सोमवार, 12 दिसंबर 2022

यात्रा ....उत्तराखंड : : गवालदम

c       पाताल भुवनेश्वरी से ग्वालदम जाने के लिए हमारे पास दो कारण थे ,पहला ये कि हमे यात्रा के अंत में देहरादून जाना था ,जिसके लिए दो रास्ते थे जिनमे एक तो बद्रीनाथ, केदारनाथ वाला हाई वे, जो सीधे ऋषिकेश से होता हुआ देहरादून जाता था तो दूसरा रास्ता कर्ण प्रयाग से अल्मोड़ा ,रानीखेत ,कौसानी, नैनीताल  होते हुए ऋषिकेश से निकलते हुए देहरादून तक जाता था ।अब चूंकि हम ने निर्णय किया हुआ था कि इस उत्तराखंड की यात्रा में हम मुख्य मार्गों से नही जा कर ,इसके उन मार्गो से गुजरेंगे जो उत्तराखंड के अधिकांश शहरों में से होता हुआ जाता हो, और  जो सेलनियो की रेल पेल  दूर हों । इस लिए हमने  कर्ण प्रयाग से हो कर अल्मोड़ा से निकलने वाले मार्ग को चुना ! इस मार्ग को गुगल बाबा के मैप से देखते हुए जानकारी हुई कि इसके मार्ग में ग्वालदम नामका एक प्रमुख हिल स्टेशन भी मिलता है ।
      एक बार मेरी नजरो से उत्तराखंड के पर्यटन विभाग का नक्शा गुजरा था, जिसमे ग्वालदम को एक अनोखा , अछूता ,बर्फीली वादियों में छुपा ,शांत हिल स्टेशन बताया गया था ।ये और बात थी कि ये हिल स्टेशन इतने विरल मार्ग में पड़ता था कि शायद आम सैलानी यहां तक आने की हिम्मत ही नहीं कर पाते होंगे ।वो तो नैनीताल ,अल्मोड़ा आदि स्थानों पर घूमने से संतुष्ट हो जाते हैं।परंतु हम थे पक्के ,मजबूत इरादों वाले घुमक्कड़ प्राणी ।इसीलिए हमने ये दुरूह ,विरल मार्ग ही चुना ,ताकि एक बार में ही ये सारे हिल स्टेशन हमारी पहुंच में हो जाएं !
       अभी दोपहर के तीन के करीब बजे थे ,आशा थी कि हम ,अंधेरा होने तक ग्वालदम पहुंच जायेंगे ।पूर्व की यात्राओं की  तरह टेढ़े मेढे मार्गों से निकलते हुए कोई ,शाम के पांच बजे हम कर्ण प्रयाग पहुंचे ।अभी आगे और जाना था ,इस लिए समीप की चाय की दुकान से गरमागरम चाय और  समोसो से अपनी ताजगी को फिर से संजोते, हम तुरंत ही चल पड़े ग्वालदम की और ।
     आरंभ में तो सुखद आश्चर्य हुआ कि वाह ,बड़ी ही चौड़ी ,नई द्विमार्गीय सड़क है ,तो शाम होने से पहले ही ग्वालदम पहुंच जायेंगे ।लगभग अभी बीस किलोमीटर की दूरी पूरी की थी कि अचानक सड़क एक बहुत ही छोटी सी सड़क में बदल गई ।अभी कुछ और सोचते, ये सड़क हमे साथ चलते पहाड़ों की चोटियों पर ले जाने लगी ।कुछ और आगे बढ़े तो लगा कि हम दो पहाड़ों के ठीक बीच में एक बहुत ही संकरी सी घाटी में हो कर निकल रहे हैं।मार्ग इतना कठिन था कि हमारी कार की गति बीस किलोमीटर से अधिक ,नही पकड़ पा  रही थी । इस रास्ते में न तो कोई गांव हमे दिखाई दिया और ना ही कोई वाहन आता जाता मिला ।हम सब चुपचाप इस बहुत ही अनोखे मार्ग से गुजरते हुए सोच विचार में डूबे हुए थे कि अब तक के पूरे सफर में हमें  इतनी निर्जंता शायद ही मिली होगी ।
      चलते चलते शाम गहरी होने लगी ,कोई दो घंटे और बीते कि तभी एक बड़ा सा मोड़ सामने नजर आया, जिसके किनारे एक बड़ा बोर्ड लगा था "" दाईं ओर अल्मोड़ा सत्तर किलोमीटर ,बाईं ओर ग्वालदम छः किलोमीटर ""! हम एक अनोखी खुशी से उछल पड़े ,अरे इतना पास आ गया ग्वालदम ! कार जैसे ही हमने बाईं ओर मोडी ,सड़क एक दम चौड़ी ,फर्स्ट क्लास बनी हुई दिखाई दी ।विश्वास कीजिए अभी तक की हमारी यात्रा में इतनी बढ़िया सड़क हमे नही मिली थी ,पिथौरागढ़ में भी नही ।
      सड़क सीधे हमे ऊपर चोटी  की ओर ले जा रही थी ।इस बढ़िया सड़क पर कोई पांच किलोमीटर चले होंगे की अचानक सड़क एक बड़े से मोड़ पर घूमी , और .. हमने अपने, को इस सड़क के दोनो ओर बने सुंदर सुंदर कुछ घरों के सामने बना पाया ।मार्ग भी अब सीधा और कम मोड़ों वाला हो गया था ,तभी एक बोर्ड और देखा "" सीमा सशस्त्र संगठन ,ग्वालदम आपका स्वागत करता है ।
      हम हैरान से और आगे बढ़े  ,हमारे एक और तो पहाड़ थे तो दूसरी ओर ,कुछ सरकारी ढंग के पक्के मकान ,कुछ छोटे छोटे पार्क ,तभी हमारी दाईं ओर एक मार्ग ऊपर की ओर जाता दिखाई दिया जो एक बड़े से ,जालीदार गेट से बंद था ,जिसके ऊपर लिखा था "" सीमा सशस्त्र संगठन "" ,साथ ही उसके किनारे बना था उनका प्रतीक चिन्ह ।कुछ और आगे बढ़े तो एक छोटे से चौराहे पर अपने को पाया । कार रोकी ,इधर उधर देखा तो फिर एक बोर्ड दिखा "" गढ़वाल मंडल विकास निगम ,होटल "" । चैन की सांस लेते हम ऊपर की ओर बने इस होटल की तरफ बढ़ गए ।
    स्टाफ के नाम पर तीन चार ही लोग थे.
जब उनसे कोई कमरा खाली है, कहा तो बोले सारे खाली हैं ,क्यों, तो उत्तर मिला ,यहां कभी कभार ही कोई यात्री आते हैं। खैर ,कमरे भी ऐसे थे जैसे किसी साधारण होटल में होते है ।समझ आ गया कि इनकम नही तो मेंटीनेंस भी नही , वरना "" गढ़वाल मंडल विकास निगम के होटल बहुत ही अच्छे ढंग से मेंटेंड होते है । हां ,एक बात और ,कमरे की दशा देख ,हमने उससे फिर पूछा कि भाई ,तुम कोई अच्छा सा होटल हो तो बता दो ,तो उसका उत्तर सुन और हैरान हुए ।नही सर ,यहां कोई और होटल नही है , हां एक आध गेस्ट हाउस से है जिनमे अक्सर ,आस पास और दूर दराज के गांव वाले ,देर हो जाने पर रात बिताते हैं ।ये बात सुन हमने इनका ही कमरा लेने का निश्चय किया ।
     कमरे में हालांकि रजाई ,गद्दे थे ,परंतु आप अब समझ ही सकते हैं कैसे होंगे ।बाथरूम देखा तो पुराना लेकिन चालू हालत में गीजर को देख कुछ तस्सली सी हुई ।बाकी तो रात ही काटनी थी ।
  अब भोजन के बारे में पूछा तो फिर निराश हुए ।हमारे यहां तो कोई व्यवस्था नहीं है ,मगर आप कहें तो नजदीक में खाना खिलाने की दो "" दुकानें "" है ,उनसे कह देंगे तो वो खाना बना देंगे ।पूरी बात ये कि ग्वालदम में रहने एवम खाने का कोई होटल या रेस्टुरेंट ही नही था ।अब मरता क्या ना करता ,इसे हां  कहना पड़ा क्योंकि सुबह का खाना खाया हुआ था इस लिए भूख तो लग ही रही थी ।
    उसने हमारे सामने किसी को फोन किया ,कुछ बातें की ,फिर फोन को होल्ड में रख पूछा  "" आप सब्जी में क्या खाना चाहेंगे "" ! ऑप्शन पूछ बता दिया कि भाई अब जो हो वही बना देना तो फिर उत्तर  आया "" रात के आठ बजे तक दुकान पर आ जाएं ,उसके बाद ,दुकान बंद कर ,हम नजदीक ही अपने गांव वापस जाते है ।
     ठीक है, कह कर घड़ी देखी तो सात बजे थे ,सोचा ,ठंड बहुत लग रही है ,रजाई में घुस कर थोड़ी कमर सीधी कर ली जाए ।अब जानते ही हैं कि गरम रजाई में घुस कर किसे नींद नही आयेगी ।
      कोई साढ़े सात बजे ही होटल का आदमी हमे खाने की याद दिलाने आ गया ।उठने और भोजन में से किसी एक को चुनने की चुनौती में हमने भोजन को ही चुना ,वो किस लिए तो आपको बताते है इस लिए , कि जैसे ही हम रजाई में से निकल ,कमरे से बाहर आए ,हमारे दांत जोर जोर से किटकिटाने लगे ,तेज ठंड ,तेज हवा ने जैसे हमे हिला कर रख दिया ।हालांकि हम सब ने, इनर के साथ साथ गरम कपड़े भी पहने थे ,मगर इस समय सब बेकार लगने लगे थे ।लेकिन भूख के आगे ये ठंड भी बेअसर हो रही थी
     होटल से नीचे उतरते ही सामने ,दो दुकानें खुली दिखाई दी ।एक मोबाइल आदि की थी तो दूसरी गरम जैकेट ,स्वेटर ,टोपी दस्ताने की थी ।मुझे छोड़ ,मेरे सारे साथ "" डिकेथलिन "" कंपनी की एक दम गरम जैकेट पहने हुए थे ,मेरे पास थी नॉर्मल जैकेट । मैं बिना कुछ सोचे ,गरम जैकेट की दुकान में घुस गया  कोई ढंग की जैकेट दिखाओ ,तो , हमें बाहर का देख, उसने " डिकेथलीन " की एक जैकेट निकाल ,मैने जैसे ही उसे पहनी ,एक दम गर्माहट सी आ गई ।कितने की है, तो उसने जो बताया ,हिंदुस्तानी होने के कारण कुछ मोलभाव किया तो वो बोला "" सर , मैने ये जैकेट,केवल दो ही दिल्ली से छह महीने पहले खरीदी थी ,परंतु यहां इसका कोई खरीददार ,अभी तक नहीं मिला , इस लिए वहीं के, रेट लगा रहा हूं ।तो दूसरी दिखाओ , बोला ,एक तो मैने ही पहन रखी है ,ये ही एकमात्र है ।
     चुपचाप , मेने वो जैकेट पहन ली ।बाहर आप कर मेरे साथी बोले ,ऋषि जी ,हमने दिल्ली में इसी भाव, ये जैकेट खरीदी थी , उसने आप से एक पैसा भी ज्यादा नही लिया ।समझ गए कि उसकी ये दूसरी जैकेट का कोई खरीददार उसे छह महीने से नही मिला था ! उसका कारण भी हम जान गए थे !!
     खाने की "" दुकान""  की ओर बढ़े , मैं दुकान इस लिए कह रहा हूं कि दुकान में ही चार मेज कुर्सी डाल कर उसे , खाने के रेस्टोरेंट में बदल दिया गया था । दुकान के शुरू में ही देसी चूल्हा था ,जिसमे एक छोटी सी कढ़ाई में दाल बनी हुई थी ,साथ ही एक बर्तन में कोई, लोकल हरी सब्जी तैयार थी !
      भूख तेज थी इस लिए, स्वाद को भुला कर ,हाथ की बनी रोटियों से पेट भर ,उसे धन्यवाद के साथ, पैसे चुका
 ,बाहर आ गए ।
     बाहर आते ही हड्डी तक भेदने वाली ,बर्फीली हवा से सामना हुआ । मैने मन मन ही मन ,जैकेट वाले को धन्यवाद दिया ,उसके कारण ही मैं इस समय कांपने से बच पा रहा था ।
      विश्वास कीजिए दुकान और हमारे होटल की दूरी पांच सौ मीटर से ज्यादा नही रही होगी ,पर ,वहां तक पहुंचने में हम सबने अपनी पूरी सहन शक्ति को , आजमाने में लगा दिया था ।पिछले कुछ दिनों से हम इस जैसे पहाड़ों में ही घूम रहे थे ,परंतु कहीं भी इतनी भयंकर ठंड से हमारा सामना नहीं हुआ था । जब हम होटल के गेट तक पहुंचें,ऊपर चढ़ ,चारों ओर दृष्टि दौड़ाई तो केवल और केवल अंधेरों में दो चार लाइटें ही जलती दिखाई दी ।अपने आस पास हमे कुछ भी दिखाई नही दे रहा था ।तो  बस अब एक ही काम था ,मुंह ढक के ,रजाई की गर्माहट में ,खो जाना , और वास्तव में हम तुरंत ही निंद्रा देवी के आंचल में खो गए !!
      पहाड़ों में एक बात हमने नोट की थी ,वहां सुबह ,मैदानों की अपेक्षा ,सूरज जल्दी निकल आता है , और तुरंत ही जग जाते हैं वहां पाए जाने वाले पक्षी ।उन्ही एक आध पक्षी की आवाज, से हम सब की आंख खुली ,रजाई के कोने से बाहर झांका ,अरे इतना दिन चढ़ आया ।मेरे साथ सब उठ गए । अब होटल में तो  चाय मिलने का सवाल नहीं था  ,तो निश्चय किया कि उठ गए है तो नीचे "" बाजार "" में शायद कोई चाय की दुकान, जो की पूरे देश में , हर स्थान पर ,हम जैसे चाय प्रेमियों की जरूरत  पूरी करती हैं ,शायद खुली मिल जाए ,ओर वास्तव में हमें दूर एक खुली दिख भी गई !
       अब जैसे ही चाय की तलब मिटाने हम कमरे से बाहर आए ,हमारी आंखे चुंधिया गई। सामने ,एक दम सामने ,हाथ भर की दूरी पर ,  सफेद ,चमकीली बर्फ की चादर दिखाई दी ,साथ ही दिखाई दिए ,विशाल ,गगनचुंबी हिमालय की चोटियां ,जो सुबह के उगते, सूरज की सुनहली किरणों में ऐसे जगमगा रही थी जैसे उन पर सुनहरे सोने के पालिश की गई हो ! हे भगवान ,हम अब तक की अपनी यात्रा में बर्फ लदी चोटियों के इतने समीप कभी नहीं पहुंचे थे ।तो रात की भयंकर ठंड का ये ही कारण था ।
        बाहर निकल ,देखा  कि ग्वालदम तो एक दम बहुत ही छोटा सा स्थान है ।सौ दो सौ की आबादी वाला ,एक ही चौराहा ,बीस तीस दुकान वाला।हमारा होटल शायद ग्वालदम के सबसे ऊंचे स्थान पर था ।यहां से साफ दिखाई दे रहा था कि इस पूरे इलाके की लंबाई करीब आधे किलोमीटर ही होगी ,यानी ये पूरा शहर इतने से ही में बसा हुआ है ।हां ,एक बात ,जो इसे इतना विशिष्ट बनाती है वो है ,सामने दमकते हिमालय की बर्फीली चोटियों से इसकी नजदीकी ! ग्वालदम की ऊंचाई भी नौ हजार फुट के करीब है , और शायद ,हिमालय की चोटियों पर चढ़ने के लिए भी सबसे आखिरी पड़ाव ।इसी कारण हम रात को भयंकर ठंड में जमे जा रहे थे ।अगर ,ग्वालदम में "" सीमा शास्त्र संगठन "" का ट्रेनिंग सेंटर यहां नही होता तो शायद ये ,गुमनामी में ही होता , और हम भी यहां नही आते !!
     सर्दी इतनी अधिक थी ,हमारे आस पास ,कुछ बंदर भी धूप की ओर मुंह किए ,अपने बालों को फुलाए चुपचाप ,धूप सेंक रहे थे और पहली ही बार महसूस किया कि ठंड के मारे शायद पक्षी भी चुपचाप बैठे थे ।
       हम होटल से बाहर निकले ,सामने खुली एक छोटी सी दुकान से चाय पी ,चौराहे के आस पास बनी एक छोटी सी लोकल मार्केट में घूमे ,कुछ दूर ,इधर ,उधर पैदल घूमे ,फिर वापस अपने होटल में स्नान ध्यान को लौट आए ।
      मेरे विचार से कोई नवविवाहित कपल्स अगर हनीमून के लिए पहाड़ों पर जाने का प्रोग्राम बना रहें हों ,तो चहल पहल ,भीड़ भरे हिल स्टेशन ,मंसूरी ,शिमला या नैनीताल की जगह ,वे यहां ग्वालदम आ जाएं तो शायद इतनी शांति ,अकेलापन ,उन्हे , उम्र स्मरण रहेगा !!
       दस बजते बजते हम ग्वालदम से विदा ले ,अपनी आगामी मंजिल "" अल्मोड़ा "" की ओर चल पड़े ।

     ( क्रमश : : शेष अगले भाग में )