सोमवार, 12 दिसंबर 2022

यात्रा ....उत्तराखंड : : गवालदम

c       पाताल भुवनेश्वरी से ग्वालदम जाने के लिए हमारे पास दो कारण थे ,पहला ये कि हमे यात्रा के अंत में देहरादून जाना था ,जिसके लिए दो रास्ते थे जिनमे एक तो बद्रीनाथ, केदारनाथ वाला हाई वे, जो सीधे ऋषिकेश से होता हुआ देहरादून जाता था तो दूसरा रास्ता कर्ण प्रयाग से अल्मोड़ा ,रानीखेत ,कौसानी, नैनीताल  होते हुए ऋषिकेश से निकलते हुए देहरादून तक जाता था ।अब चूंकि हम ने निर्णय किया हुआ था कि इस उत्तराखंड की यात्रा में हम मुख्य मार्गों से नही जा कर ,इसके उन मार्गो से गुजरेंगे जो उत्तराखंड के अधिकांश शहरों में से होता हुआ जाता हो, और  जो सेलनियो की रेल पेल  दूर हों । इस लिए हमने  कर्ण प्रयाग से हो कर अल्मोड़ा से निकलने वाले मार्ग को चुना ! इस मार्ग को गुगल बाबा के मैप से देखते हुए जानकारी हुई कि इसके मार्ग में ग्वालदम नामका एक प्रमुख हिल स्टेशन भी मिलता है ।
      एक बार मेरी नजरो से उत्तराखंड के पर्यटन विभाग का नक्शा गुजरा था, जिसमे ग्वालदम को एक अनोखा , अछूता ,बर्फीली वादियों में छुपा ,शांत हिल स्टेशन बताया गया था ।ये और बात थी कि ये हिल स्टेशन इतने विरल मार्ग में पड़ता था कि शायद आम सैलानी यहां तक आने की हिम्मत ही नहीं कर पाते होंगे ।वो तो नैनीताल ,अल्मोड़ा आदि स्थानों पर घूमने से संतुष्ट हो जाते हैं।परंतु हम थे पक्के ,मजबूत इरादों वाले घुमक्कड़ प्राणी ।इसीलिए हमने ये दुरूह ,विरल मार्ग ही चुना ,ताकि एक बार में ही ये सारे हिल स्टेशन हमारी पहुंच में हो जाएं !
       अभी दोपहर के तीन के करीब बजे थे ,आशा थी कि हम ,अंधेरा होने तक ग्वालदम पहुंच जायेंगे ।पूर्व की यात्राओं की  तरह टेढ़े मेढे मार्गों से निकलते हुए कोई ,शाम के पांच बजे हम कर्ण प्रयाग पहुंचे ।अभी आगे और जाना था ,इस लिए समीप की चाय की दुकान से गरमागरम चाय और  समोसो से अपनी ताजगी को फिर से संजोते, हम तुरंत ही चल पड़े ग्वालदम की और ।
     आरंभ में तो सुखद आश्चर्य हुआ कि वाह ,बड़ी ही चौड़ी ,नई द्विमार्गीय सड़क है ,तो शाम होने से पहले ही ग्वालदम पहुंच जायेंगे ।लगभग अभी बीस किलोमीटर की दूरी पूरी की थी कि अचानक सड़क एक बहुत ही छोटी सी सड़क में बदल गई ।अभी कुछ और सोचते, ये सड़क हमे साथ चलते पहाड़ों की चोटियों पर ले जाने लगी ।कुछ और आगे बढ़े तो लगा कि हम दो पहाड़ों के ठीक बीच में एक बहुत ही संकरी सी घाटी में हो कर निकल रहे हैं।मार्ग इतना कठिन था कि हमारी कार की गति बीस किलोमीटर से अधिक ,नही पकड़ पा  रही थी । इस रास्ते में न तो कोई गांव हमे दिखाई दिया और ना ही कोई वाहन आता जाता मिला ।हम सब चुपचाप इस बहुत ही अनोखे मार्ग से गुजरते हुए सोच विचार में डूबे हुए थे कि अब तक के पूरे सफर में हमें  इतनी निर्जंता शायद ही मिली होगी ।
      चलते चलते शाम गहरी होने लगी ,कोई दो घंटे और बीते कि तभी एक बड़ा सा मोड़ सामने नजर आया, जिसके किनारे एक बड़ा बोर्ड लगा था "" दाईं ओर अल्मोड़ा सत्तर किलोमीटर ,बाईं ओर ग्वालदम छः किलोमीटर ""! हम एक अनोखी खुशी से उछल पड़े ,अरे इतना पास आ गया ग्वालदम ! कार जैसे ही हमने बाईं ओर मोडी ,सड़क एक दम चौड़ी ,फर्स्ट क्लास बनी हुई दिखाई दी ।विश्वास कीजिए अभी तक की हमारी यात्रा में इतनी बढ़िया सड़क हमे नही मिली थी ,पिथौरागढ़ में भी नही ।
      सड़क सीधे हमे ऊपर चोटी  की ओर ले जा रही थी ।इस बढ़िया सड़क पर कोई पांच किलोमीटर चले होंगे की अचानक सड़क एक बड़े से मोड़ पर घूमी , और .. हमने अपने, को इस सड़क के दोनो ओर बने सुंदर सुंदर कुछ घरों के सामने बना पाया ।मार्ग भी अब सीधा और कम मोड़ों वाला हो गया था ,तभी एक बोर्ड और देखा "" सीमा सशस्त्र संगठन ,ग्वालदम आपका स्वागत करता है ।
      हम हैरान से और आगे बढ़े  ,हमारे एक और तो पहाड़ थे तो दूसरी ओर ,कुछ सरकारी ढंग के पक्के मकान ,कुछ छोटे छोटे पार्क ,तभी हमारी दाईं ओर एक मार्ग ऊपर की ओर जाता दिखाई दिया जो एक बड़े से ,जालीदार गेट से बंद था ,जिसके ऊपर लिखा था "" सीमा सशस्त्र संगठन "" ,साथ ही उसके किनारे बना था उनका प्रतीक चिन्ह ।कुछ और आगे बढ़े तो एक छोटे से चौराहे पर अपने को पाया । कार रोकी ,इधर उधर देखा तो फिर एक बोर्ड दिखा "" गढ़वाल मंडल विकास निगम ,होटल "" । चैन की सांस लेते हम ऊपर की ओर बने इस होटल की तरफ बढ़ गए ।
    स्टाफ के नाम पर तीन चार ही लोग थे.
जब उनसे कोई कमरा खाली है, कहा तो बोले सारे खाली हैं ,क्यों, तो उत्तर मिला ,यहां कभी कभार ही कोई यात्री आते हैं। खैर ,कमरे भी ऐसे थे जैसे किसी साधारण होटल में होते है ।समझ आ गया कि इनकम नही तो मेंटीनेंस भी नही , वरना "" गढ़वाल मंडल विकास निगम के होटल बहुत ही अच्छे ढंग से मेंटेंड होते है । हां ,एक बात और ,कमरे की दशा देख ,हमने उससे फिर पूछा कि भाई ,तुम कोई अच्छा सा होटल हो तो बता दो ,तो उसका उत्तर सुन और हैरान हुए ।नही सर ,यहां कोई और होटल नही है , हां एक आध गेस्ट हाउस से है जिनमे अक्सर ,आस पास और दूर दराज के गांव वाले ,देर हो जाने पर रात बिताते हैं ।ये बात सुन हमने इनका ही कमरा लेने का निश्चय किया ।
     कमरे में हालांकि रजाई ,गद्दे थे ,परंतु आप अब समझ ही सकते हैं कैसे होंगे ।बाथरूम देखा तो पुराना लेकिन चालू हालत में गीजर को देख कुछ तस्सली सी हुई ।बाकी तो रात ही काटनी थी ।
  अब भोजन के बारे में पूछा तो फिर निराश हुए ।हमारे यहां तो कोई व्यवस्था नहीं है ,मगर आप कहें तो नजदीक में खाना खिलाने की दो "" दुकानें "" है ,उनसे कह देंगे तो वो खाना बना देंगे ।पूरी बात ये कि ग्वालदम में रहने एवम खाने का कोई होटल या रेस्टुरेंट ही नही था ।अब मरता क्या ना करता ,इसे हां  कहना पड़ा क्योंकि सुबह का खाना खाया हुआ था इस लिए भूख तो लग ही रही थी ।
    उसने हमारे सामने किसी को फोन किया ,कुछ बातें की ,फिर फोन को होल्ड में रख पूछा  "" आप सब्जी में क्या खाना चाहेंगे "" ! ऑप्शन पूछ बता दिया कि भाई अब जो हो वही बना देना तो फिर उत्तर  आया "" रात के आठ बजे तक दुकान पर आ जाएं ,उसके बाद ,दुकान बंद कर ,हम नजदीक ही अपने गांव वापस जाते है ।
     ठीक है, कह कर घड़ी देखी तो सात बजे थे ,सोचा ,ठंड बहुत लग रही है ,रजाई में घुस कर थोड़ी कमर सीधी कर ली जाए ।अब जानते ही हैं कि गरम रजाई में घुस कर किसे नींद नही आयेगी ।
      कोई साढ़े सात बजे ही होटल का आदमी हमे खाने की याद दिलाने आ गया ।उठने और भोजन में से किसी एक को चुनने की चुनौती में हमने भोजन को ही चुना ,वो किस लिए तो आपको बताते है इस लिए , कि जैसे ही हम रजाई में से निकल ,कमरे से बाहर आए ,हमारे दांत जोर जोर से किटकिटाने लगे ,तेज ठंड ,तेज हवा ने जैसे हमे हिला कर रख दिया ।हालांकि हम सब ने, इनर के साथ साथ गरम कपड़े भी पहने थे ,मगर इस समय सब बेकार लगने लगे थे ।लेकिन भूख के आगे ये ठंड भी बेअसर हो रही थी
     होटल से नीचे उतरते ही सामने ,दो दुकानें खुली दिखाई दी ।एक मोबाइल आदि की थी तो दूसरी गरम जैकेट ,स्वेटर ,टोपी दस्ताने की थी ।मुझे छोड़ ,मेरे सारे साथ "" डिकेथलिन "" कंपनी की एक दम गरम जैकेट पहने हुए थे ,मेरे पास थी नॉर्मल जैकेट । मैं बिना कुछ सोचे ,गरम जैकेट की दुकान में घुस गया  कोई ढंग की जैकेट दिखाओ ,तो , हमें बाहर का देख, उसने " डिकेथलीन " की एक जैकेट निकाल ,मैने जैसे ही उसे पहनी ,एक दम गर्माहट सी आ गई ।कितने की है, तो उसने जो बताया ,हिंदुस्तानी होने के कारण कुछ मोलभाव किया तो वो बोला "" सर , मैने ये जैकेट,केवल दो ही दिल्ली से छह महीने पहले खरीदी थी ,परंतु यहां इसका कोई खरीददार ,अभी तक नहीं मिला , इस लिए वहीं के, रेट लगा रहा हूं ।तो दूसरी दिखाओ , बोला ,एक तो मैने ही पहन रखी है ,ये ही एकमात्र है ।
     चुपचाप , मेने वो जैकेट पहन ली ।बाहर आप कर मेरे साथी बोले ,ऋषि जी ,हमने दिल्ली में इसी भाव, ये जैकेट खरीदी थी , उसने आप से एक पैसा भी ज्यादा नही लिया ।समझ गए कि उसकी ये दूसरी जैकेट का कोई खरीददार उसे छह महीने से नही मिला था ! उसका कारण भी हम जान गए थे !!
     खाने की "" दुकान""  की ओर बढ़े , मैं दुकान इस लिए कह रहा हूं कि दुकान में ही चार मेज कुर्सी डाल कर उसे , खाने के रेस्टोरेंट में बदल दिया गया था । दुकान के शुरू में ही देसी चूल्हा था ,जिसमे एक छोटी सी कढ़ाई में दाल बनी हुई थी ,साथ ही एक बर्तन में कोई, लोकल हरी सब्जी तैयार थी !
      भूख तेज थी इस लिए, स्वाद को भुला कर ,हाथ की बनी रोटियों से पेट भर ,उसे धन्यवाद के साथ, पैसे चुका
 ,बाहर आ गए ।
     बाहर आते ही हड्डी तक भेदने वाली ,बर्फीली हवा से सामना हुआ । मैने मन मन ही मन ,जैकेट वाले को धन्यवाद दिया ,उसके कारण ही मैं इस समय कांपने से बच पा रहा था ।
      विश्वास कीजिए दुकान और हमारे होटल की दूरी पांच सौ मीटर से ज्यादा नही रही होगी ,पर ,वहां तक पहुंचने में हम सबने अपनी पूरी सहन शक्ति को , आजमाने में लगा दिया था ।पिछले कुछ दिनों से हम इस जैसे पहाड़ों में ही घूम रहे थे ,परंतु कहीं भी इतनी भयंकर ठंड से हमारा सामना नहीं हुआ था । जब हम होटल के गेट तक पहुंचें,ऊपर चढ़ ,चारों ओर दृष्टि दौड़ाई तो केवल और केवल अंधेरों में दो चार लाइटें ही जलती दिखाई दी ।अपने आस पास हमे कुछ भी दिखाई नही दे रहा था ।तो  बस अब एक ही काम था ,मुंह ढक के ,रजाई की गर्माहट में ,खो जाना , और वास्तव में हम तुरंत ही निंद्रा देवी के आंचल में खो गए !!
      पहाड़ों में एक बात हमने नोट की थी ,वहां सुबह ,मैदानों की अपेक्षा ,सूरज जल्दी निकल आता है , और तुरंत ही जग जाते हैं वहां पाए जाने वाले पक्षी ।उन्ही एक आध पक्षी की आवाज, से हम सब की आंख खुली ,रजाई के कोने से बाहर झांका ,अरे इतना दिन चढ़ आया ।मेरे साथ सब उठ गए । अब होटल में तो  चाय मिलने का सवाल नहीं था  ,तो निश्चय किया कि उठ गए है तो नीचे "" बाजार "" में शायद कोई चाय की दुकान, जो की पूरे देश में , हर स्थान पर ,हम जैसे चाय प्रेमियों की जरूरत  पूरी करती हैं ,शायद खुली मिल जाए ,ओर वास्तव में हमें दूर एक खुली दिख भी गई !
       अब जैसे ही चाय की तलब मिटाने हम कमरे से बाहर आए ,हमारी आंखे चुंधिया गई। सामने ,एक दम सामने ,हाथ भर की दूरी पर ,  सफेद ,चमकीली बर्फ की चादर दिखाई दी ,साथ ही दिखाई दिए ,विशाल ,गगनचुंबी हिमालय की चोटियां ,जो सुबह के उगते, सूरज की सुनहली किरणों में ऐसे जगमगा रही थी जैसे उन पर सुनहरे सोने के पालिश की गई हो ! हे भगवान ,हम अब तक की अपनी यात्रा में बर्फ लदी चोटियों के इतने समीप कभी नहीं पहुंचे थे ।तो रात की भयंकर ठंड का ये ही कारण था ।
        बाहर निकल ,देखा  कि ग्वालदम तो एक दम बहुत ही छोटा सा स्थान है ।सौ दो सौ की आबादी वाला ,एक ही चौराहा ,बीस तीस दुकान वाला।हमारा होटल शायद ग्वालदम के सबसे ऊंचे स्थान पर था ।यहां से साफ दिखाई दे रहा था कि इस पूरे इलाके की लंबाई करीब आधे किलोमीटर ही होगी ,यानी ये पूरा शहर इतने से ही में बसा हुआ है ।हां ,एक बात ,जो इसे इतना विशिष्ट बनाती है वो है ,सामने दमकते हिमालय की बर्फीली चोटियों से इसकी नजदीकी ! ग्वालदम की ऊंचाई भी नौ हजार फुट के करीब है , और शायद ,हिमालय की चोटियों पर चढ़ने के लिए भी सबसे आखिरी पड़ाव ।इसी कारण हम रात को भयंकर ठंड में जमे जा रहे थे ।अगर ,ग्वालदम में "" सीमा शास्त्र संगठन "" का ट्रेनिंग सेंटर यहां नही होता तो शायद ये ,गुमनामी में ही होता , और हम भी यहां नही आते !!
     सर्दी इतनी अधिक थी ,हमारे आस पास ,कुछ बंदर भी धूप की ओर मुंह किए ,अपने बालों को फुलाए चुपचाप ,धूप सेंक रहे थे और पहली ही बार महसूस किया कि ठंड के मारे शायद पक्षी भी चुपचाप बैठे थे ।
       हम होटल से बाहर निकले ,सामने खुली एक छोटी सी दुकान से चाय पी ,चौराहे के आस पास बनी एक छोटी सी लोकल मार्केट में घूमे ,कुछ दूर ,इधर ,उधर पैदल घूमे ,फिर वापस अपने होटल में स्नान ध्यान को लौट आए ।
      मेरे विचार से कोई नवविवाहित कपल्स अगर हनीमून के लिए पहाड़ों पर जाने का प्रोग्राम बना रहें हों ,तो चहल पहल ,भीड़ भरे हिल स्टेशन ,मंसूरी ,शिमला या नैनीताल की जगह ,वे यहां ग्वालदम आ जाएं तो शायद इतनी शांति ,अकेलापन ,उन्हे , उम्र स्मरण रहेगा !!
       दस बजते बजते हम ग्वालदम से विदा ले ,अपनी आगामी मंजिल "" अल्मोड़ा "" की ओर चल पड़े ।

     ( क्रमश : : शेष अगले भाग में )

बुधवार, 20 अप्रैल 2022

कहानी ..............मेहमान

    "" अरे शर्मा जी ,आपके मेहमान गए क्या "? " मेहमान" शब्द सुनते ही जैसे आश्चर्य और  धक्का सा लगा ।" वो कुछ दिनों से आप घूमने नही आ रहे थे तो आपके पड़ोसी वर्मा जी ने बताया था कि आपके यहां मेहमान  आए हुए हैं "! अरे नही ,बच्चे आए हुएं  थे , मैने हंसते हुए जवाब दिया ।
      मन अतीत में पहुंच गया ।वर्षों पूर्व जब मेरे माता पिता आए हुए थे तो हमारी मेड ने भी यही कहा था कि कब जायेंगे ये मेहमान ,तो मेरी माताजी बहुत नाराज हुई थी ,क्यों भई ,हम क्या मेहमान हैं तुम्हारे ? बड़ी ही कठिनाई से ,मेड को डांटते हुए उन्हें समझाया था , कि नही नहीं ये नासमझ है ।
       आज के दौर में अब महसूस होने लगा है कि वास्तव में ,ये मेहमान ही तो हैं ,कुछ दिनों के लिए आते हैं ,घूमते फिरते हैं फिर अपने मुकाम पर वापस चले जाते है ,बिल्कुल मेहमानों की ही तरह !!
     मन अब कहीं अधिक अतीत में गहरे डूबने लगा था ।जब ये बच्चे छोटे छोटे थे तो ,इनसे खेलने ,खाने ,इनकी रोजमर्रा की छोटी छोटी जरूरतें पूरी करते करते ,ना जाने दिन कब फुर्र हो जाता था ।फिर स्कूल छोड़ने ,लाने ,उनके होमवर्क करते ,उनके लंच बेग लगाते , अस्तव्यस्त घर, कपडों ,को सहेजते कभी कभी मन झुंझला जाता कि जाने कब ये इतने बड़े होंगे कि इन सब कामों से मुक्ति मिलेगी ।परंतु ये भी अच्छी ही तरह याद है कि शाम को भोजन के बाद सोने के लिए जब वे मुझसे चिपटते ,कहानी सुनने की जिद करते तो दिन भर की थकान भूलकर एक अनमोल खुशी का अहसास होता जो आज भी मेरे मन मस्तिष्क में कहीं अमिट जिंदा है। हां ,तब कभी कभी पत्नी समझाती कि ये हमारा गोल्डन टाइम है ,इसे इंजॉय करो ।जब इनके पंख निकल जायेंगे तो ये उड़ जायेंगे ,बरामदे में बने गौरैया के घोंसले में चहचहाते बच्चों की तरह जो हर साल पंखों में ताकत आते ही घोंसलों से उड़ जाते जाते हैं कभी वापस नहीं आने के लिए ।
  और फिर सच में बच्चे बड़े होते ही कालेज में पहुंच गए।फिर पढ़ाई पूरी होते ही दूसरे शहर में चले गए, अपने भविष्य बनाने के लिए ,नौकरी ढूंढने के लिए ।शीघ्र ही उनकी नौकरी भी लग गई ,महीने दो महीने में , वीकेंड पर कभी आते ,कभी दो चार दिन ज्यादा रहते ,प्रवासी पक्षियों की तरह, शायद रिश्तों की एक महीन लेकिन मजबूत डोर ,उन्हे हमसे बांधे हुए थी ।     कुछ और समय बीता ,अब वे अपनी अपनी दुनिया में पूरी तरह रंग चुके थे ,लगता है वर्मा जी ठीक ही कह रहे थे ,वे अब "" मेहमान "" हो गए थे ,!! कितना सही कहा था वर्मा जी ने ।
      पिछले कुछ दिनों से बच्चे आए हुए थे ।घर भरा पूरा सा लग रहा था । हर तरफ चहल पहल थी ।समय मानो पंख लगा कर उड़ रहा था 
      फिर उनके जाने की ,वापस लौटने की तयारी होने लगी ।सब अपने आप में व्यस्त थे।नन्हे पोते , पोती ,बार बार अपनी चीजों के बारे में पूछते ,मम्मी ,मेरा रुमाल नही मिल रहा है ,पापा मेरी बेल्ट ढूंढ दो ना !! मैं और पत्नी मूक बने, सब देख सुन रहे थे ।
    अब ! उनके जाने के बाद घर में सन्नाटा पसरा था।सब चीजें अपनी अपनी जगह पर थी।मन एक अवसाद में घिर गया।वर्षों पहले उनके जाने के बाद ,घर अस्तव्यस्त पड़ा रहता था कुछ दिन उन्हे समेटने में लग जाते ,फिर हर कोने में ,हर अलमारी में उनके होने का अहसास होता,पर अब चलते चलते वे हर चीज व्यस्थित कर जाते ,यहां तक कि बिस्तर की चादर भी ठीक से सहेज जाते !जब कभी हम उन्हे ये सब करने को रोकते ,तो वो कहते ,अरे अब आपकी उम्र हो गई है ,आप इतना सब कैसे कर पायेंगे ।तब फिर से, वर्मा जी के शब्द कानों में गूंजने लगते । सच ,मेहमान भी तो वापस जाते जाते , हर चीज पहले की ही तरह सहेज कर जाते हैं।
    अपने गंतव्य स्थान पर पहुंच ,बच्चे फोन पर एक ही वाक्य कहते "" ठीक से पहुंच गए है ,बाकी बात बाद में करेंगे "" फिर फोन बंद !
       तभी मुझे याद आया "" पापा ,मेरा सेलेक्सन हो गया है "" उनकी आवाज में जो खुशी टपक रही थी ,जिस तरह से वे चहक रहे थे ,उसे आज, फिर से एक बार याद करके, मन एक दम प्रसन्न हो गया ।सारा अवसाद दूर हो गया ! 
    अब मैं सोच रहा हूं की हम भी कितने मूर्ख हैं ।बच्चे अपना बेहतर मुकाम हासिल करने के लिए ही तो उड़ान भर रहे हैं ,जिससे वे अपनी पहचान बना सकें और हमारी पहचान में इजाफा हो सके।सबसे बड़ी बात ,उनका हमसे मिलने आना ,केवल आकर्षण नही ,हमारे प्रति उनका दि लगाव है !!
      अब हम पूर्णतः आश्वस्त हैं ,मोह के बंधन धीरे धीरे ढीले पड़ने लगे है । कहीं ना कहीं अब मन को ये समझ आने लगा है कि बच्चे तो पंछी हैं,पंख निकलते ही उड़ने लगते हैं ।
     अब अंतर्मन से ये ही आवाज निकलती है।                                        ** जहां भी रहो ,खुश रहो ** !!

     

रविवार, 13 मार्च 2022

यात्रा .........तुलजा भवानी..!!

                                                     

  
         शोलापुर शहर की सीमा समाप्त होते होते शाम के साढ़े चार के लगभग समय हो गया।हमारा पूर्व का कार्यक्रम कि हम रात्रि नौ बजे तक वापस पूना घर लोट आयेंगे ,इस शोलापुर के चक्कर में ध्वस्त हो गया, था। खैर , अब हम तेजी से तुलजा भवानी की ओर बढ़े जा रहे थे ! वहां पहुंचते पहुंचते शाम के छः बज गए ।हमारी आशा के विपरीत तुलजा भवानी काफी बड़ा शहर दिखाई दिया ।हम गुगल मैप की सहायता से ऐन तुलजा मंदिर के सामने के मार्ग पर जा पहुंचे ।शाम का झुटपुटा, अंधेरों में बदलने लगा था ।तभी हमारी कार को दो गार्डों ने रोक दिया ।कारण पूछने पर बोले " पार्किंग के पचास रुपए दीजिए ," हमने कहा पार्किंग किधर है तो बोले आगे कहीं भी कार खड़ी करदीजिए ।हम हैरान हुए ,सामने एक संकरा सा बाजार था जैसा कि प्रायः धार्मिक शहरों में होता है।हमारे ये कहने पर कि सामने पार्किंग तो दिखाई ही नहीं दे रही ,ये तो बाजार है ,हम रुपए नही देंगे ,तो बोले फिर आप अंदर प्रवेश नही कर सकते ।अब इस जबरदस्ती की वसूली से निराश होते हुए आखिर कार रुपए देने ही पड़े, क्योंकि हम लोकल नही थे। खैर , कार आगे बढ़ाई तो पार्किंग का कोई स्थान ही नहीं था ,आखिर कार एक दुकान के आगे रोकी और दुकानदार के चिक चिक करने के बावजूद हम कार खड़ी कर के आगे बढ़ गए !

                                                        


     लगभग तीन सौ मीटर संकरे ,व्यस्त ,धार्मिक पूजा पाठ ,प्रसाद से भरी दुकानों से होते हुए आगे बढ़े कि अचानक संकरे मार्ग के अंत में एक बड़ा खुला प्रांगण आ गया ,जिसके तीन ओर धार्मिक सामग्रियों से भरी दुकानें थी ,तथा ठीक सामने किले नुमा मंदिर का विशाल दरवाजा था जो रंग बिरंगी लाइटों से चमक रहा था ।उसके ठीक बगल में तीन मंजिला एक विशाल आधुनिक होटल नुमा इमारत थी ,उस के ठीक नीचे तलघर में एक ढलान दार दरवाजा था जहां मराठी भाषा में कई सारे बोर्ड लगे हुए थे ।अब भाषा से अनभिज्ञ होते हुएं,जब किले नुमा विशाल दरवाजे के पास अंदर प्रवेश करने हेतु पहुंचे तो फिर मंदिर के गार्डों ने रोक दिया ।वे मराठी में कुछ कह  रहे थे ,और हम अनपढ़ों की तरह उन्हें देख रहे थे,हमारी समझ में कुछ नही आ रहा था,जबकि तमाम सारे दर्शनार्थी उसके अंदर प्रवेश कर रहे थे ।दरवाजे के सामने विशाल प्रांगण ,ढेर सारे यात्रियों से लबालब भरा था ।तभी हमारे सामने कई सारे धोती कुर्ता पहने पंडित पुजारी आ गए ,और हिंदी में कहने लगे ,पहले होटल नुमा इमारत के तलघर में जा कर यात्रा पास लेकर आइए जो कि एकदम मुफ्त है ।हमारी हैरानी की सीमा ही नही थी कि भाई ,अगर प्रवेश मुफ्त है तो किस बात का मुफ्त कार्ड ! मैं भारत के लगभग उत्तर से लेकर धुर दक्षिण तक प्रत्येक धार्मिक ,ऐतिहासिक एवम अन्य प्रकार के कई स्थानों में जा चुका हूं और प्रत्येक जगह टिकट के लिए ही लाइन लगती थी परंतु यहां मुफ्त के लिए ही लाइन लग रही है । 

                                                        


        भारी भीड़ ,लंबी लंबी लाइनें देख हमने फिर पूछा कि क्या कोई शुल्क देकर मंदिर जो कि एक विशाल किले जैसा ही था ,में प्रवेश लिया जा सकता है तो बोले हां ,और फिर एक ओर ओर संकेत किया।तभी वे सारे बोल उठे ,अरे हम आपको सीधे दर्शन करा देंगे ,पूजा भी करा देंगे ,बस आप पांच सौ रुपए दे दें ! मैं हमेशा ऐसे पंडो के विरुद्ध रहा  हूं ,इस लिए उन्हें इनकार करके शुल्क वाली खिड़की की ओर चल दिया ,लेकिन ये क्या! वो तो बंद थी ,पूछताछ करने पर ज्ञात हुआ कि शुल्क वाले दर्शन केवल शाम छः बजे तक ही हो सकते हैं ,तो अब हमारे पास दो ही मार्ग थे ,या तो उन पंडे पुजारियों के साथ प्रवेश करें  अथवा मुफ्त की टिकट हेतु लंबी पंक्ति में खड़े होना, और हमने पंक्ति में खड़े होना ही चुना ! ! 

                                                        

      काफी देर बाद जब हमारा नंबर आया तो खिड़की के अंदर से कहा गया ,थोड़ा सामने इस एंगल में खड़े होइए,हम आपकी सामने लगे कैमरे से फोटो खींचेंगे ,उसके बाद उन्होंने हमारा मोबाइल नंबर पूछा फिर एक बड़ा सा कार्ड हमे दे दिया ,जिस पर छोटे छोटे ढेर सारे ,कंप्यूटर की कोड भाषा में लिखी पर्चियां चुपकी हुई थी,परंतु हमारी खींची फोटो लगी ही नहीं थी ।कार्ड देख कर प्रतीत हो गया था कि इसका प्रयोग कई बार हो चुका है क्योंकि एक तो वो पुराना था ,दूसरे पुरानी कई पर्चियां उस पर चुपकी हुई थी ! खैर ,कार्ड लेकर हम दरवाजे पर पहुंचे तो हमारा कार्ड हम से ले लिया गया , और हम अंदर प्रवेश कर गए ।

                                                    

          मंदिर के विशाल किलेनुमा दरवाजे के अंदर जैसे ही हमने प्रवेश किया ,हमे समझ में आ गया ये  किले नुमा नही ,वास्तव में एक विशाल किले का विशाल दरवाजा है।ठीक इसके बाद चौड़ी चौड़ी सीढियां सीधे नीचे लगभग दस मीटर तक उतर रही थी ।जगह जगह सुरक्षा के लिए केमरे लगे हुए थे ,साथ ही थोड़ी थोड़ी दूर पर सुरक्षा कर्मचारी खड़े हुए थे ।स्पष्ट था कि ये मंदिर एक विशाल किले का ही भाग है ,और उसका प्रत्येक निर्माण किले के अनुसार ही बनाया गया था।नीचे उतरते ही यात्रियों के मार्ग दर्शन के लिए   बोर्ड लगे हुए थे ।हैरानी की बात थी की इतनी शाम को भी पूरा मंदिर ,नही नही पूरा किला यात्रियों से भरा हुआ था परंतु वे वास्तव में दर्शनार्थी ही थे ,यात्री नही जो केवल किले को देखने आए है।दर्शनार्थियों में बच्चे ,बूढ़े ,जवान ,महिलाए जो पारंपरिक साड़ी में थी ,वापस आते यात्रियों के समूह जिनके हाथों में पूजा की थालियां ,माथे पर बड़े बड़े टिके ,तिलक लगे हुए एक अलग ही दृश्य पैदा कर रहे थे ।एक बात और ,शायद इन यात्रियों में हमें छोड़ कर लगभग सभी महाराष्ट्रीयन ही थे ,ये स्पष्ट था।बाईं तरफ कुछ सीढियां जा रही थी और लगभग सभी यात्री उनके ऊपर पंक्ति बनाए धीरे धीरे सरक रहे थे।सुरक्षा कर्मी जो शायद हमारी हिंदी में बोलने के कारण कुछ विशेष सहयोग दे रहे थे ,ने बताया कि ये मार्ग नीचे बने एक तालाब की ओर जा रहा है जहां सारे यात्री माता तुलजा भवानी के दर्शनों से पहले तालाब में हाथ मुंह धोते है।अब इतनी भीड़ देख कर ,साथ ही हम तो केवल पर्यटन एक थोड़ी सी ही श्रद्धा होने के कारण उधर न जा कर सीधे आगे बढ़ गए।हमारे चारों ओर बड़े बड़े गलियारे ,जिनमे छोटी बड़ी कोठरियां बनी थी ,जिनमे कुछ ही में मंदिर संबंधी कार्यालय बने हुए थे।
                                                        



        थोड़ा आगे बढ़ते ही पुनः काफी नीचे उतरने के लिए बड़ी बड़ी सीढियां दिखाई दी।एक बात और ,किले की विशाल दीवारें ,परकोटे ,,कोठरियां ,सब के सब बड़े बड़े आयताकार पथरों से निर्मित थे ,जिनका रंग समय की मार के कारण काला ,भूरा हो चुका था परंतु आधुनिक काल में उनका रंग ,बड़ी बड़ी ,रंग बिरंगी ,झिलमिलाती लाइटों के कारण दब सा गया था। फिर भी किले की प्राचीनता ,विशालता , हमें ये अहसास दिलाने लगी थी कि हम बीसवीं ,नही ,पंद्रहवीं शताब्दी के शिवाजी काल में थे।इसकी प्राचीनता में इतना अधिक आकर्षण था कि हम उसमें शायद डूबते ,उतरते से लग रहे थे ।इसी आकर्षण में समाते ,धीरे धीरे भीड़ का अंश बनते बनाते, कभी  बाएं ,कभी दाएं ,ऊपर नीचे चलते ,कई अन्य विशाल परकोटे से निकलते आखिर कार ठीक मध्य में निर्मित एक विशाल पत्थरों से निर्मित मंदिर के जो की अपने चारों ओर लगी हुई दर्शनार्थियों की , पंक्तियों से सराबोर ,पूजा ,गायन के स्वरों से गूंजते  ,सामने पहुंच गए ।उसके चारों ओर निर्मित छोटे खुले बरामदे नुमा अनेकों कोठरियां ,जिनमे अधिकांश में पंडे पुजारी ,पूजन सामग्री से ,प्रत्येक यात्री को मराठी भाषा में बुलाते दृष्टिगोचर हो रहे थे ।चारों ओर छोटी बड़ी टीवी स्क्रीन लगी हुई थी जिनमे माता तुलजा भवानी की काले रंग के पत्थर  से बनी ,फूल मालाओं से सजी ,बड़े से मुकुट पहने दिखाई दे रही थी।इस मंदिर के चारों ओर बुजुर्ग ,महिलाए ,बच्चे जो शायद भीड़ के दवाब के कारण, तो कुछ हम जैसे इतनी भीड़ को देख कर दर्शन करें या नही ,इसी सोच विचार में डूबे हुए बैठे थे ।किशोर लड़के लड़कियां सब ओर से बेपरवाह अपनी दुनिया में मस्त ,मोबाइल से सेल्फी लेते इधर उधर घूम रहे थे ।इतनी अधिक भीड़ को देख कर हमारे हौंसले पस्त से हो रहे थे ।
                                                


            अनेकों सुरक्षा कर्मियों से जल्दी दर्शन करने का अनुरोध जब व्यर्थ हो गया तो हम पंडे पुजारियों की शरण में जाने को विवश हो गए ।"" पांच सौ रुपए लगेंगे ,हम आपकी पूजा करा देंगे "" स्पष्ट था कि वो दर्शन कराने का , सरल मार्ग भी बताने को तैयार थे।अब ये सब तो आप जानते ही हैं कि उत्तर भारत के लगभग प्रत्येक मंदिर में भारी भीड़ में यही व्यवस्था ,दर्शनों की सहूलियत प्रदान करती है ,अतः पांच सौ नकद दे कर ,पूजा का आडंबर जिसमे माथे पर तिलक लगाने से लेकर पूजा की थाली में पूजन सामग्री  शामिल थी ,वे हमे सुरक्षा गार्ड के कानों में गुप्त मंत्र फूंक कर ,अपेक्षाकृत एक छोटे मार्ग से ,ठीक मुख्य मूर्ति के आगे लगी पंक्ति में शामिल करके ,कुछ ही मिनटों में देवी तुलजा भवानी की मूर्ति के समक्ष खड़ा कर गए ।अब देवी तुलजा भवानी की मूर्ति को जब तक हम निहारते कि बगल में खड़े सुरक्षा कर्मियों ने हमे बाहर जाने का संकेत ही नहीं किया ,अपितु एक तरह से बाहर की ओर धकेल सा ही दिया।फिर भी एक विशेष संतोष का भाव लिए कि हमने दस मिनट के अंदर अपनी अभीष्ट यात्रा को देवी तुलजा भवानी के दर्शन करने में सफल बना लिया, जिसके लिए हम सैकड़ों किलोमीटर की दूरी से आए थे।देवी के दर्शनों के पश्चात हमने परंपरा के अनुसार मंदिर की परिक्रमा लगाना आरंभ किया ।परिक्रमा बहुत छोटी ही थी परंतु दर्शनार्थियों से खचाखच भरी हुई थी ।पूरा प्रांगण ,सजावटी लाइटों से जगमग था ,ऊपर से गर्मी भी काफी थी ।परिक्रमा लगाते हुए अचानक हमारी दृष्टि ठीक मंदिर के पीछे वाले भाग पर एक अपेक्षाकृत छोटे से बरामदे पर रुक गई जो यात्रियों से पूरा भरा  हुआ था ,लेकिन उस बरामदे के ऊपर लगे एक बड़े से पोस्टर ने जैसे हमारे कदम रोक दिए ।उस पोस्टर में शिवाजी महाराज अपने दोनो हाथ एक देवी की ओर बढ़ाए हुए हैं उधर आकाश में  देवी हवा में ही अपने दोनो हाथों में एक तलवार थामे हुए जैसे शिवाजी को सौंप रही है ।हमे समझते हुए देर नही लगी कि ये तुलजा भवानी है जो अपने नाम की प्रसिद्ध देवीय तलवार शिवाजी को सौंप रही है ,और तब इस पोस्टर के ठीक नीचे जमा भीड़ के कारण जानने को हम भी पीछे जा खड़े हुए ।
                                                        


            बड़ी कठिनाई,धक्के मुक्की के बाद हम जब और अंदर की बढ़े तो देखा कि मंदिर के पीछे की दीवार पर लगे पोस्टर के नीचे थोड़ा सा आगे बढ़े चबूतरे पर एक आदमी लोगों से पैसे ले रहा है ,और फिर चबूतरे पर रखे गोल से ,अनगढ़  पत्थर पर उस पैसे देने वाले दर्शनार्थी से अपने दोनो हाथ ,पत्थर के बाएं ,दाएं रखवाकर कुछ कह रहा है।हम नासमझ से बने ये सब देख रहे थे ,भाषा से अनभिज्ञ होने के कारण वैसे कुछ समझ तो नही आ रहा था ,तभी गौर किया कि कुछ लोगों के हाथ रखने पर वो बड़ा सा गोल पत्थर कभी दाएं घूमता या कभी बाएं घूमता या फिर कभी कभी घूमता ही नही था।ये kotuk देख पत्थर घुमाने हेतु लगी भीड़ से हम भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके ।किसी तरह जब हमारा नंबर भी आया तो चबूतरे पर बैठे आदमी ने हमसे कुछ कहा ।हमारे उस से हिंदी में बोलने पर उसने बताया कि आप प्रत्येक प्रश्न पूछने के दस रुपए देने पर ,इस पत्थर पर अपने दोनो हाथ रखो और मन ही मन  कोई प्रश्न पूछो।अगर पत्थर बाएं की ओर घूमेगा तो नही में उत्तर समझो और अगर दाएं और घूमेगा तो हां में उत्तर होगा।हमने तुरंत दस का सिक्का उसे सौंपा ,और उसके बताए हुए तरीके से दोनो हाथ पत्थर पर रखे ।परंतु यह क्या ! पत्थर ना बाएं घुमा ना ही दाएं ! उसने जाने मराठी में क्या कहा ,और हमसे जाने के लिए कहा।अब अपनी संतुष्टि के लिए हमने फिर दस का सिक्का उसे दिया और वही क्रिया फिर दोहराई ।परंतु पहले की तरह पत्थर को ना तो घूमना था और न ही घुमा ।हम वापस मुड़े और दिल को ये तस्सली दी कि शायद ये पत्थर भी अन्य की तरह केवल मराठी भाषा ही समझता होगा ,और वापस परिक्रमा पूरी करने में लग गए ! !

                                                       



       वापसी में मुख्य दरवाजे तक वापस आने में चढ़ी सीधी सीढियौ ने जैसे हमारी बची खुची धैर्य की परीक्षा लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी ,हम भक्ति भाव से अधिक ,शिवाजी महाराज की कुलदेवी से साक्षात रूबरू होने के संतोष से ,इन सब कष्टों को विस्मृत कर आखिरकार मंदिर के बाहर खुले प्रांगण में आ पहुंचे ।
                                            

    उस प्रांगण में, समीप ही बनी पत्थरों से ही बने दीवारों पर बैठ कर अपना पसीना  सुखा कर,कुछ देर  थकान मिटाई ,फिर वापसी के लिए उसी संकरे ,पूजा की सामग्रियों से भरे बाजार से होते हुए अपनी कार तक पहुंचे , जहां सामने का दुकानदार आग्नेय नेत्रों से जैसे हमे भस्म करने के लिए  तत्पर दिख रहा था।बिना उसकी ओर देखे हम चुपचाप अपनी कार मोड़ कर वापस पूना जाने के लिए मुख्य मार्ग की ओर बढ़ चले !

                                            

       शायद मैं इस यात्रा के विवरण को यहीं विराम दे देता ,अगर वापसी में एक दुर्घटना से हम बाल बाल ना बचे होते।मुख्य मार्ग तक आते आते रात्रि के नौ बज चुके थे ।देरी एवम थकान से सराबोर होते हुए भी चालक के रूप में बैठे अपने बेटे को धीरे धीरे चलने एवम घर पहुंचने की कोई जल्दी नहीं है ,कहते हुए स्वयं भी अंधेरे में पूरी तरह डूबी , विरान सी सड़क पर सामने दृष्टि गड़ाए चेतन्यता से बैठे थे ।अभी हम इस शहर से कुछ ही किलोमीटर दूर पहुंचे थे कि अचानक एक स्कूटी सवार तेजी से हमें ओवरटेक करता हुआ ,सड़क के ठीक बीच मैं आ  गया ।हम उसकी इस तेजी को देख हैरान होते हुए  चालक सीट पर बैठे अपने बेटे से बोले,इसे शायद बहुत जल्दी है ,तुम थोड़ी स्पीड कम कर लो ,इसे जाने दो ,तो बेटे ने जैसे ही कार की स्पीड कम ही की थी कि स्कूटी सवार तीव्र गति से चलते हुए कभी एक दम सड़क के बाएं किनारे तो कभी दाएं किनारे ,अपनी स्कूटी को लहराते हुए चलने लगा ।इसे देख मेरे बेटे ने स्पीड और कम करली  ,जिस से उस स्कूटी सवार और हमारी कार के मध्य फैसला कुछ और कम ही  हुआ था कि अचानक वह स्कूटी सवार ,अपनी स्कूटी को लहराते हुए ठीक एक दम बाएं किनारे पर आ पहुंचा ,और इस से पहले कि हम कुछ समझ पाते ,हालांकि तब तक हम ये समझ चुके थे कि स्कूटी सवार नशे में धुत था ,किनारे चलते एक साइकल सवार से पीछे से जोरदार ढंग से जा टकराया !अगले ही पल दोनो सवार हमारी धीमी गति कार के सामने बीच सड़क पर ढेर हो गए ।उन दोनो के मध्य स्कूटी सवार की तेज स्पीड होने के कारण टक्कर भयंकर ही हुई थी।वो तो बेटा कुछ ही क्षण पूर्व सावधान हो चुका था इस लिए उसने कार को तेजी से बाईं ओर काट ली ,और आपस में टकराने के बाद सड़क पर ढेर हुए दोनो सवारों से बाल बाल बचतें हुए आगे बढ़ गया ।उस क्षण जैसे हमारी सांस रुक ही गई थी ।अनजान प्रदेश ,रात्रि का समय होने के कारण ना चाहते हुए भी हम नही रुके और अपनी मंजिल ,पूना शहर की ओर पांच घंटे बाद मध्य रात्रि को पहुंच कर ही दम लिया।शेष रात्रि हमारे थकान से सराबोर होने के बावजूद,, भी उस संभावित दुर्घटना से बाल बाल बचने के सदमे के कारण जागरण में ही कटी।फिर भी एक संतोष हृदय में था कि आखिरकार हमने शिवाजी महाराज की महत्व पूर्ण घटना के गवाह ,प्रतीकों को अपनी आंखों से देख आए थे !!
                                                          



यात्रा ............तुलजा भवानी ..!!

                                                    


        "" तुलजा भवानी "" इस शब्द से शायद ही हम उत्तर भारतीय परिचित होंगे ,और अगर  थोड़े परिचित भी होंगे तो केवल अजय देवगन  की बनाई फिल्म "" तानाजी "" फिल्म जिसमे वीर शिवाजी की वीर गाथा का चित्रण हुआ है ! अब आप समझ गए होंगे कि तुलजा भवानी का किस स्थान और किस वीर के साथ संबंध है।आप ठीक समझे ,तुलजा भवानी महान मराठाओं के महान वीर " शिवाजी महाराज " की कुल देवी थी ! 
                                                    

                                                        
        तानाज़ी फिल्म के बाद मेरी भी उत्सुकता शिवाजी महाराज की इन कुलदेवी के बारे में और बढ़ गई थी ,परंतु ,इन देवी के बारे में हिंदी साहित्य में बहुत ही थोड़ी सी जानकारी मुझे मिल पा रही थी । ऐसे में जब मुझे अपने छोटे बेटे के पास पूना जाने का सुअवसर मिला ,और वहां पूना में लोकल घूमते फिरते जब मेरे कानों में ,और लोगों की बातचीत में तुलजा भवानी के बारे में पता चला तो पूना आने के कुछ दिन बाद मैने बेटे से कहा कि मुझे पूना में शिवाजी महाराज के किले में स्थित उनकी कुल देवी तुलजा भवानी के मंदिर देखने की इच्छा हैं तो उसने कहा ठीक है अगले हफ्ते इतवार को चलेंगे ,तो मैने कहा इतवार की क्या आवश्यकता है ,पूना में तो ये है ही तो कल शाम ऑफिस के बाद चलना ।अब उसने जो उत्तर तो मेरे साथ साथ शायद आप भी हैरान जरूर होंगे।उसने कहा "" पापा ,तुलजा भवानी जो की वीर शिवाजी की कुल देवी हैं ,उनका स्थान अथवा मंदिर पूना से लगभग साढ़े चार सौ किलोमीटर से अधिक दूरी पर,पूना से हैदराबाद जाने वाले राजमार्ग पर स्थित शोलापुर शहर से भी पचास किलोमीटर की दूरी पर " तुलजा पुर " शहर में स्थित है ! क्या कहा ,पांच सौ किलो मीटर दूर ,और उनके नाम का एक शहर भी है , मैने चकित होते हुए कहा तो वो बोला , हां पापा हां ! " वैसे मेरी भी वहां जाने की इच्छा है क्यों कि कुछ पता नहीं मेरा ट्रांसफर कब किसी और शहर में हो जाए " ।बस फिर क्या था ,बड़ी ही बेसब्री से आगामी रविवार का इंतजार समाप्त हुआ और , कार द्वारा हम सब पूना से तुलजा भवानी की ओर सुबह नौ बजे के लगभग निकल पड़े , हां ,एक बात और , सब ने तय  कि घर से नाश्ता करके ही चलेंगे ,और दोपहर का भोजन हम शोला पुर जा कर ही करेंगे क्योंकि दोपहर होने तक ही हम शोला पुर पहुंच पाएंगे।अब हमे क्या एतराज था ,तो ठीक नौ बजे के लगभग हम चल पड़े महान मराठा वीर, महान शिवाजी महाराज की कुल देवी "" तुलजा भवानी " के दर्शन करने ! यहां एक बात आप सबको और बताता 
 चलूं की इन कुलदेवी के दर्शन की इच्छा धार्मिक भावों से अधिक शिवाजी महाराज से जुड़ी होने के कारण अधिक थी।एक बात और सुनें कि मराठा इतिहास में ये कहा जाता है कि जब मुगल अपनी पूरी शक्ति के साथ संपूर्ण भारत की विजय यात्रा पर निकले तो दक्षिण भारत में सबसे प्रथम उनका मुकाबला, इस विजय यात्रा में उनकी सबसे बड़ी रूकावट ,मराठा राज्य से होनी थी एवम उनका मुकाबला, उस समय के वीर शासक वीर शिवाजी महाराज से होनी निश्चित थी।अब ये तो इतिहास की बात है कि बाकी सब क्या हुआ ,परंतु मराठाओं की छोटी सी सेना महान मुगलों के आगे कहीं नहीं टिकती थी ,तो कहा जाता है कि इन वीर शिवाजी ने दुश्मनों से मुकाबला करने हेतु अपनी कुल देवी की कई दिनों तक आराधना की थी जिसके परिणाम स्वरूप कहते हैं कि उनकी कुलदेवी " तुलजा भवानी "  उनकी साधना से खुश हो,प्रगट हो कर उन्हे दो तलवारें भेंट दी थी जिसे उन्होंने नाम दिया था "" तुलजा और भवानी "" ! तो मेरे साथ चलिए महाराष्ट्र के गौरव ,महान वीर शिवाजी महाराज की उनकी प्रसिद्ध तलवार ," तुलजा एवम भवानी " जिस के बारे में बताया जाता है कि जब तक ये तलवारे शिवाजी के पास रहीं तो मृत्यु पर्यन्त उन्होंने कोई भी लड़ाई नही हारी ,साथ ही ये भी माना जाता है कि उनकी मृत्यु के पश्चात ये दोनो तलवारें भी रहस्यमय ढंग से लापता हो गई थी ,तुलजा भवानी शहर की ओर ! !
    घर से चलते चलते अभी हमने चार सौ किलो मीटर की यात्रा ही की थी कि अचानक मुख्य मार्ग पर लगा एक बोर्ड दृष्टिगत हुआ "" पंढरपुर "" पचास किलो मीटर दाईं ओर ! इन पंढरपुर की यात्रा के बारे में , मैं अपने ब्लॉग में पूर्व में अनुभवों को लिख चुका हूं ,और अगर आपने अभी तक इस यात्रा का विवरण नही पढ़ा है तो कृपया पढ़ें और उस यात्रा का आनंद लें !तो बात हो रही थी " पंढरपुर " लिखे बोर्ड की ,तो मेरी श्रीमती और पुत्र दोनो बोल उठे ,अरे ये इतना समीप है अब ,तो क्यों ना एक बार अवसर का लाभ वे भी उठा लें ,और उन्होंने कार बाईं ओर मोड़ ली ( मेरे इंकार की तो ऐसी परिस्थितियों में कोई गुंजाइश ही नहीं थी जबकि श्रीमती भी साथ हों ! )! अब चूंकि मैं ये यात्रा पूर्व में ही कर चुका हूं तो मैं इसके बारे में नहीं लिखूंगा ।

                                                    


                                                       
     तुलजा भवानी शहर की ओर मेरी यात्रा का विवरण अब उस स्थिति से आरंभ  होता है जब हम पंढरपुर शहर से वापस शोलापुर शहर की ओर जाने  लगे  ! अब एक बात और यहां स्पष्ट कर दूं कि दो बजे दिन का समय हो चुका था ,और बेटे की इच्छा थी कि चूंकि शोलापुर यहां से सिर्फ पचास किलोमीटर ही है ,और वो एक बहुत बड़ा शहर है पूना ही जैसा तो दो पहर का भोजन शोलापुर के किसी बड़े नामी होटल में ही करेंगे ,भले ही हम सब के पेट में चूहे पूरी ताकत से उछल कूद कर रहे थे,लेकिन इंकार का तो प्रश्न ही नहीं था  !! 
                                                    

    अब क्या बताएं कि शोलापुर आते तीन बज गए । जैसे कि मेने पहले बताया था ,शोलापुर एक बहुत बड़ा शहर है ,और हम प्रथम बार ही यहां आए थे तो किसी अच्छे होटल , जहां हम दोपहर का भोजन करते ,का हमे कुछ पता नहीं था।थोड़ी देर भटकने के बाद , जैसा की आजकल होता ही है ,हम गुगल बाबा की शरण में चले गए,और उसके दिखाए मैप के आधार पर हम शोला पुर में भटकने लगे ,तमाम सारे चौराहों को पार करते करते शाम के चार बजे का समय हो चला ! ये ऐसा समय होता है कि अधिकांश खाने के रेस्टोरेंट ,,ढाबों में भोजन खिलाने वाले ,और खाने वाले दोनो ही अनुपस्थित रहते है ,तो आप समझ सकते हैं कि हम जिस भी रेस्टोरेंट में जाते ,हमे निराशा ही मिलती ,और जैसे जैसे हम रेस्टोरेंट से निराश होते जाते उतनी ही हमारी भूख बढ़ती जाती ,बात यहां तक आ गई की भाई दाल रोटी न सही ,इडली डोसा ही सही ,परंतु यहां इस से भी इंकार ! हमें तो समझ ही नही आ रहा था कि हमारे उत्तर भारत में तो सुबह छह बजे से रात्रि बारह क्या दो ,तीन बजे तक भी भोजन मिल जाता है ! भाई ,शायद इन दक्षिण भारत के शहरो में खाने का कोई अलग एवम निश्चित ही समय होता होगा !
    आखिर कार ,एक बड़े नामी गिरामी होटल वालों को शायद हम भूख से बेहाल यात्रियों पर दया आई होगी तो ,वो एक शर्त पर तैयार हुए कि आपके लिए हम भोजन खिलाने को रेडी हैं परंतु इसकी तैयारी में आधा घंटा से अधिक समय लगेगा एवम थोड़ा विशेष चार्ज देना होगा ,असहमति का तो कोई प्रश्न ही नहीं था ,ये सोच कर ही सबर कर लिया कि इंतजार का फल मीठा होता है ! लेकिन अब आपको क्या बताएं ,इतनी शर्तें मानने के बाद जो भोजन आया तो हमसे, भयंकर भूखे होने के बाद भी खाया नही गया ,वो इस लिए कि हम भोजन में प्याज का साथ तो पसंद कर लेते हैं परंतु लहसुन " बाप re बाप " थोड़ा बहुत तो छोड़ो जैसे की भोजन का मुख्य भाग ,चाहे पनीर की सब्जी हो अथवा पीली दाल ,लहसुन ही था ,पहला ग्रास चखते ही लगा कि पनीर के स्थान पर जैसे लहसुन की पूरी एक गांठ ही मुंह में आ गई हो ! साथ ही हम उत्तर भारतीयों के लिए इन दक्षिण भारत के शहरों के भोजन में प्रयुक्त तड़का तो हमारी समझ ,स्वाद से एक दम अलग था !! बस अब यूं समझिए कि केवल आर्डर को चखने के बदले उस बड़े होटल की बड़ी फीस को चुका कर हम सीधे अपनी कार की ओर दौड़े ,और जेब में रखी इलाइचियों को मसलते, पीसते शहर से बाहर की ओर भागे ,सीधे तुलजा भवानी शहर की ओर ! ! !
                                                           

                                                                                                                                ( शेष क्रमश : अगले भाग में )
                                                        





कबूतर ................एक आतंकवादी

                                                        
                                                            



         शायद इस शीर्षक को पढ़ कर आप सब आश्चर्य में पड़ गए होंगे कि ये क्या लिखा है, परंतु जब आप मेरे साथ इस शाब्दिक अनुभव को पढ़ेंगे तो निश्चय ही आप का दृष्टिकोण बदल जाएगा।
        कबूतर पूरे विश्व में शांति एवम सद्भावना तथा प्रेम का प्रतीक जाना जाता है। जब इसकी "" गुटर गू ,गुटर गू " कानों में पड़ती है तों सब समझ जाते है कि ठिठुरती सर्दी की अब विदाई हो चुकी है और सुखदायक गर्मी अपनी चादर फैलाने आ पहुंची है।शायद ही पूरे संसार में यही एक मात्र प्राणी है जो किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचता है सिवाय एक प्राणी को छोड़ कर और श्रीमान वह प्राणी है "" मनुष्य ""! क्यों चौंक गए ना ,और जब में इस लेख के द्वारा कारण बताऊंगा तो निसंदेह ही आपकी धारणा बदल जायेगी बिल्कुल मेरी ही तरह !
         अपनी बैंकिंग सर्विस के 40 वर्षों के अंतर्गत मुझे कई बार ट्रेनिंग हेतु महानगरों में जाना पड़ा है जहां गगनचुंबी विशाल इमारतों के मध्य ,अध्ययन के दौरान मेरी दृष्टि अनायास बड़ी बड़ी शीशे की खिड़कियों पर पड़ती थी , जहां शीशों के दूसरी तरफ अक्सर मेरी दृष्टि रुक जाती थी ,और उसका कारण होता, उन सीलबंद ,अर्ध पारदर्शी शीशों के पार ,मेरी पसंद के प्राणी कबूतरों की चुहल बाजी ! वे अक्सर जोड़े के रूप में एक दूसरे की चोंच से चोंच मिलाते  ,एक दूसरे को धकियाते ,फिर जब एक उड़  जाता तो दूसरा भी पंख फैलाए उसके पीछे पीछे उड़ जाता ,या फिर जब वे वापस आते और अनायास उनकी दृष्टि शीशे में पड़ती अपनी छवि पर पड़ती तो उसे वे अपना साथी अथवा प्रतिद्वंदी समझ चोंच से वार करते ।इसी तरह की वे अजीब अजीब   हरकते करतें रहते ,इस बात से बेखबर कि शीशे के दूसरी ओर कोई उनके इन कार्यकलापों पर अपनी दृष्टि गड़ाए बैठा है । मैं उनकी इन शरारतों को देखते देखते इतना मगन हो जाता कि मुझे ये ध्यान ही नही रहता कि मैं एक लेक्चर सुनने के लिए बैठा हूं ,तब जब लेक्चरर मुझे टोकते तो जैसे मैं एक गहन स्वप्न से जाग उठता।फिर भी वे मुझे इतने अधिक आकर्षित करते कि अपने  लेक्चरों के बीच मैं तिरछी नजरों से उन के विभिन्न कार्य कलापों को ना चाहते हुए भी देखने का लोभ संवरण नही कर पाता था, भले ही इस दौरान मुझे कई बार लेक्चररों की  नाराजगी  भी सहनी पड़ी थी ।
      इसके अलावा कई बार मेरे बचपन में इन कबूतरों के जोड़ों ने घर में अपना घोंसला बनाया था।उस दौरान जब भी मैं इन कबूतर के बच्चो के नन्हे नन्हे बच्चों के कोमल पंखों की फड़फड़ाहट ,उनके मां बाप के उनके लिए दाना पानी लाते देखता तो जैसे इस क्षणों मैं प्रायः सब कुछ भूल जाता।


                                                        

        

            ये सारे सुखद अनुभव जब एक त्रासदी जी हां त्रासदी में बदले जब में अपने बेटे के पास पूना आया ।उसका फ्लैट एक बहुमंजिली इमारत में दसवें फ्लोर पर है।उस फ्लैट के दोनों ओर बालकोनी है जिसमें खड़े होकर बाहर देखने पर पूना शहर की हरियाली देखने पर आंखो को बड़ा ही सुकून मिलता था ,इस लिए अपने पूना प्रवास के दौरान में दिन का अधिकांश समय बालकोनी में ही व्यतीत करता था ।पर यह क्या ! इस बार पूना आ कर जब मैं बालकोनी में बैठने के लिए गया तो देखा ,उसके तीनों और एक इंच चौड़ाई के घेरे वाली प्लास्टिक की जाली लगी हुई है। मैने बहुत दिमाग लगाया ये सोचने में कि ये घेराबंदी आखिर किस लिए की गई है ,ये शर्तिया मच्छरों के लिए तो हो ही नही सकती ,क्योंकि इस जाली की चौड़ाई से मच्छर तो क्या कीट पतंगे भी नही रुक सकते ,तो फिर इसके लगाने का क्या कारण हो सकता है।जब सोच सोच कर हार गया ,कोई भी कारण दिमाग में नहीं घुसा तो आखिरकार बेटे से ही पूछना पड़ा ,और जब उसने जो उत्तर दिया तो एक बार तो सुनकर मैं हैरान ही रह गया ।क्या ये भी कारण हो सकता है !!वो बोला पापा ,ये निरीह पक्षी नही ,ये तो पक्के आतंक वादी हैं आतंकवादी !! मेरे हैरानी से ,प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने पर वो बोला कि याद कीजिए ,इस से पहले जब आप पूना आते थे तो इन बालकोनियो में हमेशा कबूतरों की बीट पड़ी रहती थी ,घरेलू काम करने वाली रोज रोज रगड़ के पोंछा लगती ,फिर अगले दिन वही समस्या ,और याद कीजिए कभी कभी तो कबूतर सीधे हॉल में ही आ जाते ,और अगर हम ध्यान नहीं देते तो मौका मिलते ही वे हमारे कमरों के किसी भी कौने में अपना घोंसला बनाने से भी नही चूकते ,इस के अलावा हम तीन चार दिन के लिए कहीं बाहर जाते ,और गलती से अगर कोई खिड़की खुली रह जाती ,और ये कहीं अंडे दे देते तो फिर मुसीबतों की शुरुआत हो जाती ।इतने सीधे पक्षियों के अंडे ,घोंसले सहित हटाने को हमारा दिल नही करता ।तब ये समझिए दो तीन महीने के लिए हमारा जीना मुश्किल हो जाता।क्यों ? वो इस लिए कि उन तीन महीनों में पूरे घर में घोंसलों से गिरते तिनके इधर उधर बिखरते रहते ,कभी कभी तो वो हमारे खाने पीने की वस्तुओं में भी गिर जाते ,अक्सर आते जाते उनके पंख फड़फड़ाने से जहां हमारे कार्य की एकाग्रता में व्यवधान पड़ता वहीं कभी कभी उनके पंख टूटकर इधर उधर पूरे घर में उड़ते रहते ,इसके अतिरिक्त एक बात और अक्सर घोंसलों में से ,अंडों में से निकले नन्हे नन्हे बच्चे नीचे टपक जाते , जिनसे हमारे हृदय दहल जाते।उसके बाद कबूतरों के बैचेनी से फड़फड़ाने से कई दिनों तक हमें रात को नींद भी नहीं आती।ये सब तो फिर भी हम सहन कर लेते ,पर इस दौरान अगर कभी हमें कुछ दिनों के लिए शहर से बाहर जाना पड़ता तो तो इन माता पिता कबूतरों के कारण हमें अपना कार्यक्रम छोड़ना पड़ता।ये सब कभी कभार होता तो चलता ,परंतु ये तो हर वर्ष होने लगा तो हमारे धैर्य की सीमा समाप्त हो गई।कितनी ही बार हम उन कबूतरों को भगाने का प्रयत्न करते परंतु सब निष्फल ,क्योंकि कबूतरों को मनुष्यों के साथ रहने की आदत हो गई थी ! जब बहुत परेशान होने लगे तब एक दिन हमने अपने पड़ोसी से ये कहा कि इस सोसायटी को हम इन कबूतरों के कारण छोड़ने की सोच रहे हैं तो वो हंसने लगा ।कहने लगा ,तुम पूना में कहीं चले जाओ,किसी भी सोसायटी में घर ले लो ,ये तो पूरे पूना में है ,और हम ही नही जब अधिकांश पूना के निवासी मेरे जैसे परेशान होने लगे तो उन सबकी परेशानी देख शहर के एक व्यापारी का दिमाग चला और उसने बाकायदा विज्ञापन देकर हमेशा के लिए एक हल निकाला।जब उनसे संपर्क किया तो उन्होंने जो हल बताया वो अनोखा था।
                                                        

     

            मेरे पड़ोसी ने बताया कि देखो मेरे फ्लैट को देखो , मैने क्या उपाय किया है । मैने उन व्यापारी से दोनो बालकोनियो में ये प्लास्टिक की एक इंच चौड़ी जाली तीनों और फिट करवाली है।कुछ दिन तो कबूतर फड़फड़ाते आते ,परंतु जाली के पास आ कर वापस उड़ जाते ।
    बस फिर क्या था ,बेटा बोला , मैने भी बालकोनियो के चारों ओर ये जाली फिट करवादी है।और हां पापा , मैने ही नहीं पूरी सोसायटी ने ये जाली फिट करवादी है।
   पहले तो मुझे कुछ समझ नहीं आया ,फिर कुछ दिन बाद मैने अनुभव किया कि अब कबूतरों के झुंड इस सोसायटी से विदा ले चुके है।

                                                       

 
       सच कहूं ,आरंभ में तो मुझे बिना कबूतरों कुछ अजीब सा लगा ,उनकी फड़फड़ाहट , उनके  ऊंची ऊंची इमारतों से एक दम नीचे उड़ कर गोता लगाना ,मुझे बहुत पसंद था परंतु अब रोज रोज की बालकनी की सफाई के झंझटों से मुक्ति भी मिल गई थी।
     फिर अचानक टीवी पर एक विदेशी चैनल देखते देखते एक डॉक्यूमेंट्री मैने देखी जो अमेरिका के सबसे बड़े ,सबसे घने बसे ,गगनचुंबी इमारतों के संदर्भ की थी ।उसके अनुसार न्यूयार्क की बहुमंजिली इमारतों को कुछ वर्ष पूर्व इन कबूतरों के झुंड के झुण्डों ने 
अपनी शरण स्थली बनाली थी ,उनकी आबादी में भी विस्फोटक रूप से बढ़ोतरी हो गई थी ,क्योंकि गगन चुंबी इमारतों के ऊपर रहने वाले इन कबूतरों के कोई भी प्राकृतिक शत्रु जैसे बिल्ली ,कुत्ते आदि नहीं थे ।अपितु इस कारण आसपास के जंगलों से इन कबूतरों का शिकार करने वाले बाज पक्षी भी  शिकार करने के लिए इन इमारतों में आ बसे थे ।जिस से पहले ही परेशान न्यूयार्क के निवासी और अधिक परेशान होने लगे थे।अक्सर कबूतर एवम बाज की छीना झपटी में वे इन गगन चुम्बी इमारतें जो विशाल शीशों से सजी हुई थी उनसे टकराते ,उनमें खरोंच डालते ,उन्हे गंदी करते ।उनकी रोशनी एवम ताजी हवा के लिए जो रोशनदान होते ,उस कारण उन्हें भी समस्याओं से जूझना पड़ता जिनसे मेरा बेटा जूझा था ।तब वहां भी यही जाली लगाई गई ,जिनके कारण काफी हद तक न्यूयार्क निवासियों की परेशानी खत्म हो गई।

                                                

    
            इस के कुछ दिनों पश्चात किन्ही कारणों से मुझे पूना के अस्पताल में जाना पड़ा तो देखा कि इस अस्पताल की सारी बालकनियों में यही जालीदार जाली लगी हुई थी।फिर तो अक्सर पूना भ्रमण के दौरान मेरी दृष्टि अनायास पूना की बहुमंजिली इमारतों
पर टिक जाती ,और मैने देखा की अधिकांश इन इमारतों की बालकोनियो में यही जाली लगी हुई थी।अब पूना भ्रमण करते मेरा ये शगल सा बन गया था कि मैं अक्सर पूना के अधिकांश निवासियों से जब इस बाबत बात करता उनमेंसे अधिकांश की राय इन कबूतरों के बारे में यही थी कि ये भोले भाले दिखने वाले पक्षी  उनकी परेशानी की एक बड़ी वजह है।इसके बाद जब मैं दिल्ली की भी अधिकांश गगन चुम्बी इमारतों में रहने वाले परिचितों से जब इन कबूतरों के बारे में उनकी राय जाननी चाही तो मुझे जरा सी भी हैरानी नही हुई ,क्योंकि मैं पूना के अपने अनुभवों से जान चुका था कि आधुनिक समय में ये निरीह से ,शांत दिखाई देने वाले कबूतर ,शांति के दूत नही अपितु " आतंकवादी है आतंकवादी "" ! !

     पाठको ,शायद मेरी इस बात से   आज आप सहमत ना हों परंतु जब कभी मेरे बेटे ही नहीं ,पूरे पूना शहर के वासियों की तरह आप को इस परेशानी से दो चार होना पड़ेगा तब आप मेरे बेटे की तरह ही अनायास बोल उठेंगे कि ये भोले भाले कबूतर नही ,अपितु ये आतंकवादी हैं आतंकवादी ! !