शनिवार, 30 मई 2020

कहानी .............हाथ कटा भूत। !!

   कहानी .............हाथ कटा भूत। !!

"" प्रिय रमेश,
           अति व्यस्तता के कारण तुम्हे ये मैसेज भेज रहा हूं।याद है ना तुम्हे ,पिछली मुलाकात में तुमने कहा था कि कोई भूत प्रेत नहीं होता।लेकिन मै अब ये कहता हूं कि वास्तव में भूतों का अस्तित्व होता है ,विश्वास ना हो तुरंत ही ट्रेन पकड़ कर यहां आ जाओ, मै तुम्हे भूत दिखा दूंगा।थोड़ा व्यस्त हूं ,इस लिए जो भी पूछना हो यहां आ कर ही बात करेंगे ,
      तुम्हारा ही शशांक ।""
        मोबाइल में मै ये संदेश पढ़ कर थोड़ा मुस्कुराया।अब आपको बता दूं कि ये संदेश मेरे जीजा श्री ने भोपाल से भेजा था,वे वहां पढ़ेलिखे सर्जन हैं।स्वयं का बड़ा ट्रॉमा हॉस्पिटल है ,अब उनका ये संदेश पढ़कर बिल्कुल भी विश्वास नहीं हुआ ,एक सर्जन हो कर ,आधुनिक विज्ञान के जमाने में ऐसी भूत प्रेत की बात ।परन्तु बात चूंकि जीजाश्री की थी,साक्षात भूत दिखाने की बात थी, इस लिए विश्वास ,अविश्वास के झूले में कुछ देर झूला ,फिर फैसला किया कि चलो ,जीजाजी की बात भी देखते हैं।वैसे मुझे तो बिल्कुल भी इन बातों पर यकीन नहीं था ,परन्तु सोचा ,भूत ना सही ,इस बहाने बहन जी से एवम् भांजो भांजी से मिलना भी ही जाएगा ,काफी दिनों से उनसे मिला भी नहीं हूं ,इस लिए तुरंत भोपाल जाने का प्रोग्राम बनाया ,ट्रेन में तत्काल कोटे से सीट रिजर्व कराई , और चल दिए भोपाल जीजाजी के पास !
      स्टेशन पर जीजाजी लेने आए ,ओपचारिक बातें हुई ,परन्तु भूत का कोई जिक्र नहीं हुआ।घर पर बहन बड़े प्रेम से मिली ,बच्चे बड़े खुश हुए और इन्हीं बातों में ना जाने कब समय बीतता गया।मेरे मन में तो वहीं भूत देखने की बात थी ,इस लिए आखिरकार रात्रि के भोजन के बाद जब मै एवम् जीजाजी कुछ देर के लिए बंगले के लान में आराम कुर्सी डालकर बैठे ,तो मैने पूछ ही लिया , मै सुबह से आया हूं परन्तु एक बार भी आपने भूत का जिक्र नहीं किया,क्या ......, तुरंत ही जीजाजी ने मुंह पर उंगली रख कर चुप रहने को कहा।कुछ देर बाद जब उन्होंने देखा कि मेरी बहन ,लान में नहीं है तो धीरे से बोले ,"" हां ,मैने तुम्हे वास्तव में भूत से मुलाकात करने के लिए ही बुलाया है ,परन्तु तुम्हारी बहन ने धमकाया कि मेरे भाई से भूत का कोई जिक्र नहीं करेंगे ,कहे देती हूं !"" मै चकराया ,क्या मतलब ,तो वे बोले ,भाई ,पत्नी के आदेश के आगे तो आज तक किसी की चली हैं जो मेरी चलेगी ,इस लिए मैने दिन भर भूत कि कोई बात नहीं की।अब रात होने वाली है तो तुम्हारे को इसी घर में ही भूत से मुलाकात करा दूंगा ,परन्तु जैसा में कहूं वैसा ही करना ।उनकी बातों में जो गंभीरता थी ,उस से मुझे यकीन हो गया कि आज वे मुझे भूत से मिलवा देंगे !
      रात्रि में ,सोने से से पहले जीजाजी ,मेरे कमरे में आए ,बोले " अब तुम्हारी बहन भी सोने चली गई है तो तुम अब भूत से मिलने की तैयारी कर लो !"" मै चकराया सा दिखा तो वे पास बैठ कर बोले " बात यह कि तुम जानते ही हो ,सर्जन होने के नाते में रोज ही मरीजों का ऑपरेशन करता हूं,जिन मरीजों का में ऑपरेशन करता हूं उनके कटे हुए अंगों को आगे की पढ़ाई के लिए केमिकल में डूबों कर अपनी स्वयं की लैब में सुरक्षित रखता हूं। इसे मेरा ""पेशन"" भी कह सकते हो।अब आज से कोई बीस दिन मेरे अस्पताल में एक मरीज आया जिसके हाथ में कील घुसने के कारण टिटनेस का इंफेक्शन हो गया था।मरीज, पूरे शरीर में इंफेक्शन के कारण गंभीर हालत में था ,परन्तु डाक्टर होने कर्तव्य के कारण मैने उसके घाव वाले हाथ को काटकर उसे बचाने की पूरी कोशिश की ,परन्तु इंफेक्शन अधिक फैल जाने के कारण वह बचा नहीं और आप्रेशन के दो दिन बाद ही उसकी मृत्यु हो गई।
           उसकी मौत के ग्यारह दिन पश्चात एक दिन सुबह उठ कर लेब में गया तो देखा कि वहां रात को किसी ने तोड़फोड़ की है।मैने सोचा ,रात को तो ये लेब बंद  रहती है लेब घर के एक हिस्से में बनी हुई है ,तो ये असंभव था कि कोई बाहर का आदमी तोड़फोड़ कर सके ।,पहले दिन तो मैने किसी चूहे या बिल्ली का काम जान,संतोष कर लिया ,परंतु जब अगले तीन चार दिन यही तोड़ फोड़ होती रही तो मैने एक रात स्वयं ही लेब में सोने का इंतजाम किया । 
     उस रात अचानक ही कांच की शीशी के जोर से टूटने की आवाज से मेरी नींद खुली तो मेरे होश उड़ गए।वहीं इंफेक्शन से मरने वाला मरीज ,एक एक कर मेरी कांच की बोतल उठाता,कुछ देखता ,फिर जोर से नीचे फेंक देता,। डर के मारे तो मेरी घिगी बन्ध गई। मै चुपचाप डर के मारे आंख बंद करे पड़ा रहा।थोड़ी तोड़फोड़ करने के बाद वो मरीज नहीं नहीं,मरीज का भूत गों गो करता गायब हो गया।उस रात के बात तो फिर आज तक लेब में ही नहीं गया।घर की बात कब तक घरवालों से छिपती ,एक रात तोड़फोड़ कि आवाज से तुम्हारी बहन की भी आंख खुल गई तो उसका भी चेहरा पीला पड़ गया ।लेब हटाने की जिद पर एडने के कारण बड़ी मुश्किल से कुछ दिनों की उससे मोहलत मांगी है,इसी कारण उनके सामने दिन में भी कोई बात भूत की तुमसे नहीं की।अब अगर तुम साक्षात भूत से मिलना चाहते हो तो तुम्हारे लेब में सोने का इंतजाम करूं या अगर डर लग रहा हो तो ......, नहीं ,जीजाजी,डरने की कोई बात नहीं है, मै तो भूत से मिलने ही इतनी दूर आया हूं ,वैसे मुझे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा है ।चलिए ,मेरे लेब में सोने का इंतजाम कीजिए।तो चलो साले साहब,उन्होंने कहा ,परन्तु अपनी बहन से कोई जिक्र नहीं कीजिएगा ,नहीं तो मेरी खेर नहीं। मै स्वीकृति में सिर हिलाते ,उनके साथ लेब में चल दिया, सोने को,भूत को देखने को !!
       लेब क्या थी एक बड़ा हॉल था जिसमें एक दीवार की ओर तो लकड़ी के बड़े बड़े खाने बने थे ,जिसने तमाम तरह के इंसानों के कटे अंग ,केमिकल की छोटी बड़ी कांच की पारदर्शी शीशी में रखे थे ,तो दूसरी दीवार की तरफ सीमेंट के पक्के खाने बने हुए थे ,जिन में भी तमाम तरह के अंग भरे हुए थे ,तीसरी ओर कुछ मेडिकल उपकरण रखे थे।लेब के गेट से दो मीटर की दूरी के करीब एक छोटा सोफ़ा ,दो कुर्सियां ,एक टेबल ,साथ ही एक अस्पताल का सा पलंग बिछा हुआ था ,जिस पर साफ ,सफेद चादर बिछी हुई थी।बिस्तर मुझे शानदार लगा तो , लेटते ही थकान के कारण मेरी आंख मूंद गई।
       अचानक तेजी से मेरे बाल खींचने के कारण मै उठ बैठा ।सामने देखा तो ......तो एक ग्रामीण वेशभूषा का पचास पचपन उम्र का एक आदमी एक हाथ से मेरे बालों को खींच कर मुझे उठा रहा है।लेब में टिमटिमाता हल्के नीले रंग के बल्ब की रोशनी में मुझे वो स्पष्ट नहीं दिख रहा था ,मगर बालों के खिचने के कारण मेरे सर में जो तकलीफ हो रही थी उससे साफ़ था कि कोई तो है जो मेरे बाल इस आधी रात को खींच रहा है।अब ये तो कोई कहने कि बात नहीं है कि मै , देहशत एवम् डर से साक्षात कांप रहा था।मन ही मन हनुमान चालीसा पढ़ने लगा। डर के मारे मेरी आंख बंद ही थी।अचानक उस ..... भूत ने मेरे बाल छोड़ दिए,मेरी तकलीफ कम तो गई मगर डर इतना अधिक हो गया था कि लगा कि अभी मेरा काम तमाम होने वाला है परन्तु यह क्या ,भूत ने मुझे कुछ नहीं कहा,केवल गो गो की आवाज करता रहा।जब मुझे लगा कि भूत का मुझे कोई नुक्सान पहुंचाने का इरादा नहीं है तो डरते डरते मैने अपनी आंखे खोल ली।
      जो सामने देखा तो फिर एकबार मेरे ऊपर डर से कंपकंपी आ गई ।सामने खड़ा भूत अपने गले से गो गो की आवाज निकालते हुए अपने साबुत हाथ की उंगलियों से अपने कटे दूसरे हाथ की ओर संकेत कर रहा है मैने देखा कि उसका वह हाथ कोनी तक ही है ।इतने डर के माहौल में भी मुझे जीजाजी के इंफेक्शन के कारण मरे मरीज की बात याद आ गई ।मुझे लगा कि भूत को मुझे कोई नुक्सान पहुंचाना होता तो अभी तक पहुंचा देता ,मगर नहीं वो तो केवल अपने कटे हाथ की ओर इशारा कर रहा था। मै समझ गया कि ये उसी मरीज का भूत है जो शायद अपने कटे हाथ को ढूंढ रहा है , और हाथ नहीं पाकर क्रोधित हो कर वो कांच की कुछ शीशियों को फोड़ जाता है।मैने फिर से अपनी आंखे बंद करली।
         कहने की बात नहीं है कि शेष रात डर के साए में ही काटी ,परन्तु भूत फिर नहीं दिखा।सुबह सुबह जल्दी ही जीजाजी आ गए और मेरे चेहरे को देखते ही सारी कहानी समझ गए ,मुझे उठाते हुए इतना ही बोले "" अब तो विश्वास हो गया ना कि भूत होते हैं,उनका भी अस्तित्व होता है।""शायद मेरे मोन की भाषा से जान गए होंगे कि अविश्वास करने का कोई कारण ही नहीं था।
      नाश्ते के बाद जब थोड़ी फुरसत मिली तो मै रात्रि के घटनाक्रम पर सोच विचार करता रहा।भूत होते हैं,अब इसमें तो कोई संशय नहीं था ,परन्तु रात के भूत से एक अनुभव भी मिला ,भूत मनुष्यों के लिए इतने खतरनाक भी नहीं होते हैं।रात में भले ही भूत ने मेरे बाल खिंचे ,मगर उसने मुझे कोई नुकसान नहीं पहुंचाया ! अब कई सारे क्यों के जवाब मुझे धूंडने थे।उसने मेरे बाल खींच कर मुझे जगाया क्यों ,फिर अपने सही हाथ से कटे हाथ की ओर इशारा कर रहा था मगर क्यों ! पूरा दिन निकल गया इस क्यों का उत्तर ढूंढते हुए।शाम को जब जीजाजी 
दैनिक कार्यों से मुक्त हुए तो उनसे भी भूत के इस अजीब से व्यवहार के संबंध में ही बात होती रही।अभी हम किसी निष्कर्ष पर पहुंचते कि अचानक जाने कहां से एक मधुमक्खी उड़ते हुए जीजाजी के कंधे पर बैठी तो उन्होंने तुरंत दूसरे हाथ से उसे उड़ान चाहा ,मक्खी तो उड़ गई परन्तु उनके इस व्यवहार से जैसे मुझे भूत की परेशानी का हल मिल गया।
      """जीजाजी,मेरे विचार से ये भूत उसी आदमी का है जिसकी मृत्यु हाथ काटने के बाद हो गई थी।मुझे लगता है कि वो भूत आपकी लेब में केवल अपना कटा हाथ ही लेने आता है क्योंकि मैने किस्से कहानियों में सुना है कि मृत्यु के बाद ,मृतक के शव को पूरा नहीं जलाया या दफनाया जाता है तो उसकी आत्मा भटकती रहती है ।जीजाजी ,क्यों ना हम किसी अन्य मरीज के कटे हाथ को लेब में रख दें तो शायद ये भूत उस हाथ को पा कर हमेशा के लिए चला जाएगा। """जीजाजी एक पल के लिए तो खामोश हो गए ,फिर तुरंत ही बोले ,शायद तुम ठीक कहते हो , मै अभी अपने एक परिचित सर्जन मित्र से कटा हाथ मंगवाता हूं ,क्योंकि मेरे पास उस मरीज का हाथ नहीं है ।उस भूत का हाथ मेरे एक सर्जन मित्र ने प्रेक्टिकल के लिए मंगवालिया था।
       शाम होते होते घर पर कटा हाथ आ गया।आज मै फिर लेब में सोने को तैयार था। कल रात के मुकाबले आज थोड़ा भय कम लग रहा था।
       कटे हाथ की शीशी को लेब के एक कोने में रख ,मैने अपनी आंखे बंद करली,हालांकि आज मुझे बिल्कुल भी नींद नहीं आ रही थी,परन्तु भूत कि प्रतिक्रिया देखने के लिए बहुत हल्की सी आंख ओट में खोल रखी थी।
      रात गहराती गई ,ना जाने कब मेरी आंख लग गई।तभी मुझे गो गो की आवाज सुनाई दी ।समझ गया कि भूत महाशय आ गए हैं।ओट से देखता रहा।भूत रोज की तरह एक शीशी उठाता,देखता और शीशी फर्श पर पटक देता।तभी उसकी नज़र कटे हाथ वाली शीशी पर गई।उसने उसे तुरंत उठाया और पहले तो वो खुशी में झुमा ,फिर अचानक जाने क्या हुआ कि उसने शीशी फर्श पर पटक दी।वो अचानक मेरी ओर लपका ,तो मैने भय से अपनी आंख बंद करली ,तभी एक जोर का चांटा मुझे लगा।पीड़ा से मैने आंखे खोली तो भूत अत्यंत क्रोधित नजर से मुझे देख रहा था ,साथ ही गो गो की आवाज निकाल रहा था।फिर तेजी से वो गेट के पास जा कर ओझल हो गया।
        सुबह जीजाजी और मै , सर पकड़े निराश से बैठे थे।समझ नहीं आ रहा था कि हाथ देख कर पहले तो भूत खुश हुआ फिर जाने क्यों उसने हाथ वाली शीशी फेंक दी।अब  इस भूत का क्या उपाय किया जाए समझ ही नहीं आ रहा था। हम दोनों एक बार दिन के उजाले में लेब देखने गए।भूत का तो कोई निशान नहीं था परन्तु टूटी फूटी कांच की शीशियां उसकी उपस्थिति बयां कर रही थी।मैने आगे बढ़ कर उस कटे हाथ को उठाया जिसे भूत ने पहले गौर से देखा ,फिर पटक दिया था।अब मै उस कटे हाथ को पकड़े गौर से देख रहा था , और तभी मुझे भूत के नाराज होने का कारण समझ आ गया।ओह ! तो ये बात थी।"" जीजाजी मुझे भूत के,कटे  हाथ होने के बाद भी  नाराज होने का कारण समझ आ गया !"" वे हैरानी से मुझे ताकने लगे।"" जीजाजी ,मैने पहली रात में भूत को साबुत हाथ की उंगलियों से कटे हाथ की ओर इशारा करते देखा था ।जानते है आप कि कल रात को हमने जो कटा हाथ रखा था वो सीधा हाथ था ,जबकि उसका बायां हाथ आपने कटा था।"" जीजाजी तुरंत समझ गए , भई वाह , साले साहब,आप तो जीनियस निकले,ये तो मैने सोचा ही नहीं था।अब मै खुद किसी की लेब में जाकर सही हाथ लाऊंगा ""! मेरे ये कहते कि सही हाथ का मतलब उल्टा हाथ ,तो इस तनाव के बीच भी हम दोनों मुस्कुरा उठे।
      फिर से एक बार हाथ को , हां हां उल्टे कटे हाथ को, शीशी में सही स्थान पर रख , कल की तरह ही मै भूत का इंतजार करने लगा ! कल की तरह आज मुझे जरा सी भी नींद नहीं आ रही थी।केवल भूत महाशय के लिए ही मैने अपनी आंखे बंद कर ली थी !
        अधमुंदी आंखो से मैने देखा ,भूत सही समय पर आ पहुंचा।इधर उधर देखते अचानक उसकी नजर कटे हाथ पर पड़ी।उसने उसे उठाया ,गौर से देखा और फिर गो गो की आवाज निकालने लगा। मै सहमा सा चुपचाप देख रहा था।तभी मुझे लगा कि भूत की ये गो गो की आवाज क्रोध की नहीं बल्कि खुशी की है।भूत उस हाथ को उठाकर देर तक खुशी से झूमता रहा एक नजर मुझ पर डाली , और कटे हाथ को सीने से लगा, शीघ्र ही आंखों से ओझल हो गया !!
       उस रात के बाद फिर कभी जीजाजी के लेब में तोड़ फोड़ नहीं हुई,परन्तु भूत होते हैं,ये सिद्ध हो गया ! अगर आप को विश्वास ना आए तो मुझे बताइएगा ,फिर कभी जीजाजी की लेब में आपको ले चलूंगा,तभी आपको विश्वास आएगा कि ""भूतों का अस्तित्व होता है""  !!!!!

मंगलवार, 26 मई 2020

कथा .... श्रीकृष्ण ( महा प्रयाण का दिन)भाग दो

    कथा .... श्रीकृष्ण ( महा प्रयाण का दिन)
        
                  "भाग २"
   
 "" कृष्ण "" क्या बात है ,आज इतनी जल्दी उठ गए आप ! कृष्ण चोंके,हल्के से मुंदी अपनी  आंखों को जैसे बड़ी ही कठिनाई से खोली ।सामने रुकमणी खड़ी थी। कृष्ण को कुछ क्षण लगे ,बरसाने से वापस द्वारका की मानसिक यात्रा से वापस आने को ! लेकिन रुकमणी ने कृष्ण की इस क्षण भर की दुविधा को जैसे भांप लिया।वे तुरंत आगे आई ,कृष्ण के हाथों को कोमलता से अपने हाथों में थाम लिया ,लगा जैसे उनका कृष्ण आज कहीं जाने वाला हैं ।उनकी बेचैनी ने जैसे स्वर धारण कर लिया "" मैने पूछा कृष्ण ,कहीं आज आपको जाना है क्या ! एक पल को कृष्ण जैसे उत्तर देने से ठिठके, आज तक उन्होंने कभी असत्य नहीं बोला था ,इसलिए आज इस महाप्रयाण की बेला में असत्य तो नहीं ही बोलूंगा,वैसे भी राधा ,उनकी मानसिक शक्ति अब जा ही चुकी थी "" हां ,रुकमणी ,मुझे आज जाना है,सोचा ,थोड़ा शीघ्र उठकर कुछ समय तुम्हारे साथ इस भोर कि बेला में  बिता लूं।प्रतिदिन तो उठते ही तुम मेरे साथ साथ पूरे महल के प्रबंधों में व्यस्त हो जाती हो तो इस लिए आज .....।रुकमणी को कुछ राहत मिली।"" हां कृष्ण ,सत्य कहते हैं आप,लेकिन आज मै भी आपके साथ ही चलूंगी।बहुत दिनों से हम साथ साथ नहीं निकले।""
       अब तक कृष्ण  मानसिक रूप से दृढ़ हो गए थे।राधा जा ही चुकी थी।अब उन्हें भी जाना ही था।"" नहीं रुकमणी, आज भी तुम्हे मुझे हमेशा की तरह अकेले ही जाने देना होगा ।रुकमणी ने कृष्ण के हाथों को और कस कर पकड़ लिया।भोर के धुंधले होते अंधेरे में लगा जैसे कि कृष्ण उसमे घुलते जा रहें हैं।"
       "" आओ ,रुकमणी,चलो इस महल के बाहर समुद्र के किनारे शीतल पवन के सानिध्य में कुछ क्षण व्यतीत करते हैं""।रुकमणी को थोड़ा विस्मय सा हुआ ,फिर भी बोली "" क्या रथ का इंतजाम करूं ,"" "" नहीं नहीं ,आज हम दोनों पैदल ही इस भोर की नीरवता का अनुभव करते हुए ऐसे ही चलते हैं,बहुत दिनों से इस प्रकार का संयोग ,व्यस्तता के कारण हम उठाने से वंचित रहे हैं।""
     दोनों ,एक दूसरे का हाथ थामे धीरे धीरे महल के घुमावदार रास्तों से होते हुए बाहर निकले।महल की सुरक्षा में लगे कर्मचारी थोड़े अचरज में पड़े ,वे सुरक्षा कारणों से उनके पीछे चलने हेतु उद्यत हुए तो कृष्ण के संकेत पर थम गए।
     मार्ग पर जैसे ही उन्होंने कदम बढ़ाए ,मार्ग में रजनीगंधा के पुष्प जैसे उनके स्वागत में बिछे हुए से प्रतीत हो रहे थे।वातावरण में रात्रि के पुष्प कहे जाने
 वाले मोगरा ,चमेली के वृक्ष जैसे उनके पदचापों की धमक प्रतीत करते ही पुष्पों कि वर्षा सी करने लगते ,पुष्पों के उनके अंगों से टकराते ही एक सुगंध की फुहार उन्हें अंदर तक भिगो जाती ।कुछ पुष्प जब रुकमणी के वेणी में अटक जाते तो कृष्ण मंद मंद मुस्कुराते होले से उन्हें चुन लेते,फिर एक ओर पटक देते। ये मार्ग जो दिन में हर समय द्वारका के निवासियों द्वारा हमेशा गुंजायमान रहता ,वहीं भोर के इस प्रहर में केवल पक्षियों के मंद मंद कलरवों से जीवंत हो रहा था।
     शीघ्र ही अपने मनपसंद किनारे की एक अपेक्षाकृत समतल उभरी चट्टान पर वे बैठ गए।
      कुछ क्षण वे यूं ही मोन ,समुद्र की उफनती लहरों को ,उसमे दमकते भोर के तारों को देखते रहे।रुकमणी को लगा जैसे कि आज द्वारका का समुद्र जो हमेशा गरजता ,उफनता रहता था ,पता नहीं आज इतना शांत कैसे है।द्वारका नगरी की भौगोलिक स्थिति कृष्ण के दूरदृष्टी के कारण ही आज संपन्नता की कहानी बन गई थी।लंबी लंबी सामुद्रिक यात्राएं करने वाले विशाल जहाजों के लिए द्वारका एक महत्वपूर्ण स्थान बन चुका था।वे जहाज द्वारका के किनारे भोजन , और  विश्राम के लिए अपना लंगर डालते थे ,जिसके कारण बदले में प्राप्त हुए करों के कारण द्वारका अति शीघ्र ही उस समय की अत्यंत धनाढ्य नगरी बन गई थी ।ये कृष्ण की दूर दर्शिता का ही परिणाम था कि सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में द्वारका का महत्व सूर्य की रोशनी की तरह जगमगा रहा था।कृष्ण और उनके राज्य के थोड़े बहुत शत्रु, द्वारका की ओर देखने का अब साहस नहीं कर पाते थे।द्वारका की प्रजा सुख चेन के साथ जीवन व्यतीत कर रही थी।अधिकांश समय ,कृष्ण अपने पुराने साथियों सहयोगियों के साथ प्राय ,धार्मिक आयोजनों ,भ्रमण एवम् यज्ञों आदि में ही समय व्यतीत करते रहते थे।रुकमणी तो प्रातःप्रतिदिन अपने भाग्य को सराहते हुए इंद्राणी के समान सुखों का उपभोग करती रहती थी।परन्तु जैसे जैसे समय बीतता जा रहा था वो स्पष्ट देख रही थी कि कृष्ण में कुछ परिवर्तन आ रहे हैं ।कृष्ण धीरे धीरे राजकाज के कार्यों को अपने पुत्रों ,विश्वसनीय सखाओं में बांटते जा रहे थे। और जबसे उन्होंने रुकमणी को भी द्वारका के कुछ महत्व पूर्ण कार्यों के लिए निर्देश देने प्रारंभ किए थे तो रुकमणी कुछ चिंतित सी होने लगी थी।रुकमणी वास्तव में कृष्ण से हृदय से प्रेम करती थी,इतना अधिक प्रेम कि कृष्ण के लिए उन्होंने अपने भाई शिशुपाल से भी बेर लिया था।शिशुपाल एवम् पिता की मृत्यु के पश्चात तो कृष्ण ही उसकी दुनिया थे।अब इतने वर्षों पश्चात कृष्ण के व्यवहार में जो परिवर्तन दृष्टिगोचर हो रहे थे स्पष्ट था कि किसी अनजानी आशंका से रुकमणी को चिंता होने लगी थीं ।आज भोर के समय कृष्ण के इस तरह चुपचाप अतिशीघ्र उठन से जैसे उसकी आशंकाएं साकार होने लगी थी।कृष्ण ने रुकमणी को समुद्र की ओर जब खोई खोई दृष्टि से ताकते हुए देखा तो उनसे रहा नहीं गया ,क्योंकि वे स्वयं भी आज रुकमणी को अपने महाप्रयाण के संबंध में बताने के लिए अवसर खोज रहे थे।"" रुकमणी ,इस मधुर ,शांत भोर की बेला में भी तुम किन विचारों मै उलझी हुई हो ,क्या बात है मुझसे साझा नहीं करोगी क्या " सुनते ही जैसे रुकमणी के आंख के आंसू पिघल उठे ।वे अपने हृदय की आकांक्षाओं को अब छुपा नहीं सकी।उन्होंने कृष्ण को जकड़ कर अपने भावों को शब्दों में पिरोकर पूछ ही लिया " कृष्ण क्या वास्तव में आप मुझे छोड़ कर जा रहे हैं !? कृष्ण ने अपनी गहरी नीली आंखो से सीधे रुकमणी की आंखों में देखा ,अपने हृदय में उठते विचारों के तूफानों को ,जो अब तक बलपूर्वक उन्होंने रोक रखा था ,अब उसे थामने में अपने को  असमर्थ   प्रतीत किया ।यही अवसर है ,रुकमणी को अब वास्तविकता से सामना करना ही होगा।उन्हें उसे बताना ही होगा कि " हां ,उन्हें अब जाना ही होगा हमेशा हमेशा के लिए ""।उन्होंने पुनः एक बार रुकमणी को अपने आलिंगन में ले लिया।
    """ रुकमणी ,तुमने हमेशा मेरे साथ रह कर हर कठिन समय में मेरा उत्साह ,साहस को संबल प्रदान किया है ,....... रुकमणी ,परन्तु विगत कुछ समय से मुझे लगने लगा है कि इस संसार में मेरे आने का प्रायोजन पूरा हो चुका है।परिवर्तन इस संसार का नियम है।अब ये मेरा कर्तव्य है कि मै दूसरों को भी अवसर दूं ,ताकि वे सब भी इस संसार में आने का अपना प्रायोजान सिद्ध कर सकें। मै चाहता हूं कि रुकमणी ,जिस प्रकार तुमने अपने जीवन में आने के लिए मुझे सहर्ष अनुमति दी थी वैसे ही इस संसार से जाने के लिए  तुम मुझे सहर्ष अनुमति दो रुकमणी !""
      अवाक रुकमणी ,कृष्ण की छाती से चिपक जैसे बिलख उठी।उसकी आशंका सत्य हो उठी।कृष्ण जा रहे थे।
       अब कृष्ण जी से नहीं रहा गया।रुकमणी को पकड़े पकड़े वे खड़े हो गए।"" रुकमणी अब सत्य को स्वीकार करने का साहस करो।जैसे तुम अभी तक अपना कर्तव्य निभाती आई हो वैसे भी मेरे बाद तुम द्वारका के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाती रहोगी।चलो रुकमणी, अपने कर्तव्यों का आरंभ अब तुम मुझे सहर्ष विदा करके करो। रुकमणी अब जान चुकी थी कि उन्हें वास्तविकता से सामना करना ही होगा।इतने वर्षों के साथ से वे अच्छी तरह जानती थीं कि कृष्ण अपने निश्चय पर दृढ़ रहने वाले व्यक्ति विशेष है।उन्होंने अंतिम बार पुनः कृष्ण को मनाने का प्रयत्न किया , हे प्रिय स्वामी ,आपने मेरा हरण करते हुए मुझसे प्राण किया था कि आप जीवन पर्यन्त मेरा साथ देंगे ,तो उसी प्रण को स्मरण करते हुए मुझे क्यों अकेला छोड़ कर जाने की बात कर रहे हैं।कृष्ण ने रुकमणी के हाथ थामे ,दृढ़ गंभीर स्वर में जो कहा उसे सुन कर तो जैसे रुकमणी  भली प्रकार जान गई कि अब उनका एवम् कृष्ण का बिछोह अवश्यंभवी है।""" रुकमणी ,शायद तुम वर्तमान जन्म के मोह में उलझ कर ये भूल चुकी हो कि जब जब हमने इस धरा पर अवतार लिया है ,हमे विछोह सहना पड़ा है।स्मरण करो , सीता के अवतार का,स्मरण करो लक्ष्मी के अवतार का , और ऐसे ही ना जाने कितने ही अवतारों में हमने जब जब भी मानवीय रूप धारण किया है ,संयोग एवम् मिलन ही तो उसका प्रमुख कारण रहा है। बस कुछ ही समय की और देर है ,अपने धाम में , मै तुम्हारा ,अपने दोनो हाथ फैलाए इंतजार करूंगा।रुकमणी ,विधि के विधान से स्वयं मै भी बंधा हुआ हूं, उसका उलंघन ना तो मनुष्य रूप में मै कर सकता हूं एवम् ना ही नारायण रूप में । धेरया रखें ,काल के नियम के अनुरूप ही हमे कर्तव्य करने होते हैं,अब मेरा इस धरा पर कर्तव्य सम्पूर्ण हुआ ,तुम्हे अभी इस कालचक्र में और रहना है ,इसलिए मेरी विदाई में तुम्हे बाधा नहीं डालनी चाहिए।"" सिसकती रुकमणी के पास अब कुछ कहने को ,कृष्ण को रोकने को कोई भी उपाय नह रह गया था।वे जोर जोर से रोटी हुई कृष्ण के चरणों में गिर पड़ीं।
      सहसा उन्होंने अपने को रुकमणी के बंधन से छुड़ाया,एक बार उनकी ओर गहरी नज़रों से देखा ,फिर दोनों हाथ जोड़ कर उनसे विदा की मुद्रा में आज्ञा मांगी एवम् अपने चरित्र के अनुसार ,जिस भाव से वे बरसाने से मथुरा की ओर प्रयाण किया था ,अब उसी भाव भंगिमा के साथ ,मोह के सारे बंधनों को एक ही झटके में काट, द्वारका के विपरित दिशा की ओर, गहरे वन मार्ग पर अपने कदम बढ़ा दिए।रुकमणी उन्हें भावशून्य नज़रों से तब तक देखती रहीं जब तक वे उनकी दृष्टि से ओझल नहीं हो गए।
       " सुनो प्रिये,तुम हमारे जीवन पालन के लिए क्यों इन निर्दोष ,निस्सहाय पशुओं का शिकार करते हो ,? क्या तुम्हे उन निरीह मूक प्राणियों पर किंचित दया नहीं आती ,जिनके शिकार के लिए तुम रोज वन में जाते हो ?" "" अगर वन में मै आखेट नहीं करूं तो तुम्हारा ,अपनी संतानों का पालन पोषण कैसे करूं ,तुम ही बताओ , मै तो केवल तुम सबके भोजन आदि की आवश्यकताओं के लिए ही तो आखेट करता हूं "! "" तो तुम क्यों नहीं द्वारकाधीश के पास कोई कार्य मांगने जाते हो ,सुना है वे बड़े दयालु हैं ,धन धान्य की उनके पास कोई कमी भी नहीं है ""।"" सोचता तो मै भी यहीं हूं परन्तु वे ठहरे द्वारकाधीश , मै एक साधारण सा आखेटक ,फिर क्या जाने कोई उनसे मुझे मिलने का अवसर भी देगा कि नहीं "। " लेकिन तुम एक बार द्वारकाधीश से मिलने का प्रयास तो करो ,मुझे पूर्ण विश्वास है कि वे सर्वदा असहयाओं की मदद को तत्पर रहते हैं ,मैने भी उनकी दयालुता की कई कहानियां सुनी हैं,इस लिए मै आपसे प्रार्थना करती हूं कि आप ये निर्दोष प्राणियों के वध का पाप पूर्ण कार्य त्याग कर ,मजदूरी आदि कोई भी कार्य करें, ताकि हमारा अगला जन्म सुधर जाए " ।
     पत्नी की उपरोक्त गंभीर बातें सुनकर ,"" जरा "" नामके बहेलिया का भी आज मन कुछ बदलने लगा।पत्नी ठीक कहती है ,निर्दोष पशुओं को मारने के क्रूर कर्म से जो पाप लगता है , कहीं ईश्वर मुझे उसके कारण नरक की अग्नि में तो नहीं झोंक दे। जरा का मन आज कुछ परिवर्तित होने लगा।
     "" ठीक कहती हो तो तुम प्रिए ,बस आज अंतिम दिन मुझे आखेट पर जाने दो , क़ल अवश्य ही मै द्वारका जा कर किसी भी प्रकार से द्वारकाधीश के दर्शन कर परिवार के जीवन यापन हेतु प्रार्थना करूंगा,पर आज मुझे मत रोको।"" 
       पत्नी ने होले से हां में गर्दन हिलाई तो ,जाता नामके बहेलिया ने अपना तीर धनुष उठाया और वन की ओर आखेट के लिए चल पड़ा।
       प्रातः से दोपहर हो गई ,सूर्य सीधे सिर के ऊपर ,अपनी भयंकर रश्मियों से जैसे अग्नि कि बरसात कर रहे थे।गर्मी एवम् भूख के साथ निराश ,हताश ,"जरा" शिकार हेतु कोई भी जानवर ना पाकर वापस अपने घर लौटने का विचार कर है रहा था कि उसे लगा कि सामने कुछ दूर झाड़ियों में कोई आहट हुई है।" ओह, प्रतीत होता है कोई तो है उन झाड़ियों में ,जो इस ताप्ती दोपहर में विश्राम कर रहा है। हे ईश्वर ,आज मुझ पर कृपा करे , मेरे तीर का सटीक निशाना ये प्राणी बने ताकि मै अपने भूले परिवार की भूख मिटा सकूं "।वह बिना कोई आहट किए , होले होले जितना हो सकता था ,दूर झाड़ियों में गुलाबी रंग से चमकते ,शायद ये हिरण हो ,ये समझ उस प्राणी के नजदीक तक जा पहुंचा ,अपने कंधे से टांगे धनुष को उतारा ,उसमे विष भुजे तीर को लगाया और सीधे ,सटीक निशाना लेकर ,उस चमकते प्राणी के गुलाबी अंग पर तीर छोड़ दिया।
      वातावरण में एक माध्यम सी चित्कार सू हुई। जरा दौड़ते हुए सीधे शिकार की ओर दौड़ा ,ये क्या ,ये तो कोई मनुष्य है जो अपने एक पैर के मुड़े घुटने पर दूसरे पैर को रख कर लेटा हुआ था। हे ईश्वर , ये कैसा अपराध मुझसे हो गया ,हिरण के धोके में उसका विष बुझा तीर उस मनुष्य के गुलाबी चमकते तलुए में जा धंसा था। जरा ने हिम्मत कर उस विष के प्रभाव से अचेत होते मनुष्य को सीधा करने का प्रयत्न किया तो ..... भय एवम् शोभ से कापने लगा।ये तो स्वयं द्वारकाधीश हैं ,ये तो कृष्ण है। जरा बिलखता हुआ , बारम्बार द्वारकाधीश से क्षमा मांगने लगा। जरा कृष्ण के रक्त निकलते पैर को उठाकर रक्त रोकने का प्रयत्न करने लगा कि तभी द्वारकाधीश श्री कृष्ण ने होले से अपनी आंखे खोलते हुए उसे इतना ही कहा "" तुम कोई दुख मत प्रकट करो , ये तो मेरा प्रारब्ध था ! !
           जय द्वारकाधीश ,जाए श्री कृष्ण

शुक्रवार, 22 मई 2020

कथा ...........श्री कृष्ण ( अवतार का अंतिम दिन)

                      कथा 

  श्रीकृष्ण ( अवतार का अंतिम दिन )

  भोर की पहली किरण,हल्की सी " गुंजन "पक्षी की आवाज, इस आवाज के अतिरिक्त हर ओर शांति की एक निशब्द ध्वनि के साथ श्रीकृष्ण की आंख खुली।वे हौले से उठ कर बैठे।समीप में शैया पर रुकमणी अभी भी किसी गहन स्वप्न में खोई हुई सी, अधरों पर हल्की सी मुस्कान लिए निंदृत अवस्था में सोई हुई थी।उनके बालों की एक लट, मध्यम हवा का संबल पा,जैसे उनके मुख पर इठलाती हुई सी लहरा रही थी।कृष्ण धीरे से उठ खड़े हुए।वे नहीं चाहते थे कि रुकमणी के स्वप्न संसार में कोई बाधा पड़े।धीमे धीमे वे शयन कक्ष से बाहर निकल श्रीतिर्थ जिसे आज हम द्वारका के नाम से जानते है के अपने इस विशाल किलेनुमा महल के एक खुले कंगूरे पर सट कर खड़े हो गए। हल्की ,ठंडी हवा जैसे उनके कानों में कुछ कहने लगी।सामने विशाल लेकिन हमेशा उमड़ती ,बलखाती लहरों के रूप में अपनी व्यग्रता दिखलाता समुद्र भी पता नहीं आज क्यों शांत ,निस्तब्ध एक शांत नदी की तरह लग रहा था।गुंजन पक्षी कृष्ण को जगाकर ना जाने कहां उड़ गया था।सामने विशाल उपवन,राजमार्गों के किनारे, सघन पत्तियों से लदे वृक्ष भी शायद अभी रात्रि के इस अंतिम पहर में अलसाए से खड़े थे। पुनः तभी ना जाने कहां से हवा का एक हल्का सा झोंका अपने अंदर कदंब के पुष्पों की भीनी सी महक समेटे सीधे उनके मुख़ से टकराया तो वे चोंक उठे।उन्होंने  खड़े खड़े ही अपनी पलकों को मूंद लिया ।
      "  कृष्ण ,अरे तुम अचानक यहां बरसाने में कब चले आए ?" दूर से उन्होंने अपलक निहारती राधा की आवाज सुनी, तो वे अपने को रोक ना सके।उन्होंने अपने दोनो हाथ राधा की ओर बढ़ाए ,तो राधा की आवाज ने जैसे उनके पग के साथ साथ उनके, राधा के आलिंगन हेतु बढ़ाए हाथों को जैसे रोक दिया।" कृष्ण ,तुमने बताया नहीं कि अचानक यहां केसे आना हुआ "।राधा की गंभीर आवाज ने जैसे योगिराज को रोक दिया। " बस ,दुनियादारी के कार्यों में उलझा रहा ,कभी  आने का अवसर ही नहीं मिला , जब कभी तुमसे मिलने का अवसर खोजता ,तभी कोई ना कोई कार्य मेरा मार्ग रोक देता परन्तु राधा , माना कि मै कार्य क्षेत्र में उलझा रहा ,पर तुम तो द्वारिका आ सकती थी,तुम्हारे लिए तो द्वारका का प्रत्येक मार्ग खुला हुआ था।नहीं ,कृष्ण ,स्मरण करो जब तुम हमेशा के लिए वृंदावन छोड़ कर मथुरा जा रहे थे तो तुम्हीं ने तो कहा था कि राधा निश्चिंत रहो,वचन देता हूं कि लौट कर बरसाना आऊंगा और तुम्हे हमेशा हमेशा के लिए अपने साथ ले जाऊंगा "  कृष्ण की बड़ी बड़ी सी आंखों में जैसे द्वारका के विशाल समुद्र की नमी भरने लगी।" हां, तुमने वचन दिया था , और मै जानती हूं कि कृष्ण अपने वचनों के पक्के हैं, और आज तुमने  वचन निभा भी दिया कृष्ण "! तुम आज पुनः एक बार बरसाने ,अपनी राधा के पास लौट आए हो।" ये सुनते ही कृष्ण के अश्रुओं का बांध जैसे टूटने लगा।
       " नहीं कृष्ण , इन आंसुओं को व्यर्थ मत जाने दो। मै जानती हूं कि मेरा कृष्ण जिन विशाल ,इतिहास की धाराओं को मोड़ने में व्यस्त था ,शायद मेरी विरह पुकार को सुनकर कहीं वह अपने कर्मों से विलग ना हो जाए। जिस कृष्ण का अवतार ,संसार में कर्मों के प्रसार हेतु हुआ है , मै अपने छोटे से स्वार्थ वश ,उनमें बाधा नहीं बनना चाहती थी।विश्वास करो कृष्ण मैने कभी स्वप्न में भी यह नहीं सोचा कि कर्मो के पथ से तुम्हे किसी प्रेम के पथ के उद्देश्य हीन मार्ग पर चलने के लिए प्रयास करूं।फिर कृष्ण क्या तुम वास्तव में मानते हो कि मै कभी भी,किसी क्षण तुमसे आज तक दूर रही हूं? 
    निरुत्तर से कृष्ण अवाक से राधा के मुख को निहारते रहे।सत्य कह रही है राधा।जबसे बरसाना छोड़ ,कर्मपथ पर कदम रक्खा है,तब से आज तक ,जीवन के इस अंतिम पड़ाव तक राधा हमेशा में मस्तिष्क के किसी एक कोने में विराजमान रही हैं।जब भी कभी दुनियादारी के झंझावात में कोई भी कठिन क्षण आया,कभी भी अनिर्णय की स्थिति आईं,हमेशा राधा ही तो मार्ग प्रशस्त करती रही है।कृष्ण को याद आया कि जब भी वे कोई महत्वपूर्ण निर्णय करते थे ,तो अचेतन में उपस्थिति राधा उन्हें निर्णय लेने में मदद करती रहती थी।शायद कोई एक भी दिन ऐसा नहीं बीता होगा जब अत्यधिक व्यस्त होने के बाद भी, जब कभी विश्राम का क्षण प्राप्त हुआ तो उन्हें राधा का स्मरण नहीं हुआ हो।
     कृष्ण ने फिर एक बार राधा को मन की ओट से बाहर निकाला और साक्षात देखने लगे।बरसाना छोड़े हुए उन्हें एक शतक से भी अधिक समय हो गया था।भले ही वे चमत्कारिक व्यक्ति थे ,परन्तु मानव व्यवहार का असर उन पर भी पड़ रहा था।इस पृथ्वी पर शायद उनके पधारने का उद्देश्य अब पूर्ण हो चुका था।पूरे भारत वर्ष में अब धर्म और न्याय शीलता की पताका लहरा रही था।स्वयं उनके मानव रूपी शरीर पर दीर्घ जीवन का प्रभाव सम्पूर्ण रूप में दिखाई दे रहा था।उन्हें लगने लगा था कि इस धरा पर उनके अवतरित होने का उद्देश्य पूर्ण हो चुका है ,उनके, अब अपने धाम पर वापस जाने का समय आ चुका है।अपने जैविक एवम् पालक माता पिता के सारे दुखों,कष्टों का वे अंत कर चुके थे।उनकी स्वयं की संताने अब स्वयं धर्म की रक्षा के लिए योग्य हो चुकी थी।अपनी महिषी रुकमणी की कोई चिंता नहीं थी।कृष्ण के लंबे साथ ने उनको मानसिक रूप से अत्यधिक मजबूत बना दिया था।कृष्ण ने अपने अवतार के पूर्ण होने का आभास होते ही ,रुकमणी को व्यस्त रखने हेतु उन्हें धीरे धीरे द्वारका के राजकाज में हाथ बटाने के लिए पूरी तरह प्रशिक्षित कर दिया था।स्वयं रुकमणी को पिछले कुछ समय से स्पष्ट रूप से कृष्ण, जो उनका जीवन आधार थे ,में बदलाव की अनुभूति कहीं गहराई से होने लगी थी।स्वयं कृष्ण ने भी बातों बातों में उन्हें ,उनके बाद जिम्मेदारी उठाने को लेकर मार्गदर्शन कई बार किया था।समय के इस अंतराल में स्वयं रुकमणी भी कृष्ण से विलग होने की बात से सचेत थी।वे कोई भी क्षण अब कृष्ण को अपनी आंखों से दूर नहीं रखती थी ।हर समय वे कृष्ण की परछाई के रूप में रहती थी।कृष्ण भी इसे अनुभव करते हुए नित्य प्रतिदिन रुकमणी को द्वारका के कामों हेतु सजग करते जा रहे थे।ऐसा नहीं था कि इन सब के मध्य वे कभी भी राधा को एक क्षण के लिए भी भूले हों।उनके हृदय में हमेशा राधा के प्रति  ,उनके द्वारा किए अन्याय का भाव उपस्थित रहता था।क्या सोचती होगी राधा उनके बारे में।क्या द्वारकाधीश होने से वे राधा को भूल गए होगे,अथवा धरा के लिए किए गए कर्मों में, वे राधा को भूल गए होंगे,या रुकमणी के उनके जीवन में प्रवेश करने को लेकर राधा उन्हें विरह के लिए तो जिम्मेदार तो नहीं मान रही होगी।इन्हीं सब प्रश्नों के उत्तर आज इस भोर की बेला में उन्हें साक्षात राधा से प्राप्त हो रहे थे।
 कृष्ण ने पुनः एक बार ध्यान से राधा को पूर्ण चेतांता से देखा। राधा अब वो ब्रज की शोड्सी नहीं रह गई थी।उम्र और कर्तव्यों के कारण उनका बाहरी रूप बादल गया था परन्तु व्यवहार ... तभी राधा की धीर,गंभीर आवाज ने उन्हें लक्ष्य किया।नहीं ,कृष्ण, नहीं, मै जानती हूं कि जैसे तुमने मुझे एक क्षण भी अपने से अलग नहीं किया  ,वैसे ही मैने भी तुम्हे कभी विस्मृत नहीं किया । जहां तुम कर्म के प्रभाव में बह रहे थे तो मै तुम्हारी ,मुझे सौंपी गई जिम्मेदारी ,कर्तव्यों को तुम्हारी आज्ञा जान कर यहां ,बरसाना में उनका पालन पोषण कर रही थी। नंद एवम् यशोदा जिन्होने द्वारका ना जाकर बरसाने में ही रुकने का निश्चय किया था,उनकी देखभाल तुम्हारी ही आज्ञा में कर रही थी।तुम जानते ही हो कि अगर में भी तुम्हारे साथ द्वारका चली जाती तो शायद वे भी इस धाम को छोड़ ,परम धाम पर कबके चले गए होते कृष्ण।कृष्ण निरुत्तर थे।
      " राधा,कहने को तो बहुत कुछ शेष है पर, " नहीं कृष्ण अब कुछ मत कहो ।ये मार्ग मैने स्वयं चुना था ,लेकिन मन के किसी कोने में एक इच्छा थी कि इस धाम को छोड़ने से पहले एक बार तुम से साक्षात्कार कर लेती तो... ।राधा का स्वर रूंधने लगा था।कृष्ण अपलक ,अवाक राधा के अनकहे शब्दों को, ,भावनाओं को बिना सुने भी सुन रहे थे।वे समझ चुके थे कि राधा ने भी अब उनसे ,नहीं नहीं ,इस धाम से विदा होने का निश्चय कर लिया है।राधा से मिलकर जहां उनके हृदय को अपराध भाव से मुक्ति मिली थी , वहीं ,राधा से पुनः हमेशा के लिए, विरह की आकांक्षा उनके हृदय को मथ ने लगी थी।वे अच्छी तरह से जानते थे कि राधा दृढ़ निश्चय कर चुकी थी।अब विदाई की बेला आ चुकी थी।
    कृष्ण,एक चमत्कारी पुरुष को ,शायद जो कुछ अभी तक घट चुका था , और जो घटने जा रहा था ,उसका पूर्वानुमान ना हो  ऐसा हो ही नहीं सकता था ।लेकिन सम्पूर्ण संसार को कर्मो के लिए प्रेरित करने,मनुष्यता को मानव धर्म का पालन करने के लिए वे गीता के ज्ञान के रूप में पूर्व में ही अपने पश्चात संसार को मार्ग दिखाने का मार्ग आलोकित कर चुके थे।स्पष्ट था कि उन्हें  संसार से विदा लेने हेतु ,स्वयं अपने साथ साथ अपनी मानसिक शक्ति राधा से भी आज्ञा लेनी ही थी जिसके लिए ही आज वे राधा के सम्मुख खड़े थे ।वे भली भांति जानते थे कि स्वयं राधा का भी इस धरा में आने का उद्देश्य पूर्ण हो चुका था।विदा तो दोनों को ही लेनी थी ,लेकिन इस वर्तमान में अब जो घटने जा रहा था उसके लिए शायद कृष्ण तो क्या स्वयं नारायण भी एक बार तो विचलित हो जाने वाले थे !
      नहीं ,मुझे सत्य को स्वीकार ही करना होगा,कृष्ण ने सोचा,मोह से मुंह मोड़ा , और पुनः एक बार अपने चमत्कारिक अवतार का उद्देश्य रखते हुए , गहन ,विशाल ,आंखो में चेटनता लाते हुए पुनः राधा की ओर देखते हुए बोले " अच्छा ,राधा ,इस सत्य को में स्वीकार करता हूं  इस जीवन में तुम्हारे किए गए सहयोग से मै कभी  उर्रिन नहीं हो सकूंगा आज  मै तुम्हे रोकूंगा नहीं ।तुम्हारी कोई ऐसी इच्छा जो अभी तक अधूरी रह गई हो ,बोलो राधा ,ये कृष्ण का तुमसे वायदा है ,बोलो राधा , मै कृष्ण ,तुम्हारी प्रत्येक बात मानने के लिए आज बरसाना में उपस्थित हूं।" राधा ने क्षण भर के लिए पुनः गौर से कृष्ण को देखा ,अपने कृष्ण को " हां ,कृष्ण तुमसे विदा लेने से पहले मेरी एक अंतिम इच्छा और पूरी करो कृष्ण ,पूरी करो " ।" बोलो राधा " कृष्ण इतना ही कह पाए।
         " मै चाहती हूं कि इस विदाई कि बेला में तुम मुझे वो ही बांसुरी की धुन सुनाओ ,जिसे तुम कभी मेरे लिए जमुना के किनारे सुनाया करते थे।...... "लेकिन मेरे बरसाना छोड़ने से पहले ही तो तुमने मुझसे वो बांसुरी ले ली थी राधे,स्मरण है ,मैने भी उस पल कहा था कि लो ,राधा इस बांसुरी को लो, क्योंकि कृष्ण ये बांसुरी ,राधा के लिए ही तो बजाता था, सुनाता था।तब से लेकर आज तक मैने कभी बांसुरी को बजाना तो दूर ,बांसुरी देखी तक नहीं,तो अब बांसुरी की धुन कैसे ......"।अविलंब राधा ने अपने आंचल से कृष्ण की वहीं बांसुरी निकाल उनके बढ़े हुए हाथों में रख दी !
       निस्तब्ध कृष्ण ने बांसुरी अपने होठों से लगाली !
        जैसे ही बांसुरी की स्वरलहरी राधा के कानों तक पहुंची ,राधा ने दोनों हाथ जोड़ कर कृष्ण को अंतिम प्रणाम किया और उनकी ओर से मुख मोड़, सामने फैले ,बरसाने के घने जंगलों में प्रवेश करने को उद्दयत हो गई।कृष्ण की बांसुरी की हर धुन के साथ राधा के कदम वन क्षेत्र की ओर बढ़ते गए  ,बांसुरी की धुन तीव्र तर होती गई ,राधा के कदम भी बढ़ते गए।शीघ्र ही राधा सामने के वन में लुप्त हो गई और जैसे ही राधा लुप्त हुई ,आग का एक विशाल गोला उस वन से ऊपर विशाल असीम ,आकाश में समा गया।
         कृष्ण ,अवतारी कृष्ण ,भावहीन चेहरे से ये सब ताकते ,रुके ,बांसुरी अपने हाथों में ली , और , और सहजता से समीप बहती जमुना में उसे प्रवाहित कर दिया !
                                        ( क्रमशः शेष अगले भाग दो में )
       

बुधवार, 20 मई 2020

यात्रा.................उडुपी (कर्नाटक)

                                               यात्रा ..........  उडुपी ( कर्नाटक )



    अचानक ऐसे ही किसी साधारण दिन , मै टी वी देख रहा था तो अचानक एक चैनल पर भगवान श्री कृष्ण जी से संबंधित प्रोग्राम आने लगा।क्योंकि मुझे भगवान श्रीकृष्ण के जन्मस्थान " मथुरा" में रहने का सौभाग्य प्राप्त है तो मै प्रोग्राम को रुचि के साथ देखने लगा।कुछ क्षण पश्चात जब उसमे उडुपी शहर का जिक्र आया तो हैरान रह गया।उडुपी,इस शहर का जो कि सुदूर कर्नाटक राज्य में स्थित है ,वहां श्रीकृष्ण की आराधना,ये मेरे लिए एक दम नई सूचना थी।उस प्रोग्राम को देखने के बाद मेरा यह विचार कि मै श्रीकृष्ण से संबंधित समस्त कथाओं को पूरी तरह से जानता हूं, गलत सिद्ध हुआ।बस, फिर क्या था,मेरा घुमक्कड़ हृदय बेचैन हो उठा " उडुपी" जाकर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन एवम् उडुपी में उनके प्रगट होने के वर्णन को साक्षात महसूस करने के लिए।श्रीकृष्ण जी के जन्मस्थान मथुरा के निवासी होने के, सौभाग्य मिलने के कारण मेरा यह मानना है कि जहां जहां श्रीकृष्ण जी ,वहीं वहीं मै स्वयं तो ऐसी विचारधारा होने के कारण आप भी जब मेरे साथ ,मेरे शब्दों के द्वारा " उडुपी " की यात्रा पर चलेंगे ,तो निसंदेह आप भी कह उठेंगे " अरे ,भगवान श्री कृष्ण जी की इस कथा के बारे में तो हम भी कुछ नहीं जानते थे "! तो चलिए, कुछ समय निकालिए और मेरे साथ चलिए उडुपी शहर की यात्रा पर।




         उडुपी जाने के लिए मेरे शहर मथुरा से केवल दो ही ट्रेन जाती हैं,मगर उनमें अगले पांच माह तक कोई सीट खाली नहीं थी, और चूंकि उडुपी तक की यात्रा में लगभग 42 घंटे लगने वाले थे तो बगैर रिजर्वेशन के तो संभव ही नहीं था जाना।परन्तु पांच माह तक मै उडुपी जा कर ,भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन एवम् उनकी कथा को साक्षात देखने के लिए रुक भी नही सकता था तो दिमाग पची करके मार्ग खोज ही लिया।मथुरा से सीधे मुंबई , और मुंबई से सीधे उडुपी शहर,हालांकि इस यात्रा में भी समय कुछ अधिक लगने वाला था क्योंकि सीधी ट्रेन के बजाय ,दो दो ट्रेन से यात्रा करनी पड़ रही थी,परन्तु संतोष की बात यह थी कि यात्रा के लिए केवल सात दिन का ही इंतजार करना था।उसके पश्चात उडुपी तक दोनों ट्रेन में सीट मिल गई थी।
      ट्रेन सही समय पर प्रातः 8 बजे मुंबई पहुंच गई और उसी दिन प्रातः 11 बजे उडुपी के लिए दूसरी ट्रेन भी पकड़ ली।अब उडुपी जाने की मेरी इच्छा पूरी ही होने वाली थी,केवल कुछ ही घंटो कि यात्रा की ही बात थी ! ये और बात है कि ये यात्रा भी लगभग 17 घंटों की थी।



   आपको एक बात और बताना चाहूंगा कि उडुपी ना केवल अपने कृष्ण मठ के लिए प्रसिद्ध है अपितु माना जाता है कि दक्षिण भारत में ही इडली ,डोसा उत्तपम आदि का निर्माण भी इसी उडुपी शहर में हुआ था।इसलिए आज भी कुछ सर्वोत्तम उपरोक्त व्यंजनों के लिए रेस्टोरेंट, उडुपी नाम से ही पहचाने जाते हैं। 



आखिरकार ट्रेन जब उडुपी पहुंची तो रात्रि के 3 बजे थे।स्टेशन पर जब मै और मेरे साथी उतरे तो हैरानी की सीमा नहीं रही।स्टेशन पर केवल और केवल हम ही उतरे ,यहां तक कि पूरे स्टेशन पर इस ट्रेन में सवार होने वाला भी एक ही यात्री था।कुछ ही समय में ट्रेन आगे रवाना हो गई ।पूरा प्लेटफार्म तो क्या पूरे स्टेशन पर हमारे सिवाय अन्य कोई एक भी यात्री,कर्मचारी नहीं था।स्टेशन काफी बड़ा था ,मगर शायद रात्रि के इस अंतिम पहर में किसी को भी यात्रा करने की आवश्यकता नहीं थी।
   सुनसान मगर रोशनियों से जगमगाते स्टेशन पर बाहर की तरफ आते हुए , हमे कमरे में बैठे रेलवे के कुछ कर्मचारी ही दिखे ,मगर कोई यात्री नहीं था।स्टेशन के बाहर आए तो बाहर एक दम अंधेरा,वीरानी,ना कोई टैक्सी अथवा कोई भी परिवहन का साधन नहीं।यहां तक कि स्टेशन जितना रोशनी से दमक रहा था,बाहर उतना ही अंधेरा ।हम ठहरे परदेसी,किधर जाना है , किससे जाना है कोई बताने वाला नहीं,क्योंकि हमें उस घुप अंधेरे में दिशा का कोई ज्ञान नहीं हो रहा था।आखिर कार निर्णय किया कि सुबह होने तक स्टेशन पर ही रुका जाए।वापस प्लेटफार्म पर आकर वेटिंग रूम देखा तो ताला बंद।स्टेशन मास्टर के पास जाकर उनसे मदद मांगी तो वहीं भाषा कि समस्या ! इशारों और टूटी फूटी अंग्रेजी हिन्दी में उन्होंने टी टी आई के आफिस में जाने का संकेत किया ,मगर अफसोस,वो आफिस भी ताला बंद।कोई अन्य उपाय नहीं देख,झख मारकर प्लेटफार्म पर लगी बैंचों पर ही समय बिताने को मजबूर हुए।अब आप समझ ही सकते हैं कि घंटों लंबी यात्रा की थकान,रात्रि का जागरण से हमारा क्या हाल हुआ होगा।
     आखिर कार सुबह के 7 बजे ,तब कंही जा कर यात्रियों की चहल पहल होने लगी।बाहर आए तब समझ आया कि स्टेशन के बाहर तो कोई बस्ती या होटल था ही नहीं ,था तो केवल हरे भरे पेड़ों से घिरा परिसर।आखिरकार समझ में आ गया कि स्टेशन से शहर काफी दूर है ।इस लिए मंदिर जाने के लिए कोई वाहन आदि लेना ही पड़ेगा मगर फिर वही परेशानी ,



  एक आध ओटो यात्रियों को ले कर आ तो रहे थे ,मगर मंदिर जाना है,के नाम पर सब का स्पष्ट इनकार ! मजबूरी,बेबसी का आलम था,क्या करते ,मंदिर तो छोड़ो ,शहर का ही कोई अता पता नहीं था।लगभग एक घंटे के बाद ,काफी चिरोरियों के बाद एक आटो वाला राजी हो गया और  चल पड़े मंदिर कि ओर ,क्योंकि अन्य कोई जगह हमे पता ही नहीं थी। हां , आप समझ ही गए होंगे कि किराए में हम कोई मोल भाव करने कि स्थिति में नहीं ही थे।



      पंद्रह मिनट की आटो की यात्रा के बाद जैसे अचानक हम किसी महानगर में आ पहुंचे।लोकल बसें,टैक्सी ,बड़े बड़े विज्ञापनों के पोस्टर ,मार्किट आदि देख कर पुनः हैरान , कि इतने बड़े शहर के होते हुए स्टेशन पर आने जाने का कोई साधन नहीं !फिर
 कुछ ही समय के बाद अचानक जैसे हमारी सारी यात्रा की थकान गायब हो गई।हम अपनी चिर प्रतीक्षित मंजिल नहीं नहीं,भगवान श्री कृष्ण के मंदिर उडुपी मंदिर के सम्मुख हाथ जोड़े खड़े थे !!
       ऑटो से उतरे दो देखा ,शहर के एक दम मध्य ,एक बड़ा विशाल लेकिन पक्के फर्श वाला मैदान जिसके एक ओर उडुपी नगर पालिका का भवन,शेष तीनों ओर दुकानें आदि , और सामने एक बड़ा सा,भव्य लाल पत्थरों से निर्मित दरवाजा जिसके ठीक बीच में लिखा था " उडुपी श्रीकृष्ण मठ "। उतरकर सर्वप्रथम दरवाजे के नीचे की धुली उठा कर अपने मस्तिष्क पर लगाई।क्यों ना लगाते,आखिर कार मेरे ब्रज के श्रीकृष्ण के प्रभाव का इतने सुदूर तक जो असर था।




      अंदर प्रवेश करते ही लगा ही नहीं कि हम किसी बड़े शहर एक दम बीच में खड़े हैं।एक दम शांति ,बड़े बड़े भवन ,चारों ओर हरियाली का आवरण,बड़े बड़े वृक्ष जैसे हमे सम्मोहित करने लगे। और आगे बढ़े तो थोड़ी ही दूर पर एक विशाल फैलाव लिए बड़ का वृक्ष जैसे  प्रत्येक आनेवाले भक्तों को ,श्रीकृष्ण के समान अपनी छाया रूपी शराब में ले रहा प्रतीत हो रहा था।कानों में माध्यम स्वर में गूंजते भजन जैसे हमे एक अलौकिक दुनिया में ले जतहे थे।भाषा अवश्य अनजानी थी ,परन्तु भाव स्पष्ट थे।हम श्रीकृष्ण के दक्षिण के कुछ गिने चुने बड़े देवायलों में से एक के समक्ष खड़े थे।तभी एक भक्त ने हमे ठिठकते देख कुछ कहा परन्तु अनजानी भाषा से हमारी विवशता देख उसने इशारे से एक कमरे की ओर संकेत किया ।ओह,अपने जूते यहां ही उतारने थे।पुनः उसने संकेत की भाषा में एक ओर इशारा किया ,स्पष्ट था कि हमारी तरह सैकडों भक्त सुबह सुबह अपने अभीष्ट के दर्शनों के लिए शांत चित्त से पंक्ति में खड़े थे।प्रत्येक के हाथ में फूलों का ढेर था,लेकिन हम चुपचाप अपने अभीष्ट के लिए अपने श्रद्धा के भावों को अपने दोनो हाथों के मध्य रख ,हाथ जोड़े ही खड़े हो गए।



      पंक्ति धीरे धीरे आगे बढ़ रही थी।जैसे कि हरेक धार्मिक स्थान का दृश्य होता है ,एक तरफ तो पूजा सामग्रियों की दुकानें ,दूसरी ओर एक बड़ी सी दीवार ,सिर के ऊपर तीन कि छत,शायद सूर्य की किरणों एवम् वर्षा से बचाव हेतु लगाई गई थी।हमारी उत्सुक आंखे दीवार के ऊपर ,झांक रही थी।एक बड़ा सा तालाब ,उसके ठीक बीच में दक्षिण भारतीय शैली में बना मंदिर का शिखर ही दिखाई दे रहा था ।पंक्ति के एक किनारे पर अनजानी भाषा में कुछ निर्देश लिखे थे ,जो कि हमारे लिए भेंस बराबर ही थे 



       लगभग एक घंटे के पश्चात हम मंदिर के मुख्य दरवाजे के सामने आ पहुंचे।तभी मंदिर के सुरक्षा कर्मचारी ने हमसे कुछ कहा ,जो हमारी समझ से बाहर था ,तब एक अन्य पुलिस के दरोगा आए और अंग्रेजी भाषा में कहा कि आप मंदिर के अंदर केवल और केवल लूंगी या पेंट पहन कर ही जा सकते है।कमीज़ ,बनियान आपको उतारनी पड़ेगी।हमे असमंजस में देख पुनः उसने कहा कि आप सामने की किसी भी दुकान पर अपने वस्त्र जमा कर सकते हो।हमने अंग्रेजी में ही पूछा कि तब क्या फिर से लाइन में लगना पड़ेगा तो उसने पूछा कि आप कहां से आए हो? " मथुरा " इन शब्दों का तो जैसे जादू का सा असर हुआ।उसने पहले हमारे लिए हाथ जोड़े ,फिर हाथ मिलाया।स्पष्ट था कि वह अपने मनोभावों को इस रूप में ,कृतज्ञता के रूप में प्रगट कर रहा था।कोई बात नहीं ,आप कमीज़ उतार कर सीधे इधर ही आएं।



    जब हम केवल पेंट पहनकर उसके पास पहुंचे तो उसने एक व्यक्ति को अपने पास बुलाया ,उस से कुछ बात की,फिर हम से कहा कि ये आपको अच्छी तरह से मंदिर के दर्शन करा देगा ,साथ ही गाइड के रूप में हमारा ज्ञान वर्धन भी करेगा।उसे धन्यवाद देते हुए हम मंदिर के आंतरिक दरवाजे के सामने खड़े हो गए।



     यह दरवाजा एक विशाल बरामदे जैसे के ठीक बीच में था।दरवाजा इतना छोटा कि केवल दो व्यक्ति ही एक साथ उसमे आ सकते थे,इस लिए पंक्ति में खड़े एक एक दर्शनार्थी अंदर जाता था ,तो मंदिर से एक एक कर के ही दर्शनार्थी बाहर आता था।



     इस विशाल बरामदे में पूरी दिवालों पर दक्षिण भारतीय चित्रशैली में भगवान श्रीकृष्ण से संबंधित कथाओं का चित्रण किया गया था ,परन्तु एक चित्र का भाव हमे समझ नहीं आ रहा था।जब हमने साथ खड़े गाइड से इशारा करके उसके बारे में पूछना चाहा तो उसने कहा कि पहले आप दर्शन करने के लिए अंदर चले ,अंदर चल कर आपको सब बताऊंगा।निसंदेह ये सारा वार्तालाप अंग्रेजी भाषा में ही हो रहा था। हां,एक बात और आपको बता देना चाहूंगा कि मंदिर के बरामदे के ठीक मध्य में दो विशालकाय पुतले जिनके हाथो में चमचमाती तलवारे थी,हमारी उत्सुकता और बढ़ा रही थी,मगर गाइड के कारण चुप थे।



      अब जैसे ही इस छोटे से दरवाजे से अंदर प्रवेश किया तो एक सौ मीटर के करीब लंबा गलियारा था ,जिसके एक ओर सर्व प्रथम मंदिर के मुख्य पुजारी का सजा धजा कक्ष था तो दूसरी ओर ,विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियां बनाई हुई थी।कुछ पेंटिंग से बने चित्र भी बने थे।
    जैसे ही इस गलियारे को हमने पर किया ,तो सामने था एक पचास फुट का ऊंचा शिखर वाला मंडप ,जिसके नीचे के हिस्से हमारे पहाड़ी घरों में ,छत पर लगने वाले ताइलों से बने थे।मंदिर अथवा मंडप के चारों ओर ,एक शायद चार फुट चौड़ा परिक्रमा मार्ग था।इसके दूसरे किनारे पर छोटे ,बड़े कमरे,बरामदे बने हुए थे ,जिनमें तमाम सारे साधु संत,भक्त पुरुष एवम् महिलाएं अपने हाथों में कोई पुस्तकें लिए उच्च स्वर में लेकिन अनजानी भाषा में पाठ पढ़ रहे थे। इन स्वरों के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार का कोई शोर आदि नहीं था।सारे के सारे जैसे एक विशिष्ट दक्षिण भारतीय शैली में पठन पाठ कर रहे थे।भाषा जरूर अनजानी थी मगर  उनके भाव सीधे हमारे हृदय तक पहुंच रहे थे।पहली बार समझ में आया कि भक्ति की कोई भाषा नहीं होती,होती है तो केवल और केवल श्रद्धा !




         हम हाथ जोड़े भगवान श्रीकृष्ण जी के दर्शनों के लिए हर पल ,बेचैन हो रहे थे किन्तु मंदिर के अंदर स्थित भगवान के दर्शन ही नहीं रहे थे।हमने मंदिर की पूरी परिक्रमा कर ली ,जिसमें कोई दस मिनट का ही समय लगा ,परन्तु श्रीकृष्ण जी की मूर्ति तो दिखाई हो नहीं दी,साथ ही और अधिक हैरान परेशान हो गए की इस मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश करने के लिए कोई मार्ग अथवा दरवाजा तो है ही नहीं,अगर एक छोटा सा दरवाजा था तो वो केवल पुजारियों के लिए ,श्रीकृष्ण जी की पूजा अर्चना के लिए ही था,उनके अतिरिक्त कोई और मंदिर के अंदर प्रवेश नहीं कर सकता था, और ना ही कर रहा था।हमे असमंजस में देख हमारे गाइड ने हमे मंदिर की एक दीवार ,जिस के बाहर काले पत्थर की श्रीकृष्ण जी की मूर्ति स्थापित थी की ओर संकेत किया।पहली नजर में तो हम कुछ समझे ही नहीं,अगर इन मूर्ति के ही दर्शन करने थे तो फिर गर्भ ग्रह किस लिए? हमने फिर इस मूर्ति को देखा ,जिस पर सारे दर्शनार्थी फूलों कि माला,नारियल ,सोने चांदी के आभूषण ,प्रसाद आदि चढ़ा रहे थे, और फिर इस मूर्ति के एक दम बगल में  जो दीवार थी ,उस पूरी की पूरी दीवार में  एक फुट के वर्गाकार आले अथवा रोशन दान बने हुए थे।तब हमने गौर किया कि प्रत्येक दर्शनार्थी ,उन झरोखों में पूरा मुख लगा कर ,मंदिर के अंदर गर्भ ग्रह में झांक रहे है ,हाथ जोड़ कर प्रार्थना कर रहे है,आनंद के एक अवर्णनीय सुख में गोता लगा रहे हैं।कुछ क्षण बाद दूसरा दर्शनार्थी पहले दर्शनार्थी का स्थान ले लेता ,इस प्रकार तमाम सारे दर्शनार्थी अंदर किसी के दर्शन कर रहे थे।बाहर की मूर्ति पर तो वे केवल अपनी भेंट आदि ही चढ़ा रहे थे।



     हमारा भी अब नंबर आया कि हम उन झरोखों में से अंदर झांके , और फिर .....उन झरोखों से हमे जिनके दर्शन हुए ,उन्हीं के लिए तो हम सुदूर ,अपरिचित स्थान पर बड़ी लंबी यात्रा कर के आए थे। वाह ,उन झरोखों से जिनके दर्शन हुए वे ही तो " श्रीकृष्ण जी" थे।
   दक्षिण भारत के जितने भी देवालय हैं उन सब में जिनकी भी मूर्ति स्थापित है ,वे सभी की सभी ,काले रंग के कठोर पत्थर द्वारा है निर्मित हैं,जबकि उत्तर भारत के देवालयों में अधिकतर सफेद पत्त्थरो से ही निर्मित है।ऐसा क्यों है ,इसका कारण तो हमे यही समझ आया कि शायद दक्षिण में सफेद संगमरमर होता ही नहीं है और होता भी ही तो बहुत थोड़ी मात्रा में ,जबकि वहां,काले रंग की चट्टानों की अधिकता होने के कारण शायद मंदिर में स्थापित मूर्ति चाहे वो किसी की हो ,काले पत्थर से ही बनी हुई है।लेकिन इस समय तो हम सब कुछ भूल कर ,झरोखों में अपने पूरे मुख को सिर सहित अंदर घुसा कर पूरी श्रद्धा के साथ अपने इष्ट के दर्शन कर
 रहे थे।
         अभी हम दर्शन कर ही रहे थे कि साथ खड़े पुजारी ने जोर से ,अनजानी भाषा में हमारे लिए कुछ कहा ,भाषा अनजानी थी ,परन्तु संकेत स्पष्ट था,अरे भाई दर्शन कर लिए ,अब दूसरे को भी दर्शन करने दो।हम झरोखों से,श्रीकृष्ण के दर्शन करके ,पुनः अपनी वर्तमान दुनिया में आ गए।इस मंदिर की दीवार के सामने एक बड़ा सा हाल था जिसमें और भी दर्शनार्थी बैठे थे ,तो हम भी उनके पास जाकर बैठ गए।आंखे फिर एक बार बंद की , और उस क्षण को ,जो अब हमारी स्मृति में शायद हमेशा के लिए स्थापित हो गया था,याद करने लगे।
     झरोखे के अंदर भगवान श्रीकृष्ण की बाल रूप में ,काले पत्थर की एक माध्यम आकर की ,श्रंगारित मूर्ति भव्य रूप में ,प्रत्येक दर्शनार्थी को ,अलौकिक दुनिया में ले जा रही थी।मूर्ति के चेहरे पर जो भाव था ,उस से मुझे तो स्पष्ट प्रतीत ही रहा था कि जैसे हम इन झरोखों में से श्रीकृष्ण जी के दर्शन कर रहे थे ,वैसे ही अंदर स्थापित श्रीकृष्ण जी की मूर्ति भी इन झरोखों के बाहर हमारी ही तरह  कुछ देख रही थी।क्या ये मूर्ति हमे देख रही प्रतीत हो रही थी क्या ?इसका उत्तर में आपको अगली कुछ पंक्तियों  के माध्यम से बताऊंगा कि ऐसा क्यों प्रतीत ही रहा था।अभी तो हम सब इस समय इस अलौकिक ,अद्भुत मंदिर के आस पास के दृश्यों को ही देख रहे थे।
   मंदिर और उसका पूरा प्रांगण ,परिक्रमा मार्ग ,आदि सब कुछ एक विशाल पक्की छत के द्वारा ढका हुआ था।दर्शनार्थी ,जिसमें से अधिकांश दक्षी के ही थे ,अपनी पूरी श्रद्धा से ,झरोखों से विग्रह के दर्शन करते ,फिर जैसे में सामने बैठा हूं ,ऐसे कुछ देर  बैठते,कोई कोई किसी पुस्तक से तो कोई मन ही मन इष्ट की प्रार्थना करता ,फिर आगे बढ़ जाता।हमे भी गाइड ने आगे बढ़ने का संकेत किया ,तो पुनः एक बार हम ,श्रीकृष्ण जी के विग्रह का ध्यान करते आगे बढ़ गए।
    थोड़ा आगे बढ़ते ही मंदिर के एक कोने से मार्ग एक बहुत ही विशाल प्रांगण में जा पहुंचा।फिर हैरानी हुई।मंदिर एक माध्यम आकर का था ,परन्तु ये प्रांगण तो बहुत ही विशाल था।इसके एक कोने पर मंदिर की विशाल लकड़ी से बनी प्रतिमूर्ति बनी हुई थी ,दूसरी ओर सहायता बूथ ,साथ ही एक दो धार्मिक पुस्तकों की दुकान थी ,वहीं बाकी प्रांगण में थोड़ी थोड़ी दूरी पर ,तमाम पांडे पुजारी ,अपने यजमानों के लिए पूजा पाठ,यज्ञ आदि अनेकों धार्मिक क्रियाओं में व्यस्त थे।इस प्रांगण की दीवारें भी प्राचीन धार्मिक कथा चित्रों से रंगी हुई थी।यहां भी हमारा ध्यान एक ऐसे चित्र पर गया जिसमें एक पुरुष हाथ जोड़े ,आंखे बंद किए खड़ा है , और उसके समक्ष भगवन श्रीकृष्ण जी , अपने पूरे बेभव के साथ विशाल रूप में दर्शन दे रहे हैं,परन्तु भक्त और भगवान के मध्य कुछ झरोखे से बने हुए थे , बिल्कुल वैसे ही जिनमें से अभी अभी हमने मंदिर के गर्भ गृह की मूर्ति के दर्शन किए थे।
    जाने उस चित्र में क्या भाव मुझे आकर्षित कर रहा था कि मैने गाइड से पूछ ही लिया कि ये चित्र किसका है ,एवम् इसके पीछे क्या कोई कथा है तो गाइड ने कहा कि अब आप यहां थोड़ी देर बैठिए , मै अब आपको इस मंदिर के इतिहास एवम् इस चित्र के पीछे की घटना को बताता हूं।सुनकर हैं उस प्रांगण में तसल्ली से बैठ गए।जिन भगवान श्रीकृष्ण जी के दर्शनों के लिए मै " उडुपी " आया था ,वो इच्छा तो उनकी ही कृपा से पूरी हो गई थी इसलिए अब इं बातों के प्रति मेरी उत्सुकता जग उठी थी।तभी गाइड की आती आवाज जैसे हमारे दिल मस्तिष्क पर गहराई से अपना प्रभाव छोड़ रही थी ,सुनिए ..... ।
      इतिहास के अनुसार तेरहवीं सदी में दक्षिण के ही एक प्रमुख संत श्री " माध्वाचार्य " जी महाराज ,श्रीकृष्ण जी की कथाओं को सुनकर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने स्वयं उस प्राचीन समय में ,जबकि याता यात के साधन नहीं के बराबर थे , अपना सब कुछ छोड़ कर वृंदावन श्रीकृष्ण के दर्शनों को आए।वृंदावन क कुंजगलियो में वे इतना राम गए कि उनका वापसी का विचार ही समाप्त हो गया।जब वृंदावन में बहुत समय बित गया तब उनकी माताजी के द्वारा भेजा गया एक संदेश माध्वाचार्य जी को वापस अपने पास बुलवाने वाला ,उनके गुरु जी के पास जा पहुंचा।गुरुजी ने जब इस संबंध में माध्वाचार्य से बात की तो उनके यह कहने पर कि वे भगवान श्रीकृष्ण को छोड़ने के स्थान पर मरना पसंद करेंगे तो उनके गुरुजी ने कहा कि जब तक मनुष्य की मां जीवित है तो वे भगवान से भी अधिक पूजित मानी जाती हैं इसलिए तुम्हे हर हालत में उडुपी वापस जाना ही होगा,ये उनकी आज्ञा है।माध्वाचार्य जी की कृष्णभक्ती को देख उन्होंने ये भी कहा कि तुम वहीं श्रीकृष्ण जी का एक मठ बनालो,ताकि माताजी के साथ साथ भगवान श्रीकृष्ण जी की भी सेवा अर्चना का अवसर वहीं तुम्हे मिल सके।इस प्रकार श्री माध्वाचार्य जी ने कृष्ण मठ की स्थापना की।उनके अनुसार दो वर्ष में एक बार इस मंदिर की सेवा अर्चना एवम् कार्यों के लिए नई समिति बनानी होगी।साथ ही उन्होंने कहा कि इस मठ में को भी दर्शनार्थी आएंगे उनके भोजन आदि की व्यवस्था भी मठ के साधु संत ही करेंगे।तब से आज तक इस कृष्णमठ की सम्पूर्ण सेवा एवम् भोजन की व्यवस्था मंदिर के पुजारी पूरी श्रद्धा सेवा के साथ करते है।सम्पूर्ण भारत में मनाए जाने वाले त्योहारों के साथ साथ उडुपी में भी इस कृष्णमथ के द्वारा एक, दो वार्षिक उत्सव मनाया जाय है जिसे पर्याय त्योहार भी कहते है।दो वर्षों में एक बार होने वाले इस त्योहार के लिए पूरे उडुपी शहर को मठ कि ही तरह सजाया जाता है ।इस उत्सव को मानने हेतु लगभग पूरा दक्षिण भारत जैसे उडुपी में ही आ जाता है।ये उत्सव तीन दिन तक मनाया जाता है।
     तभी गाइड ने दीवाल पर बने एक चित्र की ओर संकेत करते हुए कहा कि इस मठ के साथ भक्त और भगवन के संबंध की एक लोकप्रिय कहानी भी कहीं जाती है जो पूरी तरह से वास्तविक है।बात लगभग पांच सौ वर्ष पुरानी है ,जब की पूरे भारत में जाती , पांती,छुआ छूत का दौर था।उस समय एक चमार जो कि मंदिर के बाहर ही यात्रियों के जूते चप्पल कि मरम्मत किया करता था ,बदले में इतना ही मांगता था कि उसकी देनिक भोजन की आवश्यकता पूरी हो जाए ,उसके बाद वो मंदिर के बाहर ही से भगवान श्रीकृष्ण की पूजा किया करता था ।वह अच्छी प्रकार से जानता था कि अछूत होने के कारण उसे मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाएगा,इसलिए कार्य समाप्ति के बाद वो व्यक्ति जिसका नाम " कनक दास " था ,पूरे समय भगवान श्रीकृष्ण का ही ध्यान करता रहता था ।जब उसे लगा कि उसका अंत समय अब आने वाला है तो प्राय वो भगवन से प्रतिदिन एक ही प्रार्थना करता था कि मृत्यु से पहले उसे ,किसी भी प्रकार से भगवान श्री कृष्ण जी के विग्रह के दर्शन हो जाएं।उस समय उसने मठ के सभी पुजारियों से दूर से ही सही ,श्रीकृष्ण जी के विग्रह के दर्शनों के लिए अनुरोध किया ,परन्तु छोटी जात के होने के करें उसका अनुरोध ठुकरा दिया जाता रहा।समय बिताते बीतते ,समय के साथ साथ उसकी कृष्ण भक्ति इतनी जोर पकड़ती गई कि भगवान श्रीकृष्ण भी उसकी इच्छा पूरी करने को मजबूर हो गए।कहा जाता नहीं है अपितु ये अकाट्य सत्य है कि ऐसे ही एक दिन ,रोज की तरह भक्त कनक दास मंदिर के बाहर तन्मयता के साथ भगवान श्रीकृष्ण के विग्रह के दर्शनों के लिए प्रार्थना कर रहा था तो श्रीकृष्ण जी ने उसकी भक्ति की पुकार सुनते हुए,चूंकि वे जानते थे कि मठ के पुजारी कनकदास को मंदिर के अंदर नहीं आने देंगे,
अचानक भगवान श्रीकृष्ण जी के विग्रह के सामने की दीवार में अचानक एक बड़ा विस्फोट सा हुआ और जहां भक्त कनकदास खड़ा था ,ठीक उसके सामने विग्रह के एक दम सामने की दीवार में एक फुट के बराबर मोखला ,खिड़की या छेद बन गया जिसमें से देख कर भक्त कनकदास जी की भगवान श्रीकृष्ण जी के एक बार दर्शन करने की इच्छा पूरी हो गई।दर्शन करते करते कनकदास जी ने अपने प्राण त्याग दिए ,लेकिन श्रीकृष्ण जी के भक्त के रूप में उनकी ख्याति अमर हो गई।तभी आज भी प्रत्येक दर्शनार्थी विग्रह के सामने बने मोखले से ही भगवान श्रीकृष्ण जी के दर्शन करते हैं एवम् अपने को धन्य मानते है ।




    इस मंत्र मुग्ध वार्तालाप में जैसे समय का हमे कोई भान ही नहीं रहा।हैं तो जैसे उस मठ के पवित्र वातावरण में जैसे अपने अस्तित्व को ही भूल बैठे थे , कि तभी गाइड ने कहा कि मठ के भोजन का समय हो गया है ,क्या आप लोग मठ के भोजन को प्रसाद रूप में ग्रहण करना चाहेंगे।इनकार का तो प्रश्न ही नहीं था।इस लिए गाइड के साथ ही दोपहर के भोजन प्रसाद को ग्रहण करने हेतु मंदिर के ठीक ऊपर मैने विशाल भोजनालय की ओर बढ़ चले।




       सीढ़ियों के द्वारा जैसे ही ऊपर पहुंचे,एक विशाल गेलरी आई,जिसके एक तरफ सैकडों नल की टोंटिया ,हाथ धोने और पानी पीने के लिए लगी हुई थी।उनसे हाथ धोते हैं आगे बढ़े तो एक विशाल हाल मिला जिसमें फर्श के केवल से दो इंच की मोटाई के ,भोजन कर्ताओं के लिए स्थान बना था।उसके सामने ही यानी,दो इंच छोटी ,या नीची सतह थी जिस पर भक्त भोजन हेतु बर्तन रखते थे।अभी हम पंक्ति में बैठे ही थे कि कुछ साधु आगाए।एक हमे क्रम से स्टील कि थाली देता गया।उसके पीछे एक पहिए लगे बड़ा सा बर्तन था ,जो प्रत्येक दर्शनार्थी के सामने रुकता,,फिर उसने से एक अन्य बर्तन के द्वारा पके हुए चावल हमारी थाली में परोस दिए गए।उसके आगे बढ़ते ही दूसरा पहिए लगा बर्तन आ गया जिसमें सांभर जैसी दाल ,सीधे थाली में परोसे गए चावलों के ऊपर डाल दी गई।तुरंत ही भोजन करना प्रारंभ कर दिया गया।


सुबह से निराहार होने के कारण ,भोजन अति स्वादिष्ट प्रतीत हो रहा था।अब ये प्रसाद का स्वाद था या ,भूख का कि हम उत्तर भारतीय होने के कारण ,जिनका मुख्य भोजन गेंहू से बनी रोटियां होती हैं,को विस्मृत कर उस चावल सांभर के स्वाद में ही डूब कर रह गए।सच कहता हूं ,जब प्रसाद एवम् भूख का संबंध बनता है तो स्वाद का असर एक दम बे असर हो जाता है।अभी थाली का भोजन समाप्त ही हुआ था कि वे साधु और चावल सांभर लेकर आगये।परन्तु हमारा तो इतने ही से पेट भर गया था जबकि हमारे आस पास बैठे प्रत्येक श्रद्धालु दोबारा थाल भर भर कर भोजन कर रहे थे।अब चूंकि चावल उनका मुख्य भोजन है इस लिए शायद वे इतना ही खाते होंगे।प्रसाद पूरा खाने के बाद हम उठने के लिए इधर उधर देख ही रहे थे कि फिर से कुछ साधु एक और बड़े से बर्तन ले कर आ गए।वे एक बड़े से कटोरे के द्वारा एक सफेद पेय पदार्थ प्रत्येक दर्शनार्थी की थाली में भरते का रहे थे।हमने सोचा ,अरे ये तो रायता है ,बस फिर क्या था ,हमने भी अपनी थाली उस से भरवाली।अब जैसे ही अन्य भोजन करनेवालों को देख कर ,थाली सीधे मुंह से लगा ली क्यों कि चम्मच आदि का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता था।
      यह क्या ! ये पेय पदार्थ जाने क्या था ,रायता तो बिल्कुल भी नहीं था। हां ,स्वाद ,नमकीन था ,जीरे का छोंक भी लगा था पर दूसरे जहां इस पेय को स्वाद के लेकर पी रहे थे ,वहीं हम ,अब के लिया है तो पीना ही पड़ेगा के विचार से पीने लगे।सच कहूं ,हमे तो उसमे कोई स्वाद ही नहीं आ रहा था।परन्तु प्रसाद के नाम पर पी ही लिया।इसके बाद जब हम उठे और हाथ मुंह धोने के लिए नल के पास पहुंचे तो गाइड से पूछ ही लिया कि भाई ये किस किस्म का रायता था तो वह हंसने लगा।" सर जी ,वो कोई रायता नहीं था वो तो चावल का मांड था ,जिसे छोंक लगा कर भोजन के अन्त में पूरे दक्षिण भारत में पिया जाता है।ये अत्यंत स्वादिष्ट एवम् पोष्टिक होता है ,जिसे हम सब खूब पसंद करते हैं " ।अब सच कहें,हमे समझ ही नहीं आ रहा था कि उसे केसे बताएं कि उसे जो स्वाद आ रहा था ,उसे पीकर हम पर जो गुज़रा है उसका वर्णन केसे करें ।हमने अब चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी , और दर्शन कर,खा पीकर मंदिर से बाहर आ गए।
      वैसे तो उडुपी मठ की ,भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन की यात्रा चाहें तो यहीं समाप्त की का सकती है ,परन्तु आपका थोड़ा सा समय और ले कर ,आपको उडुपी शहर की एक अन्य यात्रा पर के जाना चाहूंगा ,जिसमें घूम कर आपको भी मंदिर के दर्शनों के समान ही आनंद आएगा।
     उडुपी शहर समुद्र के एक दम किनारे पर बसा हुआ है।अभी तो दोपहर का ही समय हुआ था ,वापसी की हमारी ट्रेन रात्रि को ही थी,इस लिए अब ऐसा तो हो नहीं सकता था कि हम समुद्र किनारे के शहर में आए हों, और फिर समुद्र किनारे के बीच पर नहीं जाए। बस ओटो पकड़ा और बिसेक मिनट में जा पहुंचे उडुपी के समुद्र के किनारे !
     विशाल दूर दूर तक फैला अरब सागर ,किनारे पर सुनहरी रेत का फैलाव ,इस रेत के बाद घने नारियलों के वृक्षों के जंगल ,जी हां दक्षिण भारत में समुद्र के किनारे इतने नारियल के वृक्ष उगते है कि हम तो उन्हें जंगल ही कहेंगे।ये नारियल के वृक्ष यहां हर तरफ उगे हुए है।जिधर भी जगह मिले ,दक्षिण की आबोहवा ऐसी कि तुरंत नारियल का वृक्ष वहां उग आता है।ऐसे खूबसूरत दृश्यों के मध्य समुद्र का यह किनारा एक अलग ही मनोहारी दृश्य पैदा कार रहा था।साथ ही मेरे जैसे अनेकों यात्री शायद इस मनोहारी दृश्य का आनंद लेने ही उडुपी के इस समुद्री तट पर आ पहुंचे थे !



    थोड़ी देर इस सुनहरे रेत से चमकते समुद्री किनारे पर घूमते ,दूर दूर गहरे नीले समुद्र में आते जाते जहाजों को देखते ,प्रकृति के इस अनुपम दृश्यों को देखते जाने कितना समय व्यतीत हो गया था कि अचानक देखा की एक बड़े से रंगबिरंगे पैराशूट से बंधे आदमी, खुले नीले समुद्र के ऊपर पक्षियों कि तरह उड़ रहे हैं।



अरे वाह ! ये क्या था , यही सब देखने हम इस तट के एक ओर पहुंच गए।देखा कि कुछ यात्री उड़ान संबंधी जानकारी ले रहे हैं।पूछने पर बताया गया कि उड़ान का किराया आठ सौ रुपए है,उड़ान तीन मिनट की है ,खतरे की आशंका ना के बराबर,लेकिन रोमांच असीमित है,सरकार द्वारा पूरी ट्रेनिग एवम् उपकरणों की मदद से विगत चार वर्षों से उड़ान करवा रहे है।बाद फिर क्या था उड़ने के लिए तैयार हो गए। जहां तक किराए कि बात तो मुझे स्मरण है की  यात्रा से वापसी पर सांझी छत स्थान से कटरा तक हेलीकॉप्टर की उड़ान एक मिनट ,बीस सेकंड की थी जिसका किराया उस समय आठ सौ था ,तो ये उड़ान तो तीन मिनट की है ,रही बात रोमांच की ,इस रोमांच के लिए ही तो हम ये सारी यात्राएं कर रहे है ,इनमें भी तो अत्यधिक रोमांच है।फिर क्या था ,ऐसे रोमांच के सुअवसर को कैसे छोड़ते,हम उड़ान के लिए तैयार थे।


     उड़ने से पूर्व ,हमे पैराशूट की सेफ्टी बेल्टों से जकड़ दिया गया, पैराशूट अत्यंत विशाल ,गोल एवम् रंगबिरंगे रूप में था।फिर हमे लाइफ जैकेट पहनदी गई ,वो इस लिए कि अधिकतर यात्रा समुद्र के ऊपर ही होगी तो अगर कभी नीचे गिरे तो पानी में डूबेंगे नहीं।फिर देखा कि एक मोटी रस्सी जो पैराशूट से बंधी थी उसका दूसरा हिस्सा समुद्र में खड़ी एक नाव से बंधा था,पूछने पर बताया गया कि उड़ने के लिए तेज हवा जरूरी होती है ,इस लिए नाव जब तेज चलेगी तो रस्सी की सहायता से उड़ने में तीव्रता आएगी ,साथ ही ये हमे उड़ते समय नियंत्रित क्षेत्र में बनाए रखेगी।फिर बताया की आपके साथ आपके पीछे एक सहायक भी उड़ेगा जो उड़ान को नियंत्रित करेगा।अब हम उड़ने के लिए तैयार थे।


      उड़ान के एक मिनट बाद हमारी सारी आकांक्षाएं सुरक्षित होने पर हम अब जिंदगी में पहली बार पैराशूट उड़ान का रोमांच ले रहे थे।पहली बार ही हम पक्षी के नजरिए से स्वतंत्र उड़ रहे थे और देख रहे थे नीचे धरती के अविस्मरणीय चित्रण।चूंकि नारियल के वृक्ष अक्सर समुद्र के किनारे बहुतायत में उगते हैं,जिनकी लंबाई भी अत्यंत विशाल होती है परन्तु इस समय तो वे केवल छोटे पॊधे की तरह ही प्रतीत हो रहे थे। एक ओर असीम समुद्र का विस्तार तो दूसरी ओर ऊपर विस्तृत नीला आसमान।वास्तव में हम उस समय एक ड्रोन विमान की तरह ही उड़ान कर रहे थे।


      जब हमने उडुपी शहर की ओर दृष्टि घुमाई तो नारियल के जंगलों में उसकी एक आध इमारतें ही चमक रही थी।तभी देखा की दूर एक विशाल मंडप और उस पर फहराती ध्वजा जो कि निस्संदेह उडुपी के कृष्ण मठ की ही थी,शाम के सूरज की किरणों में चमकती हुई एक अलग ही आभा पेश कर रही थी।उस समय हमारे हृदय में भी अध्यात्म ने जोर मारा क्योंकि इस समय हम ना धरती पर थे ,ना जल में थे और ना ही आकाश में ।लग रहा था कि यह उड़ान आत्मा की ही उड़ान थी।उस कृष्ण मठ के ऊपर के दर्शनों ने हमे यह सोचने को विवश कर दिया कि आज से पांच हजार वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण के कर्म के कारण आज भी उनका यशगान काल की सीमाओं को पीछे छोड़ ,उस फहराती ध्वजा की तरह लहरा रहा है।हमे भी श्रीकृष्ण के समान अपना पूरा जीवन कर्म ,अच्छे कर्म करने के लिए व्यतीत करना चाहिए ताकि हमारी पहचान समय कि बाधा को पीछे छोड़ भगवान श्रीकृष्ण की तरह हमेशा हमेशा के लिए अमर हो जाए !!
       

                                           जय श्री कृष्ण 
    

सोमवार, 18 मई 2020

कहानी ......... बंद  खिड़की

                                   कहानी
              बंद  खिड़की  
                                                                 


  " अरे, आज तू कालेज से जल्दी आ गई,तबीयत तो ठीक है ना तेरी" मां के ये प्यार के बोल को अनसुना करके
मै सीधे अपने कमरे में गई ,बेग को एक ओर पटका और सीधे पलंग पर आंखें बंद कर लेट गई।पीछे पीछे मां
आ पहुंची।" क्या बात है, तेरी तबियत तो ठीक है ना",कहते हुए मां ने मेरे माथे पर स्नेह से अपना हाथ फेरा . …,
लेकिन आज मैने उनके हाथ को झटकते हुए करवट ले ली। मां का स्पर्श मेरे लिए हर स्पर्श से अधिक प्रिय रहा है,
बचपन से लेकर आज तक जब भी कोई परेशानी , मानसिक अथवा शारीरिक होती थी तो मां का यह स्नेह स्पर्श मेरे
लिए एक ऐसी ओषधि का कार्य करता रहा था जिससे मै  सब कुछ विस्मृत करके ,पलकें मूंद लेती थी।ऐसा प्रतीत
होता था कि उस समय मै एक अबोध बच्ची की तरह उनके आंचल में समा जाती थी।परन्तु आज उनका यह चिर
परिचित स्पर्श भी मेरे धधकते मन को शीतलता प्रदान नहीं कर पा रहा था। मै भावशून्य हृदय से आंखें मूंदे चुप चाप
यूं ही लेटी रही। कुछ देर तक मेरे माथे को सहलाने के पश्चात् और पूरी तरह निश्चिंत होने के पश्चात कि ,मुझे ज्वर ताप
नहीं है, मां बोली," क्या बात है,आज तुमने अपना लंच भी नहीं खाया, कोई बात नहीं मैं अपनी गुड़िया के लिए अभी
हलुआ बना कर लाती हूं" । मां जानती है कि मुझे हलवा बहुत पसंद है, अतः स्नेह और ममता के कारण और शायद
कुछ मेरी अनमयास्कता के कारण वे हलवा  के लिए किचन की ओर चल दी।" नहीं नहीं, मै हलवा नहीं खाना चाहती,
मत बनाओ" परन्तु … चाह कर भी मै उन्हें हलवा बनने से रोक नहीं पाई । मां के जाते ही मैने करवट ली और तकिए
में अपना मुंह धसां सा लिया।"हलवा " शब्द सुनते ही जैसे मुझे एक एक कर के पिछले बीते दिन के घटनाक्रम पुनः
याद आने लगे।
       बचपन से लेकर आज तक मुझे कभी भी हलुआ रुचिकर नहीं लगा।घर के सारे सदस्य जहां हलवा को अत्यधिक
पसंद करते थे,वहीं मुझे हलवाअत्यधिक ना पसंद था।कभी तीज त्योहारों पर प्रसाद के नाम पर मां जिद कर के हलवा
खिलाती थी तो मै ओषधि की तरह कुछ निवाले लेकर मुंह फर लेती थी।
         मां आई और स्नेह से फिर एक बार माथे पर स्पर्श करते हुए बोली " देख आज मैने अपनी लाडली के के लिए
देशी घी का ,गरमागरम हलवा बनाया है, उठ ,चल तुझे अपने हाथ से खिलाती हूं" लेकिन मै बगैर आंखे खोले,कुछ
रुष्टता के भाव से
 बोल उठी" खालूंगी,आप टेबल पर रख दो ओर प्लीज़ ,मुझे कुछ देर सोने दो " ।पता नहीं मेरे स्वर में केसा रूखापन
उभर आया कि मां बगैर बोले कटोरी टेबल पर रख कर बाहर चली गई।वे मां है, और दुनिया की प्रत्येक मां और बेटी
के मध्य जन्म से ही एक ऐसी अदृष डोर होती है जिससे वे दोनों एक ऐसे अटूट बंधन में बंधी होती है कि एक दूसरे की भावनाओं को व्यक्त करने,समझने हेतु  किसी भी शब्दों की आवश्यकता नहीं होती! निसंदेह वे मेरी मनस्थिति को भांप कर, मुझे कुछ देर एकांत में रहने के लिए ही बाहर चली गई।सच कहूं,मुझे इस वक्त एकांत की इतनी अधिक आवश्यकता थी कि बस ….।तभी मुझे महसूस हुआ कि नजदीक रखे हलवा की सुगंध मेरे नथुनों में जबरन घुसती का रही है और इसी के साथ मेरे दिमाग में घुसती जारही थी विगत 10 दिनों का घटना क्रम।
      जैसे कि मैने बताया था कि मुझे हलवा कतई ना पसंद है , और ऐसे ही एक दिन मां ने कालेज जाते हुए जब लंच
बॉक्स थमाया, और बोली कि आज होई अष्टमी का दिन है, आज भोजन के स्थान पर हलवा बनाने एवं खाने की प्रथा
है ,इसलिए मैने आज भोजन के स्थान पर हलवा बनाया है,जैसे भी हो खा लेना।कालेज को देर हो रही थी और अन्य
विकल्प के लिए समय नहीं था,इस लिए बॉक्स ले लिया ,बेरुखी से उसे बेग में पटका और शायद मुंह फुलाते हुए में
कालेज के लिए चल पड़ी।
         मेरे घर से कालेज कि दूरी कोई अधिक नहीं थी,इस लिए मै पैदल ही जाना पसंद करती थी।आसपास की
चहल पहल,बाजार की रौनक देखने में ही मेरा कालेज का सफर कट जाता था।लेकिन पिछले महीने से मै गौर कर
रही थी कि मेरी गली के बाद  मुड़ते ही सीधे हाथ की तरफ एक तीन मंजिलें बड़े से मकान में ,जो कि बहुत ही सुन्दर
बना था,उसके भूतल पर, ठीक सड़क के किनारे वाले कमरे में एक बड़ी सी लेकिन खूबसूरत खिड़की थी, जो हमेशा
खुली रहती थी।लेकिन उस खिड़की से भी खूबसूरत थी उस खिड़की से बाहर झांकती एक वृद्ध महिला !  जो बाहर
आते जाते व्यक्तियों को निहारती सी रहती थी।चांदी से चमकते बाल,चेहरे पर बीत चुके समय के निशान झुर्रियो के
रूप में एक अलग ही आभा प्रदान करते थे मगर मुझे जो बात सबसे अधिक आकर्षित करती थी वह ये कि इस महिला
को देख कर मुझे अपनी दादी की याद आती थी। मै अपनी दादी को बहुत प्यार करती थी,मगर आज वो हमारे साथ
नहीं थी।कालेज आते जाते मेरी निगाहें अनचाहे ही उस खिड़की,ओर खिड़की में बैठी महिला की तरफ चली जाती थी।
      उस दिन में रोज की तरह कॉलेज जा रही थी।जैसे ही में  उस सुन्दर से मकान की सुन्दर सी खिड़की के पास
से निकली, मेरी नजर उस खिड़की में बैठी वृद्ध महिला की ओर गई तो मुझेलगा कि उस महिला ने आंखो के इशारे
से मुझे नजदीक आने का संकेत किया ।पहले तो मुझे लगा कि शायद ये मेरा वेहम है,परन्तु तभी महसूस हुआ की
वास्तव में वे मेरी और कुछ इशारा रही हैं। मै अनजाने ही उनकी ओर बढ़ गई।खिड़की के समीप जाकर मैने हाथ
जोड़ कर उनसे नमस्कार किया और प्रश्वाचक नजरों से उनकी ओर देखा।बड़ी ही माध्यम परन्तु सुरीली सी आवाज
में उन्होंने मेरा नाम पूछा।नाम बताते बताते मुझे लगा कि वे शायद मुझसे कुछ कहना चाहती हैं।उन्होंने इधर उधर
देखते हुए होले से पूछा " क्या तुम हलवा खिला सकती हो"? मै अवाक! अनायास ही मेरे मुंह से हां निकला।वहीं सड़क
पर खड़े मैने अपने बेग में से लंच बॉक्स निकला और उनकी ओर बढ़ा दिया।बिना कुछ और बोले उन्होंने लंच बॉक्स
और उसे खोल कर ,उसमे रखे हलवा को उंगलियों से ही खाने लगी। मै विस्मृत सी उन्हें देखती रही।वे सब कुछ भूल
कर खाने में लगी रहीं।यह दृश्य मेरी स्मृति में इतना पेंठ गया कि आज तक मुझे वो क्षण याद है।मुझे उस क्षण ऐसा
प्रतीत हो रहा था जैसे मेरी स्वयं की दादी जी हलवा खा रही है।खाने के पश्चात् उन्होंने खाली लंच बॉक्स मुझे वापस
कर दिया।मैने केवल एक वाक्य उनसे  पूछा " दादी जी ,क्या आपको हलवा इतना अच्छा लगता है"? उन्होने हल्के
से स्वीकृति में हां कहा।मैने हाथ जोड़े और कालेज की ओर बढ़ गई।सब कुछ भूल कर मुझे एक ऐसी तृप्ति का
अनुभव हो रहा था जैसे कि मैने स्वयं की स्वर्गवासी दादी को ही हलवा खिलाया है।
    उस दिन घर वापस आते ही सबसे पहले मैने मां से कहा " आज आपका हलवा अत्यंत ही स्वादिष्ट था,मां,कल से
रोज  मेरे लिए हलवा बनाया कीजिए"!मां को अवाक छोड़ मै अपने कमरे की ओर बढ़ गई।उस समय मै उनके किसी
भी प्रश्न का उत्तर देने की स्थिति में नहीं थी।
       अगले दिन जैसे ही में कालेज जाने को तैयार हुई,मां ने लंच बॉक्स मेरी और बढ़ाया ओर कहा" मै जानती थी
कि एकनाएक दिन तुझे मेरे हाथ के बने हलवा का स्वाद जरूर तुझे अच्छा लगेगा", और इस से पहले की मां कोई
अन्य प्रश्न पूछती,, मै कालेज के लिए निकल गई।
         अब तो मेरा ये रोज का नियम हो गया कि में रोज मां से हलवा बनवाती और रोज ही उस खिड़की के पास
जाकर उन दादी जी को खिला देती,फिर खाली बॉक्स लेकर मै आगे बढ़ जाती।इस सब के दौरान हमारे मध्य
कोई संवाद नहीं होता था, और शायद  हम दोनों को इसकी आवश्यकता भी नहीं लगती थी। मै उन्हें तृप्ति के
साथ खाते देखती ,ओर वे खाकर बॉक्स मुझे वापस कर देती! हां,बॉक्स वापस करते समय वे जिस नजरों से मुझे
देखती,मुझे वो उनका मूक आशीर्वाद ही लगता।उस समय मुझे तो यही लगता कि जैसे मेरी स्वयं की दादी ही
तृप्त हो रही हैं।
          ऐसे ही तृप्ति के क्षणों में मैने गौर किया कि वे व्हील चेयर पर बैठी रहती है,लेकिन आज तक मैने उनके
आस पास किसी को भी नहीं देखा।हम दोनों में मध्य एक ऐसा रिश्ता आकार ले चुका था जिसे किसी भी नाम की
आवश्यकता नहीं थी।ये सब घटना क्रम कोई 10 ,15  दिन लगातार चलता रहा।एक शाम जब में घर वापस आईं
तो अचानक मुझे लगा कि मुझे तेज बुखार आ रहा है। मै निढ़ाल सी पलंग पर लेट गई।मां आई ,आते ही मेरे माथे
पर अपना हाथ रखा तो चौंक गई " अरे तुझे तो तेज बुखार है"।फिर क्या था ,तुरंत ही डाक्टर को बुलाया ,उसने कहा
कि इसे वायरल हो गया है, अतः 8 या दिनों तक आराम करे और दवाई खाए ,ठीक हो जाएगी।फिर क्या था,मां का
सख्त ऑर्डर हुआ,कल कालेज नहीं जाना है।बुखार से मै निढ़ाल थी,आंखे बंद करली।
      जब मेरी आंख खुली तो देखा कि मै अस्पताल में थी।मां ने स्नेह पूर्वक हाथ पकड़ा हुआ था, आंखे भरी हुई
थी।मेरी सवालिया नज़रों को देख मां ने बताया कि तुम्हे कोई विशेष इंफेक्शन हो गया था ,आज 7 के बाद तुम्हे
होश आया है।अब तुम कुशल से हो।
        अगले 4 या 5 दिनों तक मां ने कमरे से बाहर  ही नहीं निकलने दिया।ठीक होने पर जब कालेज जाने लगी
तो मां ने लाड से सर पर हाथ फेरते हुए लंच बॉक्स थमा दिया" आज मैने तेरे लिए स्पेशल हलवा बनाया है", तुरंत
बॉक्स लेकर मै थोड़ी बेकरारी से कालेज के लिए चल दी,शायद उस समय मुझे इतने दिनों बाद कालेज से अधिक
दादी से मिलने की जल्दी थी।लगभग दौड़ते भागते मै उस खिड़की के पास आई तो देखा खिड़की बंद थी! 
    एक दिन,दो,तीन,इसी तरह से 10 दिन बीत गए परन्तु खिड़की नहीं खुली। मै हैरान परेशान सी,कुछ बेचैन सी
रोज खिड़की कि तरफ देखती थी।इस दौरान मां से रोज हलवा बनवाती,फिर ना चाहते हुए भी खुद ही खा लेती।क्या
कारण था जो खिड़की बंद थी,किस से पूछूं,उनके अतिरिक्त मेरा उस सुंदर घर  पर रहने वालों से मेरा कोई परिचय
नहीं था। 11दिन बाद जैसे ही उस मकान के पास पहुंची,देखा खिड़की तो बंद थी मगर दरवाजे खुले हुए थे।पंडाल
सजे हुए थे,बहुत सारे लोग खाने पीने में लगे थे।हिम्मत करके मैने साथ वाले दुकानदार से इस सब की वजह जानी
तो …. दिल को धक्का सा लगा।" इस घर की एक बुजुर्ग महिला की कुछ दिन पहले मृत्यु हो गई थी,उसी के लिए
ये तेरहवीं का भोज था। सब तरफ भोज्य पदार्थों की खुशबू फैली हुई थी,तरह तरह के व्यंजन बन रहे थे।लोग जी
भरकर खा रहे थे और महिला के बेटों की प्रशंसा के पुल बांध रहे थे।नजदीक से निकलते एक महिला के निकट
संबंधी के शब्द कानों मै अनायास ही तीर की तरह चुभ गए " वाह! क्या बेटे हैं,बहुत बढ़िया दावत दी है ,सबके बेटे
ऐसे ही हों", आगे के शब्द सुनने की मेरी हिम्मत नहीं थी। मै बदहवास सी वापस घर की तरफ दौड़ सी लगाती,मां
की किसी भी बात का उत्तर ना देते हुए बिस्तर पर ओंधी जा पड़ी।मां हलवा बनाने के लिए किचन में व्यस्त थी। कैसी
है ये दुनिया,केसा है ये समाज,जीते जी हम सगे रिश्तेदारों को भोजन नहीं खिलाते,उनकी छोटी सी इच्छा, चाहे वह
हलवा जैसी ही हो ,कोई पूरी नहीं करता और मृत्यु के पश्चात…. उसकी आत्मा की शांति हेतु विशाल भोज,दावत…!
मैने बहुत कठिनाई से आंसू रोकते हुए ,अंतर्मन में समाज को कोसते ,निराशा और शोभ के साथ अपना सर तकिए
में छुपा लिया ।मुझे आज एक बार ऐसा महसूस हो रहा था कि आज एक बार फिर मेरी दादी की मृत्यु हो गई है!