मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

यात्रा ........ कोड़ाई कनाल ( तमिलनाडु)

यात्रा ........ कोड़ाई कनाल ( तमिलनाडु)
    

           
   यूं तो हम उत्तरी भारतीयों से अगर कोई पूछे कि अगर आप किन पर्वतीय स्थानों पर जाना चाहेंगे तो मुझे पूर्ण विश्वास है कि लगभग कश्मीर से लेकर शिमला,मंसूरी,नैनीताल ,धर्मशाला , और दार्जिलिंग सहित तमाम सारे हिल स्टेशन का ही नाम लेंगे।अब मै कहूं कि मै भारत के धुर दक्षिण में स्थित एक अनोखे हिल स्टेशन पर ही जाना चाहूंगा तो , सभी कहेंगे कि इसमें क्या है ,उंटी हिल स्टेशन है ये हम भी जानते हैं।पर अगर मै आपसे पूछूं कि नहीं, मै तमिलनाडु के उस हिल स्टेशन पर जाना चाहूंगा जो उत्तर भारत में स्थित हिलस्टेशनो से ऊंचाई में बराबर ही नहीं,बड़ा है तो शायद आप में से अधिकांश मेरे सामान्य ज्ञान पर प्रश्न चिन्ह ही लगाएंगे ! ये उनकी गलती नहीं है ,क्योंकि हम में से अधिकांश यही समझते हैं कि भारत के सबसे नम और गर्म प्रदेश में तमिलनाडु भी एक है।पर ठहरिए ,आपकी इस गलतफहमी को दूर करने हेतु, मै आपको, आज की अपने इस शब्दों की यात्रा के द्वारा ,इस गर्म और नमी वाले प्रदेश " तमिलनाडु " के एक बिल्कुल अछूते,पर्यटकों की भीडभाड रहित ,एकदम शांत ,दक्षिण के घने हरे भरे वर्षावन के एकदम मध्य स्थित,एक ऐसे हिल स्टेशन पर ले चलता हूं ,जिसमें जाकर आप मेरी ही तरह आश्चर्य चकित हो जाएंगे कि अरे ऐसे किसी हिल स्टेशन के बारे में हमने पहले क्यों नहीं जाना था।
         अब इस भारत के एक दम अनोखे ,मगर छोटे से हिल स्टेशन पर ले जाने से पहले इस हिल स्टेशन के बारे में एक और अनोखी बात और बताना चाहूंगा कि भले ही ये हिल स्टेशन धुर दक्षिण भारत में स्थित है मगर इस हिल स्टेशन की समुद्र तल से ऊंचाई भारत के अधिकांश हिल स्टेशनों से अधिक है। जी हां,इस हिल स्टेशन की समुद्र तल से ऊंचाई 7000 फुट है,जबकि मंसूरी,शिमला या नेनिताल कीं ऊंचाई 6000 फुट से अधिक नहीं है ! तो चलिए अब इस अनोखे हिल स्टेशन का नाम भी आपको बताता हूं ।इस का नाम है " कोडईकनाल " !
            कोडईकनाल जाने का प्रोग्राम जब मैने बनाया तो अधिकांश परिवार वालों ने मेरी हंसी सी उड़ाई ,मगर मै अडिग था कि मुझे कोडईकनाल जाना ही है।
       अपने शहर मथुरा से कोडाई कनाल जाने के लिए ट्रेन खोजी तो काफी माथा पची के बाद पता चला कि कोडईकनाल जाने के लिए तो कोई ट्रेन है ही नहीं,इस के लिए पहले मदुरै जाना पड़ेगा।मदुरै से लगभग 100 किलो मीटर की दूरी पर ये हिल स्टेशन है।ये मदुरै से विशाखापत्तनम मुख्य मार्ग पर जाते हुए " पल्लई पत्तू " नामक कस्बे से एक अलग मार्ग से होते हुए कोडईकनाल तक जाना होता है।


     
    ट्रेन से जब मदुरै स्टेशन उतरे तो गर्मी और नमी से परिचय हुआ।मदुरै काफी विशाल शहर है। मीनाक्षी मंदिर के कारण हमेशा तीर्थ यात्रियों से भरा रहता है,साथ ही तमिलनाडु के प्रमुख, बड़े शहरों में से एक है।नजदीक के एक होटल में कमरा लेकर ,नहाधोकर,सीधे मीनाक्षी मंदिर के दर्शनों हेतु चल दिए।मंदिर रेलवे स्टेशन के समीप होने के कारण पैदल ही मंदिर की ओर चल दिए।पूरा रास्ता सैकडों वाहनों से रेलमपेल था।चारों ओर विभिन्न सामानों से भरी दुकानें थी।पूरे रास्ते पर ढकेल वालों का तो जेसे कब्जा ही था।ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जेसे हम दिल्ली के चांदनी चौक जेसे बाजार में ही घूम रहे हैं। जिस किसी भी दुकान के सामने से निकलते ,दुकानदार तरह तरह की आवाजों से हमें बुला रहे थे।शीघ्र ही समझ में आया कि एक आम तीर्थ स्थल की ही तरह ये भी एक तीर्थ स्थल ही है ,इसलिए यात्रियों को लुभाने की हर कोई कोशिश कर रहा है।लेकिन एक विशेषता कि ओर हमारा ध्यान गया कि लग ही नहीं रहा था कि हम तमिलनाडु जेसे अपरिचित भाषा और हमेशा हिंदी भाषा के विरोध वाले प्रदेश में हैं।कारण यही कि हिंदुओ का एक बड़ा तीर्थ स्थल होने के कारण मदुरै हमेशा से सम्पूर्ण भारत वासियों का श्रद्धा स्थल रहा है जिसमें उत्तर भारतीयों का विशेष स्थान है ।इसका साक्ष भी देखने को मिला कि हमारे आसपास हर तरफ शुद्ध उत्तरी भारतीय भोजन के होटलों की भरमार थी।आसपास विज्ञापन बोर्डो जिन पर तमिल भाषा ही लिखी थी ,उसके अलावा लग ही नहीं रहा था कि हम हिंदी भाषाई क्षेत्र से दूर एक अपरिचित भाषा के  क्षेत्र में हैं !मीनाक्षी मंदिर के दर्शन के पश्चात,ठेठ उत्तर भारतीय भोजन के पश्चात वापस होटल में आकर अगले दिन कोडईकनाल जाने की व्यवस्था करने लगे।अपने विगत के अनुभवों से मै जानता हूं कि किसी भी स्थान को घूमने ,उसके बारे में पूर्ण जानकारी लेने में जो मदद स्थानीय परिवहन से मिलती है ,वह व्यक्तिगत वाहनों जेसे टैक्सी या चार्टेड वाहनों के द्वारा नहीं मिलती।इस लिए जहां तक संभव हो सके मै उस स्थान विशेष के स्थानीय वाहनों में यात्रा करने को ही प्राथमिकता देता हूं।इस से मुझे स्थानीय सहयात्रियों के साथ यात्रा करते समय,उनकी स्थानीय सांस्कृतिक की जानकारी ,एवम् उनके द्वारा गंतव्य स्थल की जो जानकारी प्राप्त होती है ,वो शायद किसी भी किताब या अन्य साधनों से मिलना  संभव नहीं हो पाती है।इस लिए हमने भी कोडईकनाल जाने के लिए स्थानीय बस से ही यात्रा करने का निश्चय किया ,एवम् तय किया कि कल सुबह ठीक 7 बजे की तमिलनाडु की सरकारी बस द्वारा ही यात्रा करेंगे।
      अगले दिन प्रातः ही ओटो कर के बस अड्डे की ओर रवाना हो गए।तब और समझ में आया कि मदुरै शहर तो मेरी सोच से भी बड़ा शहर है।ओटो के द्वारा बस स्टैंड पहुंचने में ही लगभग डेढ़ से दो घंटे लग गए।
     बस स्टैंड का नजारा देख कर तो जेसे होश ही उड़ गए।कोई हिंदी भाषा का जानकार ही नहीं था।ना कंडेक्टर,ना ड्राइवर और ना ही कोई कर्मचारी।आसपास जो भी लिखा था और जो भी जानकारी दी जा रही थी,सब की सब तमिल भाषा में ही थी।हमारे लिए तो तमिल भाषा ऐसी थी जेसे की भैंस के लिए काला अक्षर,ऊपर से सारी बसों का रूप रंग भी एक जैसा ।जिस से भी जानकारी लेने कि कोशिश की वहीं एक ही उत्तर " नो हिंदी ,हिंदी नई या फिर इनकार में ना समझने के लिए सिर हिलाना". काफी देर बाद अचानक किसी यात्री द्वारा किसी कंडैक्टर द्वारा कहा गया शब्द ' कोडई " समझ आया तो उसके पीछे ही चल दिए और वो जिस बस में चढ़ा , हम भी उस बस के बाहर खड़े कंडक्टर से " कोडईकनाल " पूछने पर केवल गर्दन हिलाते ही चेन की सांस लेते बस में चढ़ गए।


   
   कुछ ही देर की यात्रा के पश्चात शहर पीछे छुटने लगा । छोटे छोटे ग्राम जैसे हमारा अभिवादन करने के लिए समीप आते,हमारा स्वागत सा करते ,फिर आगे हमारी मंजिल की ओर बढ़ने का संकेत करते।सब कुछ भुला कर हम इस तमिलनाडु प्रदेश की हरियाली में जैसे खोने से लगे ।अभी कुछ देर पहले जहां हम महानगर के शोर में बेचैन हो रहे थे वहीं हमारे कोडईकनाल के मार्ग के दोनों तरफ शांति एवम् हरियाली हमें मंत्र मुग्ध सी करने लगी थी।संयोग से जैसे प्रकरती हमारे ऊपर मेहरबानी करने लगी  ।थोड़ी ही देर में ऊपर आसमान घने काले बादलों से ढंक गया ,परिणाम स्वरूप खिड़कियों से शीतल ,ठंडी हवाएं जैसे हमें सब कुछ भूलकर अपने में समेटने सी लगी थी। और कुछ देर की यात्रा के बाद हमारे दोनों और छोटी छोटी हरियाली से ढकी पहाड़ की चोटियां नजर आने लगी। दूर दूर तक छोटे छोटे खेत जो कि नारियल के लंबे लंबे पेड़ों से भरे हुए थे,हमारे लिए आश्चर्य के दृश्य थे। प्रकर्ती के इस मनोहारी दृश्य का आनंद लेते हम जब सुध बुध खो ही रहे थे कि अचानक बस के एक बड़े ही कर्कश हॉर्न ने हमें वास्तविक धरातल पर वापस पटक दिया।यहां इस प्रदेश की एक और विशेषता से आपको परिचय करना जरूरी समझूंगा कि इस प्रदेश में जो भी बस अथवा ट्रक चलते हैं तो उन सबके सब के हॉर्न की आवाज एक बड़े से फटे बांस अथवा खाली ड्रम में चिंघाड़ती सी ,कानफाड़ू आवाज होती है।काश ,संभव हो सकता तो मै आपको इस अत्यंत कर्कश आवाज को अभी सुना पता !हमारी बस जो कि लगभग पूरी भरी हुई थी ,पल्लाई पत्तु नाम के कस्बे में आ पहुंची थी।अब इस कस्बे का भी वहीं हाल था जैसा कि हमारे कस्बों का होता है,भीड़,बेतरतीब वाहन,शोर शराबा ,जब तक कुछ और समझते ,हमारी बस इस कस्बे के बस स्टैंड पर रुक चुकी थी।
       लगभग 15 मिनट के असहनीय विश्राम के बाद बस फिर से हमारी मंजिल कि और बढ़ने लगी । गौर किया कि बस तो लगभग खाली हो चुकी थी ,कुल सात या आठ यात्री ही बैठे थे।



       अभी कुछ ही दूर चले थे कि सामने विशाल पहाड़िया नजर आने लगी ,हमारी बस के इंजन एवम् गति ने इशारा कर दिया कि अब हमारी वास्तविक हिल स्टेशन की यात्रा आरंभ हो चुकी हैं।
बाहर का नजारा अब बदलने लगा था।सड़क के एक ओर गहरे गहरे गड्ढे तो दूसरी ओर विशाल मगर घने जंगलों से आच्छादित ऊंची ऊंची पर्वत चोटियां दिखाई देने लगी थी।

      वैसे तो हम उत्तर भारत के सभी हिल स्टेशनों पर भ्रमण कर चुके हैं ,मगर उन सभी के रास्तों में और कोडईकनाल हिल स्टेशन के रास्ते में एक विशेष अंतर हमें स्पष्ट दिखाई दे रहा था और वह ये कि उन सभी मार्गों के आसपास हरियाली नाम मात्र की ही बची है जबकि कोडईकनाल के पलाई पात्तू से शुरू मार्ग शुरू से ही घने जंगलों से घिरा हुआ था। जैसे जैसे हमारी बस आगे बढ़ रही थी ,वैसे वैसे ही ऊंचाई के साथ साथ हरियाली भी बढ़ती जा रही थी कुछ ही देर बाद तो स्पष्ट नजर आने लगा कि हमारी यात्रा घने जंगलों के मध्य से गुजर रही है।

ये इस बात से भी और स्पष्ट हो गया कि इस सड़क के दोनों तरफ कुछ कुछ दूरी के पश्चात अनेकों बोर्ड लगे थे जिनमें लिखा था ,ये टाइगर प्रोन इलाका है ,ये जंगली हाथियों का इलाका है ,ये जंगली बैल जिन्हें अंग्रेजी में " बाइसन या शुद्ध हिंदी में गौर " भी कहते है।साथ ही निर्देश भी अंकित थे कि उपरोक्त जानवरों के मार्ग पार करते समय अपने वाहनों को रोक कर रखे।विश्वास कीजिए ये सब देख पढ़ ,हमारी उत्सुकता चरम पर थी।


कनाल शहर तो अभी दूर था ,परन्तु इस मार्ग के दोनों ओर जो घने वनों की सुंदरता थी वो शायद सम्पूर्ण भारत वर्ष में शायद ही कहीं थी।एक बात और इस पूरे पाल्लाई पट्टू से को़डाई कनाल तक की 55 किलो मीटर की यात्रा में एक या दो ही गांव पड़े थे ,बाकी शेष मार्ग तो एक दम घने जंगलों से ही आबाद था।


      आखिर कार तीन घंटों की यात्रा के बाद हमें दूर से चमकते कोडलकनाल हिल स्टेशन दिखाई देने लगा।कुछ ही समय में घुमाव दार सड़कों से घूमते , चकराते सिर को सम्हालते हमारी बस अपने गंतव्य स्थल " कोडईकनाल " पहुंच गई थी।

      बस से उतरकर सबसे पहले अपने आसपास नजर घुमाई ।कोई चहल पहल नहीं।हमारे साथ के यात्रियों के अतिरिक्त अन्य कोई था ही नहीं।केवल एक दो बस खड़ी थी वे भी एक दम खाली।बस स्टैंड थोड़ा आधुनिक परन्तु छोटा सा ही था।
एक ओटो और दो टैक्सी के अतिरिक्त अन्य कोई सवारी वाहन वहां नहीं। अब हम किधर जाएं,किस से पूंछे।आखिर सोचा की चलो स्टैंड से बाहर चल कर देखते हैं ।बाहर निकालते ही एक बड़ा सा चौराहा ,उसके एक तरफ बड़े से आधुनिक तीन या चार होटल फिर एक ढलान की तरफ बड़ी सी चार मंजिला इमारत उसके बाद कुछ चाय कि दुकानें उसके बाद शून्य।दूसरी ओर कुछ रेस्टुरेंट ,तीसरी ओर एक दो रिहायशी भवन और फिर बड़े बड़े देव दार के वृक्ष।


चौथी ओर से तो हम बस से आए ही थे।असमंजस में हम कुछ निर्णय ले पाए कि अचानक जाने कहां से चारों ओर बादल छा गए ,जिस से चार पांच फुट के बाद कुछ भी  दिखाई देना बंद हो गया।इक्का दुक्का लोकल आदमी ही छाता लगाए इधर उधर घूम रहे थे।

       अब कहीं तो रुकना ही था ,इस लिए सामने दिखाई देने वाले होटल की तरफ ही चल दिए होटल बड़ा लग रहा था तो डर था कि इसके कमरों का किराया भी ज्यादा ही होगा , जैसे कि तमाम हिल स्टेशनों पर होता है।लेकिन रिसेप्शन काउंटर पर जाकर चकित हो गए जब पता लगा कि इस शानदार होटल के कमरों का किराया अन्य हिल स्टेशनों के तुलना में आधे से भी कम था।कमरा लेते लेते हम ठंड से कप कपाने लगे थे।आश्चर्य था कि यहां से 100 किलो मीटर की दूरी पर तो गर्मी ,नमी से परेशान थे , और यहां बादलों से घिरे ,ठंड से कांप रहे थे।
       पूछने पर पता चला कि एक तो इस स्थान की ऊंचाई समुद्र तल से 7000 फुट के करीब है दूसरे यहां पर वर्ष में छह माह के करीब तो वर्षा होती है क्योंकि ये स्थान वर्षा वन के मानकों को पूरा करता है अर्थात इस छोटे से हिल स्टेशन के चारों ओर 100 किलो मीटर तक सिर्फ ओर सिर्फ घने ,सदा हरे भरे रहने वाले, जंगल हैं।साथ ही उसने यह भी बताया कि इस शहर में इन दिनों अक्सर शाम या रात्रि में जंगली जानवर आते रहते हैं।चूंकि इस शहर के निवासियों की आबादी बहुत ही कम है तथा पर्यावरण के नियम कानून भी अत्यंत काफी कड़े हैं।हम उसकी इन बातों
से सहमत भी थे क्योंकि यहां तक आते हुए हम सब ने भी यही देखा था।साथ ही कहा कि इस हिल स्टेशन के बिल्कुल आस पास बड़े बड़े कटहल ,नाशपाती के जंगल हैं।क्या कहा ! जंगल ,जी हां ,जंगल । इन सब के यहां इतने वृक्ष हैं कि एक तरह से उनके जंगल ही उग आए हैं।साथ ही मौसम अनुकूल होने के कारण यहां काफी के बीज तथा काली मिर्च का भी  बहुत उत्पादन होता है।

हम आश्चर्य चकित तो इस बात से भी थे कि वो हमे ये सब हिंदी भाषा में ही बता रहा था।अब एक प्रश्न मन में उठा तो उससे पूछ ही लिया कि यहां आने वाले टूरिस्ट अधिकतर कहां के होते हैं तो बताया गया कि आप जैसे कुछ ही यात्री उत्तर से आते हैं,अधिकांश तो दक्षिण भारत के ही होते है , और वे भी गिने चुने क्योंकि अधिकांश भारत के टूरिस्ट चाहे वे किसी भी राज्य के हो,फिल्मों से प्रभावित हो कर अक्सर ऊंटी हिल स्टेशन पर ही जाते है,इस कारण कोडईकनाल का इतना कम प्रचार प्रसार हुआ है।लेकिन उसने जो एक बात आखिर में कहीं ,इस से हम प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सके।उसने कहा कि हमें इस स्थान ऑर इसके पर्यावरण से इतना प्यार है कि हम नहीं चाहते कि यहां अधिक टूरिस्ट आएं,उनके लिए विकास के नाम पर इस स्थान का, जिसकी नैसर्गिक सौंदर्य ही इस स्थान की विशेषता है, को नुकसान पहुंचे ।सच कहता हूं ,उसकी इस बात ने हमारा भी दिल जीत लिया और इसे अछूते प्रकर्तिक स्थान पर आने पर हमें बहुत ही सुकून मिला।

        होटल के कमरे में ,शांत और सुकून के साथ मदुरै से यहां तक की यात्रा की थकान को मिटाकर,भोजन के लिए अच्छे रेस्टोरेंट कि तलाश में हम शायद शाम 8  बजे होटल से बाहर निकले ,तो आत्मा जैसे तृप्त हो गई।चारों ओर बादलों की घेरा बंदी, हल्की हल्की महीन महीन नमी से अपने कि भिगोते हम समीप के चौराहे पर जा पहुंचे ।
सड़कों पर इक्का दुक्का वाहन,कुछ हमारी ही तरह टूरिस्ट तथा कुछ स्थानीय निवासी आसपास की गरम गरम काफी कि दुकानों पर, दक्षिण भारत की काफी का आनंद ले रहे थे।इस काफी की महक जैसे हमें निमंत्रण देने लगी कि हम भोजन को छोड़ काफी का लुत्फ उठाने को ,अपने को रोक ना सके ।

हम भी एक समीप कि काफी की छोटी सी दुकान पर, काफी पीने के लिए जा पहुंचे।ताजी ताजी ,गरमागरम काफी,ठंडा मौसम ,सड़कों पर घने बादलों के बीच सितारों सी चमकती स्ट्रीट लाइटों के बीच हमने इस शाम का अनुभव लेना आरंभ ही किया था कि अचानक सामने से कुछ आवाजें आने लगी " साइड ,साइड" बाकी भाषा हमारी समझ के बाहर थी , कि काफी के दुकानदार ने हमसे कहा कि आप तुरंत दुकान के अंदर आजाए ,हमारे अंदर आते ही उसने शीशे के दोनों गेटों को बंद कर दिया ।

अभी हम प्रश्नवाचक नज़रों से उसे देख ही रहे थे कि उसने हमे सामने बाहर देखने का संकेत किया।क्या बात थी !
सामने ,एक दम सामने एक विशाल ,दस बारह फुट ऊंचा ,दो टन वजनी भरा पूरा ,विशाल सिंगो वाला " बाइसन " या " जंगली गौर जिसे जंगली बैल भी कहते है ,आसपास की चहल पहल,लाइटों ,होटलों की चकाचक रोशनियों से बे फिक्र ,मस्त चल से धीरे धीरे इधर उधर नजर घुमाते आ रहा था।वो कभी किसी एक होटल के शीशों के गेट से अंदर झांकता ,कभी आगे बढ़ कर दूसरे होटल के गेट से झांकता ,हमारी काफी कि दुकान के बाहर भी आ गया ।
उसकी उस अंधेरे में भी चमकती लाल लाल आंखें ,विशाल कद काठी  ने जैसे हमे सम्मोहित सा कर दिया ।जो हम देख रहें है ,कहीं वो सपना तो नहीं।एक पूरा जंगली जानवर ,जिसकी विशालता और ताकत के आगे ,जंगल का राजा कहे जाने वाला शेर भी सीधे मुकाबला करने से बचता है ,वो इस शहर के ठीक बीच चौराहे पर ,बेफिक्र ,निरीक्षण सा कर रहा था।
उसकी हमारी ओर घूरती आंखों ने जिसे हम कभी नहीं भूलने वाले थे ,शायद हमारा मुआयना किया ,फिर धीरे से आगे बढ़ गया । हम सब कुछ भूल कर दुकानदार की स्वीकृति के बाद बाहर आगए,तुरंत इस कभी कभी मिलने वाले यादगार पलों को अपने कैमरे में कैद करने लगे।आसपास जैसे कर्फ्यू सा लग गया था।कुछ ही देर में जैसे अचानक वो आया था ,वैसे ही अचानक ही वो आगे बढ़ कर,बिना कोई नुक्सान पहुंचाए आगे अंधेरों में खो गया।हम सब हतप्रभ से अवाक खड़े थे।लग रहा था जैसे हम किसी फिल्म का जंगल का कोई दृश्य ,ठीक शहर के बीच अपने खुद के सामने देख रहे थे। हमें अवाक देख उस दुकानदार ने बताया कि सर,यहां तो अक्सर ये बाइसन ही नहीं,भेड़िया और भालू तक आ जाते हैं,परन्तु वे किसी को कोई नुक्सान नहीं पहुंचाते है।असल में इस शहर के चारों ओर थोड़ी ही दूरी पर घने जंगल है,जिसमें से एक ऑर से दूसरी ओर जाते अक्सर ऐसे जानवर अक्सर आ जाते हैं।क्या बात है " कोडईकनाल " की।


       अगले दिन हम नहा धो कर घूमने निकले। जैसे कि पहले लिखा था,ये एक अत्यंत छोटा ,शांत हिल स्टेशन है अतः इसका कुल घूमने का क्षेत्रफल भी पांच किलोमीटर से अधिक नहीं है।जिस तरफ भी जाओ ,आधे घंटे में घूम के वापस उसी स्थान पर आ जाएंगे।भले ही सारा क्षेत्र चढ़ाई ऊंचाई की तरह ही है परन्तु सारे मार्ग वेल मेंटेंड है।जब भारत में अंग्रेजों का शासन था तो भारत की गर्मी से बचने और मनोरंजन के लिए इस घने जंगलों में शिकार के लिए कोडईकनाल को उन्होंने ही बसाया था।

उनकी बड़ी बड़ी इमारतों के खंडहर,चर्च आदि की उपस्थिति जैसे आज भी इस बात की खामोश गवाही देती है।वर्तमान में  छोटी छोटी दुकानें जो अधिकांशतः लोकल काफी के उत्पाद,घर की बनी तरह के डिज़ाइनों ,रंगों की चाकलेटों एवम् काली मिर्च के सामानों से भरी हुई थी।

इस पांच किलोमीटर के क्षेत्र में जिधर से भी जाओ ,सब घूम फिर के एक ही स्थान पर मिल जाते हैं।बस यहां की एक टूरिस्टों की लोकप्रिय जगह और भी है और वो है इस शहर के मध्य में बनी एक छोटी मगर खूबसूरत झील।

इस झील में तरह तरह की नावें,इस झील के सौंदर्य में जैसे चार चांद लगाती हैं।इस के एक तरफ बड़ा सा पक्का मगर खूबसूरत खुला स्थान है जिसके ठीक मध्य में मूर्ति लगी हुई है,समीप ही एक विशाल राष्ट्रीय ध्वज लहराता रहता है ।इसी के एक ओर कुछ तिब्बती शरणार्थियों की गरम वस्त्रों आदि की दुकानें है,।

इस झील के एक किनारे को जो कि पूरे कोडईकनाल में सबसे अधिक समतल स्थान है पर टूरिस्टों के लिए सायकिल से घूमने का आनंद लेने के लिए बनाया गया है।
यहां थोड़ी थोड़ी दूरी पर स्थानीय निवासियों द्वारा गरमागरम पकोड़े एवम् गरम गरम मीठे मक्का के भुट्टो की खुशबू तो जैसे इस स्थान कि विशेषता बनी हुई है। वाह ! वाह! 

         ये सब जो मैने ऊपर आपको इस स्थान का विवरण दिया है , मै गारंटी के साथ कह सकता हूं कि उसका वास्तविक रूप ऑर सौंदर्य का आनंद आप स्वयं यहां व्यक्तिगत रूप से आकर ही ले सकते हैं।


    अरे हां,इस विशेष स्थान की एक विशेषता तो मै आपको बताने से रह गया।ये ऐसी विशेषता है जो इस स्थान के अतिरिक्त और कहीं नहीं होती , और वो विशेषता है ,यहां के सीताफल।जी हां ,सीताफल ,जिसे कुछ स्थानों पर रामफल भी कहते हैं।जैसे की मैने पहले भी बताया था कि यहां अत्यधिक मात्रा में नाशपाती और कटहल पैदा होते है,जिनके बारे में स्थानीय लोग कहते हैं कि ये इतनी मात्रा में पैदा होते है कि वनों में रहने वाले पशु विशेषतः वानर एवम् लंगूर भी इन्हें नहीं  खाते !

    अब बात हो रही थी सीताफल की।हमारे आपके शहरों में जो सीताफल थोड़ा बहुत सीजन में कभी कभार मिलता है उसका आकार एक क्रिकेट की गेंद से शायद ही बड़ा होता है और उसके अंदर बीज,बाप रे बाप ,सैकडों बीज होतें है।

हम अक्सर उन बीजो में लगे सीताफल के गुदे को खा कर संतोष कर लेते हैं।परन्तु क्या आप विश्वास करेंगे कि यहां पैदा होने वाले सीताफल ,जो कि यहां का मुख्य पैदा होने वाला फल है का कम से कम वजन एक से सवा किलो तक होता है।जी हां, और अधिक का तो कहना ही क्या ,वे अक्सर दो से तीन किलो वजन तक के होते हैं। मै जानता हूं कि आपके मन में प्रश्न उठ रहा होगा कि हमारी तरफ मिलने वाले छोटे से सीताफल में तो बीजों के अलावा जिनकी संख्या बहुत होती है कुछ और होता ही नहीं तो सुनिए और विश्वास कीजिए कि यहां मिलने वाला सीताफल ,चाहे वो जितना भी वजन वाला हो उसमे सिर्फ और सिर्फ 9 ,जी हां सिर्फ नों ही बीज होते है। बाकी फल तो काशीफल या कद्दू की तरह  या पपीते की ,मीठे ,गद्दर फांकों की तरह होता है।ये इतना अधिक मीठा और स्वादिष्ट होता है कि एक सीताफल ,पांच पांच खाने वालों को तृप्त कर देता है।अब भी अगर आपको विश्वास नहीं आए तो जब भी कोडईकनाल आएं,स्वयं ही खा कर अनुभव कर सकते है।इसके अतिरिक्त यहां अन्य कई  विचित्र से फल होते हैं,जो इस स्थान के अतिरिक्त पूरे भारत में कहीं और नहीं मिलते हैं।
      शेष यही कि ये हिल स्टेशन इतना छोटा है कि दो दिन ही यहां घूमने के लिए पर्याप्त है। हां ,अगर आप अपने समस्त भारत के शहरों में बदलते हिल स्टेशनों से उब चुके हैं , तो मेरा कहा मानिए और कम से कम एक बार, एक सप्ताह के लिए यहां अवश्य आइए ,यहां की सुखद शांति में अपने को खो जाने दीजिए क्योंकि " जो बात इस कोडईकनाल में है वो और कहीं नहीं !!