के कारणों की खोज में निकल
 पड़ा।वैसे मुझे इस संबंध में ढेरों पुस्तकों से सहायता प्राप्त हो सकती थी परन्तु मै उनके जीवन
 के कुछ अनछुए वृतांत को स्वयं साक्षात  अनुभव करने हेतु अग्रसर हो गया, उस स्थान जहां
 पर वे बुध से माहत्मा बुध बने  वह स्थान था " बोध गया" !

         बोध गया तक की रात्रि भर की ट्रेन की  यात्रा में , मैअपने अन्य सहयात्रियों की अपेक्षा ,
 मन मस्तिष्क में उमड़ते विचारों के कारण जागता रहा।क्या कारण था कि सारी राजसी 
सुविधाओं के मध्य पला बढ़ा एक राजकुमार सब कुछ त्याग कर सन्यासी बनने के कांटों भरे
 मार्ग पर अग्रसर हो गया।शायद उन्हें मानव जीवन की व्यर्थता का एहसास पूरी तरह हो गया
 था, अतः मानव जीवन के इस संसार में आने के उद्देश्य की खोज हेतु ही वे सब वेभव त्याग कर
 महत्मा बनने के कंटीले मार्ग पर बढ़ चले होंगे , या शायद वे अपनी नियति के स्वयं नियंता 
बनना चाह रहे होंगे !


             प्रातः 7 बजे जब ट्रेन ने गया स्टेशन पर उतारा तो स्टेशन पर बुध ओर बोध गया से
 संबंधित एक या दो ही बोर्ड लगे थे ,लेकिन हिन्दू कर्म कांडों से संबंधित चित्रों एवम् गया के हिन्दू
  मंदिरों के बोर्डों से समूचा स्टेशन परिसर भरा हुआ था।प्रधान मंत्री मोदी जी की स्वच्छता का
 प्रभाव स्टेशन पर तो पूर्ण रूप से दिखाई दे रहा था परन्तु स्टेशन परिसर से बाहर निकलते ही
 समझ में आ गया कि ये गया शहर भी आम हिन्दू तीर्थ स्थानों की तरह ही है।


आवारा घूमती गाएं,कुत्ते,बेतरतीब खड़े रिक्शा,ऑटो,के साथ साथ पांडे पुजारी जैसे सब यात्रियों पर टूट पड़ने को
 तैयार थे।लंबी मोल भाव के पश्चात् आखिर कार 20 किलो मीटर दूर बोध गया हेतु रवाना हो गए।
बेतरतीब, भीड़ भरे शहर पार करते करते थोड़ी देर बाद एक अजीब सी रेतीली,सूखी लेकिन बड़ी
 बड़ी घास से भारी एक नदी हमारे साथ साथ चलती दिखाई दी।ये फल्गु नदी थी।विस्मय हुआ कि
 जैसे ही गया शहर से बाहर निकले सड़क पर बड़ी बड़ी बसें, और कारे नजर आने लगी।इस शेष
 15 किलो मीटर मार्ग के दोनों ओर बुध के विभिन्न नाम वाले होटल,रेस्टोरेंट तथा मंडप की एक
 अंतहीन श्रृंखला आरम्भ हो गई।जैसे ही हम बोध गया पहुंचे,आस पास का दृश्य ही बदल गया।
वातावरण में गूंजते अनजानी भाषा के स्वर,अनजानी भाषा में लिखे बोर्ड एक नई दुनिया की रचना
 सी कर रहे थे।ऑटो से उतरने के पश्चात् गाइडों के झुण्डों ने हमारा घिराव सा कर दिया।एक से
 बढ़ कर एक लक्जरी होटल,गेस्ट हाउस की जैसे भरमार थी,क्या ये सन्यासी बुध का ही शहर था
 या कोई आधुनिक शहर,हम अभी अनिर्णय की स्थिति में ही थे कि एक बुध धर्म की वेशभूषा धारण
 किए एक होटल के एजेंट की और हमारा ध्यान गया।तुरंत निर्णय किया कि जब बुध के लोक में
 आए हैं तो बुध के रंग में ही रंगेंगे, अतः उसके साथ उसके बताए होटल की ओर बढ़ गए।होटल
 के किराए भी किसी बड़े शहरों की ही तरह बड़े थे।यह होटल ही नहीं अपितु आस पास की सभी
 तरह कि दुकानें आदी भी जैसे बुध के ही रंग, और भाषा में रंगे हुए थे।


         थोड़े विश्राम के पश्चात् जब होटल से बाहर आए तो विश्वास ही नहीं हुआ कि ये गया शहर का
 एक उपनगर है,जहां तक दृष्टि जारही थी यात्रियों के झुंड के झुंड दिखाई दे रहे थे,मगर एक अंतर
 साफ दिखाई दे रहा था कि अधिकांश यात्री विदेशी ही हैं !अब किधर जाएं,ऐसा कोई संकेत या बोर्ड
 भी नहीं दिखाई दे रहा था,दिखाई दे रहा था तो इधर से उधर आते जाते व्यक्तियों के झुंड, अतः ऐसी
परिस्थितियों में जो आम भारतीय करता है वहीं हमने भी किया।एक ई रिक्शा को रोका और उसे पूरा
 बोध गया घुमाने के लिए सौदा बाज़ी की।राजी तो होना ही था ,तो हम चल दिए भगवान बुध की दुनिया
 में झांकने !


          रिक्शा चालक के अनुसार पूरे बोध गया में लगभग 50 के करीब बोध स्तूप या कहें मंदिर है ,
इनमें से 31 स्तूपों का निर्माण विदेशी सरकारों ने किया है जिनमे चीन,जापान,कोरिया, थाईलैण्ड ,बर्मा,नेपाल,
सिक्किम,श्रीलंका और बहुत सारे अन्य देशों ने किया है,शेष कुछ बड़े बुध के अनुयाइयों
 ने किया है।हम एक एक कर के उपरोक्त वर्णित स्तूपों में ज्ञान प्राप्ति की चिन्हों की खोज में चल दिए।
      

  अब ये स्तूप चाहे चीन,जापान या अन्य किसी भी देश ने बनवाए हो,सबके मध्य एक विशेष
 समानता थी कि स्तूप के मध्य में पीले रंग की विशाल काय ,महात्मा बुद्ध की मूर्ति ध्यान अवस्था में,
 आंखे बंद किए,मंद मंद मुस्कुराते हुए एक अलौकिक आभा और शांति के विहंगम रूप का अनुभव
 प्रदान कर रही थी।प्रत्येक स्तूप अपने निर्माण करता देश की पूजा की विधि और पूजन में उपयोग
 होने वाली सामग्री से भरा हुआ था।


एक और विशेष बात को हमने चिन्हित किया की प्रत्येक स्तूप
 जितना भी हो सकता था इतने ही रंगो ओर रंगीन सजावटी सामग्रियों जैसे कृत्रिम विभिन्न प्रकार के
 पुष्प,भिती चित्र और महात्मा बुद्ध के जीवन दर्शन को दर्शाती मूर्तियों आदी से भी भरे हुए थे।आश्चर्य
 की बात यह थी कि हिन्दू मंदिरों की तरह ना तो कोई भजन अथवा पाठ करता कोई पुजारी इन स्तूपों
 में बैठा था अर्थात पूरे स्तूप एक मोन,नीरव शांति के सागर में डूबे हुए थे !प्रत्येक स्तूप जैसे महात्मा बुध 
के साथ ही तपस्या में डूबे हुए थे।


        अधिकांश स्तूपों के दर्शन तो हमने कर लिए थे परन्तु इस बुध धर्म के प्रसार और बुध के महात्मा बुध बनने का कारण
अभी तक हम नहीं खोज पाया थे।इस पर अभी मेरे मस्तिष्क में विचारों का झंझावात चल ही रहा था कि तभी रिक्शा चालक
ने हमें एक विशेष विशाल,लाल नक्काशीदार पथरों से बने प्रवेश द्वार के सम्मुख खड़ा कर दिया।ये ही बुध का वह स्थान था
जहां पर बुध ने ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात आगामी 3 सप्ताह एक विशाल पीपल के वृक्ष के नीचे अपलक अपने अंतर्मन में
झांकते हुए बिताए थे।यही पीपलका वृक्ष, इस के पश्चात् बुध वृक्ष के नाम से सम्पूर्ण बुध धर्म के अनुयाई सहित पूरे
प्रसिद्ध हो गया था।इसी वृक्ष की शाखाओं को सम्राट अशोक के पुत्र और पुत्री,चारूमित्रा एवम् महिंद ने पूरे विश्व में उगाकर,बोध धर्म का प्रचार प्रसार किया था।आज भी पूरे विश्व के बुध धर्म के अनुयाई अपने जीवन में कम से कम एक बार बुध गया में आकर,इसी पवित्र वृक्ष के सम्मुख ,महात्मा बुध के चरणों में श्रद्धा के सुमन अर्पित कर, अपने जीवन को धन्य मानते हैं।आज भी पूरे विश्व में बुध धर्म तीसरे स्थान पर विस्तारित है !


       
   बुध के ज्ञान प्राप्ति का साक्षी यह बोधी वृक्ष आज भी इतिहास में दर्ज महात्मा बुध का साक्षी है,जिसके सम्मुख हम खड़े 
थे तो जिस रोमांच का हम अनुभव कर रहे थे ,उससे हमारे रोंगटे खड़े हो गए थे! इस वृक्ष जिसे अब उनके अनुयाइयों ने चारों ओर से शीशे में मढ़ कर बाहरी ओर से स्वर्ण की कलाकृतियों से सजा दिया था।इसी वृक्ष के एक किनारे पर  80 फुट ऊंचा, एक चौकोर,कई मंजिलों में निर्मित लाल पत्थरों से निर्मित मंदिर खड़ा था,जिसकी बाहरी दीवारों पर महात्मा बुद्ध के  सम्पूर्ण जीवन की घटनाएं, विभिन्न मूर्तियों के द्वारा ,प्रदर्शित की गई थी।इस बोध मंदिर का निर्माण कालखंड के विभिन्न अवसरों पर विभिन्न अनुयाइयों, सम्राटों एवम् विभिन्न बोध धर्म के मानने वाले देशों के निवासियों ने निर्मित किया था जिसके चिन्ह आज भी साक्षात दिखाई दे रहे हैं।


वर्तमान मंदिर का पुनर निर्माण, सम्राट हर्षवर्धन द्वारा लगभग 1000 वर्ष पूर्व किया गया था। इस मंदिर के मध्य में एक विशाल पीले रंग की स्मित मुस्कान सहित ,पीले वस्त्र ढांके,भगवान बुध की मूर्ति स्थापित है जिसके सामने शुभ्र कमल विभिन्न पुष्पों के साथ एक अनोखी गरिमा ,शोभा प्रदान कर रहे थे।इस मूर्ति के दर्शनों के लिए कभी ना समाप्त होने वाली दर्शनार्थियों की कतारें लगी हुई थी।प्रत्येक बुध धर्मावलंबी के लिए बोध गया का यह स्थान वहीं मायने रखता है जैसे कि मुस्लिमों के लिए मक्का मदीना या इसाइयों के लिए जेरूसलम या हिन्दुओं के लिए अयोध्या ! इस पवित्र वृक्ष एवम् मंदिर के चारों ओर एक विशाल परन्तु विभिन्न सतहों में फैला, पुष्पों और घने वृक्षों से आच्छादित हरा भरा बगीचा निर्मित था जिस पर दिन के प्रत्येक समय पर ,दर्शनों को आने वाले यात्री,अपने अपने देश के रीति रिवाजों से प्रार्थना एवम् अर्चना कर रहे थे।तभी हमारी दृष्टि इस मुख्य मंदिर से थोड़ी दूर पर बने एक छोटे परंतु प्राचीन मंदिर पर केन्द्रित हुई,वहां पर भी दर्शनार्थियों कि कतारें लगी हुई थी ।जानकारी लेने पर ज्ञात हुआ कि समय के अंतराल पर  बुध धर्म में भी तांत्रिक क्रिया कर्मों का बोल बाला हो गया,जिसके परिणाम स्वरूप बुध धर्म भी दो भागों में विभाजित हो गया ,महायान और व्रज्यान या नव्यान । वज्रयान संप्रदाय में तंत्र क्रिया करने वालों का विशेष महत्व होता है।इन्हीं तांत्रिक बुध अनुयाइयों की तंत्र क्रियाओं की एक अधिष्ठात्री देवी है जिनका नाम है तारा देवी !महात्मा बुध के अलावा, केवल इन्हीं तारा देवी की एक अद्भुत मूर्ति इस पवित्र स्थान पर स्थित है जिस से बुध धर्म पर इनका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है! तारा देवी का बायां हाथ जहां अभय की मुद्रा में है वहीं देवी तारा का सीधा हाथ शीर्ष से ऊपर उठा हुआ है जिनकी हथेली में एक काले रंग का सर्प, जीभ निकले भयंकर मुद्रा में सीधे सामने देखनेवाले को


 ऐसा नजर आता है कि पूरे शरीर में सिहरन सी उठती है।इसके अलावा इस पवित्र परिसर में अनेक छोटे छोटे
 स्तूप नुमा निर्माण हैं जो शायद उनके महान अनुयाइयों और पुजारियों के हैं।परिसर के एकदम समीप एक विशाल 
सरोवर भी स्थित है जिसके मध्य में एक विशाल सर्प की मूर्ति अपने विशाल फन को उठाए हुए निर्मित है ,जिसका
 निर्माण थाईलैण्ड की तत्कालीन रानी के द्वारा किया गया था।
       इसी मंदिर परिसर में एक संग्रहालय भी स्थित है, जिस में महात्मा बुध के जीवन,उनके विहार,स्तूपों,ओर उनके
 विश्व भर के अनुयाइयों द्वारा ,विभिन्न काल खंडों में लिखे गए शीला लेख और मूर्तियों का एक अप्रतिम संग्रह है।
इन्हीं कुछ शीला लेखों के अनुसार महान चीनी यात्री ह्वेनसांग की बोध गया यात्रा का वर्णन है जो कि लगभग   800 वर्ष
पूर्व लिखे गए थे! ऐसे ही एक प्रदर्शित शिला लेख का हिंदी में अनुवादित लेख,  जब हमने         


पढ़ा तो बुध के महात्मा बुध बनने का रहस्य खुल गया। इसमें बुध के शिशु काल से लेकर अंतिम समय तक का विवरण
अंकित था।लेकिन इस शिला लेख में वर्णित कुछ पंक्तियों पर हमारी दृष्टि ठहर गई। इस शिला लेख के अनुसार बोध गया
से 10 किलो मीटर की दूरी पर एक स्थित एक प्राकृतिक गुफा में बुध ने जीवन के रहस्यों की खोज हेतु जिसे अब ज्ञान
प्राप्त होना भी कहते हैं के लिए कठिन तपस्या करना आरंभ कर दिया।धीरे धीरे उन्होंने भोजन का भी त्याग कर दिया।
इसी अवस्था में जब कुछ सप्ताह ही बीते थे कि भूख ओर प्यास से ,बुध, एकदम निढाल हो गए ,यहां तक कि उनमें बोलने
की भी शक्ति नहीं बची और शायद वे मृत्यु के नजदीक पहुंच ही गए थे, तभी तपस्या रात बुध के पास गाय चराती सुजाता
नाम की एक चरवाहे कि पुत्री आ पहुंची।सुजाता का ध्यान तपस्या करते,कृशकाय बुध पर पड़ी।भूख ओर प्यास से निढाल
बुध में अब इतनी भी शक्ति शेष नहीं बची थी कि वे कुछ बोल सकें।उनकी इस दीनदशा को देख कर ,चरवाहा पुत्री सुजाता
का हृदय व्याकुल हो गया और वो शीघ्र ही एक बर्तन में गाय के दूध और कुछ चावल को  मिला कर बनी खीर को एक
बर्तन में रख कर बुध के समीप आई और उन्हें आग्रह पूर्वक इस खीर का भक्षण कराया,जिससे बुध को ये समझ में आ
गया कि जीवन यात्रा में केवल तप या तपस्या से कुछ प्राप्त नहीं होता है अपितु जैसे सुजाता ने दया,परोपकार कर केउन्हे
भोजन रूपी अमृत से नव जीवन दिया,उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य अगर परोपकार की भावना से दूसरों के कष्टों को दूर करे
तो इस से बड़ा सत्कर्म कोई अन्य नहीं है। फिर तो जैसे बुध को ज्ञान प्राप्त हो गया।बुध ने उसी क्षण संकल्प कर लिया कि
वे अपना शेष जीवन मानव मातृ की भलाई,उनके दुखों कष्टों को दूर करने हेतु समर्पित कर देंगे।


     
   हम, बुध जो इस ज्ञान के पश्चात् महात्मा बुद्ध हो गए थे,के सम्मुख हाथ जोड़े,आंखे बंद कर, उस बीते कालखंड की
कल्पनाओं में खोने लगे थे जब साक्षात बुध ने मानवमात्र कि भलाई के लिए इसी स्थान पर संकल्प लिया होगा।एक
राजपरिवार के सदस्य होने के बाद भी ,मानव मात्र की भलाई हेतु भूखे, प्यासे,यात्राओं के कष्टों को झेलते एक अनजानी
राह पर इसी बोध गया से,महात्मा बुध बनने हेतु आगे बढ़ चले होंगे ।
       अब हम बोध गया के उस पवित्र स्थान पर जाने को उत्कण्ठित हो गए , जहां पर जीवन के सार को खोजने हेतु ,
सन्यासी बुध को सुजाता ने खीर खिलाई थी,जिसके पश्चात वे महात्मा बुध बन गए थे।


        सबसे पहले हम उस स्थान पर गए जो की सुजाता का घर था।अब वर्तमान में घर के स्थान पर एक विशाल

,लाल पक्की इंटों से निर्मित ,लेकिन भग्न अवस्था में स्तूप बना था।इस स्तूप का घेरा ही लगभग 200 मीटर था,ऊंचाई 40 फीट के लगभग थी,परन्तु इस निर्माण में एक विशेष बात थी कि यह स्तूप मध्य में खाली था! मगर क्यों ,इसका उत्तर ना तो गाइड के पास था और ना ही पुरातत्व विभाग के द्वारा लगाया गया बोर्ड कुछ बता पा रहा था।बहुत देर तक हम कल्पनाओं में डूबने के पश्चात् उस स्थान हेतु रवाना हुए , जहां सुजाता ने बुध को खीर खिलाई थी।
          कोई 10 किलोमीटर की यात्रा के पश्चात् शहर की चहलपहल से दूर एक शांत ,निर्जन से स्थान पर रिक्शा रुका ।
एक टीले पर सफेदी से पुते,3 या 4   प्राचीन मंदिरों का समूह ,नजदीक ही छोटा सा सरोवर, और थोड़े से ही यात्री ,एवम्
चारों ओर पेड़ों से घिरा, ये हमें बोध स्तूप ना लगकर हिन्दुओं का आश्रम जैसा लग रहा था।एक बहुत ही विशाल वट वृक्ष ने ,
अपने पूरे वितान को इस सम्पूर्ण आश्रम के ऊपर एक छाते के सदृष फैलाया हुआ था।एक और बात ने हमारा ध्यान
आकर्षित किया कि इस स्थान पर आए यात्रियों में कोई भी बुध धर्म का अनुयाई नहीं था,फिर समझ में आया कि वे सब
जिस और जा रहें है वह तो वास्तव में एक आश्रम ही  है ।


कशमकश चल ही रहा था कि फिर गाइड ने ही सहारा दिया,बताने लगा " यह महर्षि मातंग ऋषि ओर माता धूमावती का आश्रम है।ये महर्षि सप्तऋषियों में से एक जाने जाते हैं।सामने जो कुंड आप देख रहें है ,वह हजारों वर्ष प्राचीन कुंड है, मान्यता है कि इस कुंड में स्नान करने से संतान की इच्छा पूर्ण होती है। जो भी गया आता है वो इस मातंग ऋषि के आश्रम में भी अवश्य आता है।" वाह ! अनायास ही मिले इस सुअवसर से हम भी आश्रम में प्रवेश कर गए।वास्तव में यह अत्यंत प्राचीन स्थान था, और धार्मिक ग्रंथों में इस मातंग आश्रम का विवरण मिलता है।मंदिर में भगवान शिव और धूमावती के नाम से पार्वती देवी की , काले पत्थर की विशाल परन्तु अत्यंत प्राचीन लगने वाली मूर्तियों के सम्मुख अनायास ही दर्शनार्थी श्रद्धा से नमवत हो जाते थे।पूर्ण संतुष्टि के पश्चात्, फिर बुध के जीवन की ओर ध्यान गया,तो गाइड ने हमें उसके पीछे आने का संकेत दिया।हम चल पड़े ।



        "विराट वट वृक्ष की छाया में ,एक मध्य आकर का आयताकार जैसे मंदिर में ,एक स्त्री की मूर्ति जो अपने हाथ से एक
बर्तन पकड़े सामने बैठे एक कृशकाय से व्यक्ति की ओर बढ़ा रही है "ये स्त्री ही सुजाता है एवम् उसके सम्मुख कृशकाय
से व्यक्ति ही बुध हैं,ये सुनते ही हम जैसे समय के भंवर में झूलते झुलाते,साक्षात उस समय अंतराल में पहुंच गए जब वास्तव
में ये महान घटना घट रही होगी! वाह !असाधारण घटना का साक्षी यह  साधारण मंदिर ,एक तरफ तो एक नए विशाल धर्म
केआरंभ का साक्षी था तो दूसरी ओर दो धर्मों के विभाजन का भी साक्षी था : एक प्राचीन सनातन हिन्दू धर्म ,दूसरे इसी
सनातन धर्म की कोख से निकलता बुध धर्म ।इस अद्भुत मंदिर के रंग ढंग आदी को देख कर हमारे उस प्रश्न का उत्तर
मिलने लगा था कि क्यों महत्मा बुध को विष्णु के अवतार के रूप में घोषित किया गया होगा ! महत्मा बुध के स्मरण हेतु इसी
बोध गया शहर में एक से बढ़ कर एक,विशाल,भव्य स्तूप या मंदिर बने हुए है वहीं जहां बुध, महात्मा बुध बने उस स्थान का
जैसे बुध धर्म या उनके अनुयाइयों में कोई महत्व नहीं प्रतीत हो रहा था। ऐसे ही जिस सुजाता नामकी चरवाहे की पुत्री द्वारा
खीर खाने के पश्चात् बुध के प्राणों की रक्षा हुई, वे महात्मा बने,उसी बोध गया में इस घटना स्थल और सुजाता का जैसे कोई
महत्व ही नहीं है।इसका शायद मुख्य कारण यही होगा की जहां बुध धर्म के अनुयाई, बुध के महत्मा बनने की घटना का श्रेय
सनातन धर्म और उसकी अनुयाई , सुजाता को कोई विशेष महत्व नहीं देना चाह रहे होंगे, वहीं शायद सनातन धर्म के
अनुयाई बुध के प्रसार का श्रेय लेने हेतु उन्हें विष्णु जी के अवतार के रूप में ही प्रदर्श करने के लिए मजबूर हुए होंगे।
कारण कुछ भी रहा हो ,परन्तु दोनों ही धर्मों के व्यक्तिगत कारणों के कारण इतनी महत्वपूर्ण घटना के साक्षी रहे इस स्थान
को किंचित मात्र भी महत्व नहीं प्रदान हुआ और ये आज एक गुमनामी और उपेक्षा की हालत में है। मै इसे अब मंदिर ना
कह कर आश्रम कहूंगा,क्यों कि इस के चारों फैली निरवता,हरियाली, घने वृक्ष और पक्षियों की चहल पहल इस आश्रम को
अपूर्व गरिमा प्रदान कर रही थी। मै  इस लेख को पढ़ने वाले पाठकों से अनुरोध करूंगा कि हमारे देश, और देश के इस
गौरव शाली,पवित्र स्थल को ,इसके देवीय प्रभाव को आत्म सात करने एक बार अवश्य इस स्थल पर आएं और साक्षी बने
उस समय के ,जब बुध ,महात्मा बुध बने !


      

     इस यात्रा के पश्चात् मैने शायद सब कुछ विस्मृत कर के ,बस एक ही संदेश को आत्मसात किय है "बुध  शरणम् गच्छामि" ।