रविवार, 3 नवंबर 2019

यात्रा…….पंढरपुर

                                       यात्रा…….पंढरपुर     
   भक्त नामदेव के साक्षी श्री कृष्ण भगवान   


    
  पुणे की अपनी यात्रा के दौरान एक रोज यूंही मै एम जी रोड पर विंडो शॉपिंग कर रहा था कि अचानक सामने
से एक विशाल जुलूस आता दृष्टिगत हुआ।सोचा छोटा मोटा कोई धार्मिक जुलूस होगा , निकल जाएगा, अतः ,एक
किनारे पर खड़े हो कर मै इस गुजरते हुए जुलूस को देखने लगा।शुभ्र सफेद कुर्ता,पजामा,साथ में सफेद ही गांधी
टोपी धारण किए ,नंगे पद,साथ में अधिकांश सफेद ही वस्त्र धारण किए हुए स्त्री एवम् पुरुषों के समूह हाथ में मंजीरे
,गले में बड़ी सी मृदंग,ढोलक,खड़ताल,आदी अनेकों प्रकार के वाद्य यंत्रों को बजाते,उनके संगीत पर नृत्य करते ,हाथों
में थामे धार्मिक चिन्हों वाले झंडों के साथ जब मेरे सम्मुख निकलने लगे तो मै सम्मोहित सा देखता ही रह गया ।अरे ! ये
जुलूस तो समाप्त ही नहीं हो रहा है।एक के पश्चात् एक, गाते बजाते,नृत्य करते,झूमते नर नारियों के समूह के समूह
समाप्त ना होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। लाखों लोग,कौन है ये लोग,ये सब इतनी बड़ी संख्या में नाचते गाते,किध
जा रहे हैं ? इस प्रश्न का मै अभी उत्तर खोज ही रहा था कि मैने गौर किया कि अधिकांश महिलाओं ने अपने सिर के
ऊपर भगवान कृष्ण की मूर्तियों को भी धरण किया है साथ ही देखा कि मूर्ति के साथ साथ लोग तुलसी के छोटे छोटे
पोधों के गमले जो कि रंग बिरंगे कपड़ों से सुसजित थे ,को भी अपने सिर और हाथो में उठाए हुए चल रहें है।जिनके
पास कोई मूर्ति या तुलसी के पोधे नहीं थे तो वे छोटी छोटी पताकाओं को लहराते हुए ही चल रहें है और इन सब के
साथ चल रहे थे सैकडों की संख्या में  ट्रक जिनमे अधिकांश में खाने पीने की सामग्री के साथ दैनिक प्रयोग में आने
वाली वस्तुएं भरी हुई थी। निसंदेह मेरी जिज्ञासा चरम पर आ पहुंची !


     
  मैने अपने निकट खड़े एक मराठी व्यक्ति से पूछ ही लिया की ये सब कौन हैं और इतनी अधिक संख्या में एक साथ
किधर जा रहें है! उस व्यक्ति ने जो बताया ,उस को सुनकर मै आश्चर्य के सागर में डूब सा गया।उसके अनुसार " ये
महाराष्ट्र की सब से विशाल धार्मिक यात्रा का जुलूस है जो कि पुणे से लगभग 250 किलो मीटर से भी अधिक दूर एक
पवित्र तीर्थ स्थल पंधर पुर जा रही है ।इसे महाराष्ट्र के महान संत भक्त नाम देव की याद में प्रति वर्ष आषाढ़ माह अर्थात
जुलाई माह में पुणे से पंढरपुर तक निकाली जाती है।आषाढ़ की एकादशी को यह यात्रा पांधर पुर में जाकर समाप्त होती
है ।इसे महाराष्ट्र में राजकीय यात्रा का दर्जा प्राप्त है,इस यात्रा में प्रतिवर्ष लगभग 5 से 6 लाख  लोग भारत ही नहीं अपितु
पूरी दुनिया से सम्मिलित होने के लिए आते हैं।इस यात्रा को सम्पूर्ण होने में 15 दिन लगते हैं।


उसने जुलूस में शामिल एक बहुत ही सजी धजी पालकी की ओर इशारा किया।यह पालकी पूरी ओर से पुष्पों ,लताओं,रंगीन बिजली की लड़ियों एवम् धार्मिक झंडियों से सजी हुई थी।इस पालकी को 2 सफेद रंग के हष्ट
 पुष्ट बैलों की जोड़ी खींच रही थी।उसने बताया कि इस पालकी में नामदेव जी की चरण पादुकाएं रखीं हैं,जिन्हें
प्रतिवर्ष आषाढ़ माह में इसी तरह विशाल जुलूस के साथ , गाजे बाजे के साथ पंधार पुर ले जाया जाता है जहां
 पर भगवान श्री कृष्ण जी की मूर्ति के सम्मुख उन पादुकाओं को एक दिन के लिए स्थापित किया जाता है।


         
 निसंदेह जब इतना विशाल जुलूस लाखों लोगों के साथ इतनी लंबी यात्रा कर रहा है तो अवश्य इसके पीछे कोई
विशेष मान्यता होगी।पुनः उन्हीं सज्जन ने इस यात्रा का कारण एवम् महत्व इस तरह बताया कि मेरा मन भी
इस यात्रा के साथ साथ पंढरपुर जाने के लिए मचल उठा।


      
  पंढरपुर शहर में स्थित भगवान श्री कृष्ण का मंदिर जो की लगभग 1 हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन है,का 12 वीं
शताब्दी में इस मंदिर का जीर्णोद्धार सर्वप्रथम संत ज्ञानेश्वर जी ने ,जिन्हें संत नामदेव भी कहते है ने करवाया था।इन्हीं
संत को बचपन में विठोबा भी कहते थे अतः यह जनश्रुति भी है कि इस कारण से पंढरपुर के भगवान श्री कृष्ण के मंदिर
को विठोबा का मंदिर भी कहते हैं। ऐसी ही एक जनश्रुति के अनुसार एक बार जब ज्ञानेश्वर रात्रि को अपने माता पिता के
पैरों की मालिश कर रहे थे तब उनकी मातृ पितृ भक्ति से भगवान कृष्ण इतने प्रभावित और खुश हुए कि वे ज्ञानेश्वर की
इस सेवा को प्रत्यक्ष देखने स्वयं ज्ञानेश्वर के घर के बाहर जा पहुंचे।उन्होंने जब ज्ञानेश्वर को माता पिता की सेवा करते देखा
तो  प्रभावित हो उनको पुकारने से अपने आप को रोक ना सके।उन्होंने घर के दरवाजे के बाहर से ज्ञानेश्वर जी को आवाज
दी।ज्ञानेश्वर जी ने बिना बाहर आए कहा कि " इस समय मै अपने माता पिता के चरणों की मालिश कर रहा हूं और जब
तक वे सो नहीं जाएंगे वे बाहर नहीं आएंगे" ऐसा कह कर उन्होंने एक ईंट बाहर दरवाजे की ओर फेंकी ओर कहा "आप
चाहें तो इस ईंट पर बैठ सकते हैं"! कुछ समय पश्चात जब उनके माता पिता सो गए तब वे बाहर आए,भगवान श्री कृष्ण
जी को कमर पर हाथ रखे खड़ा पाया,तो उन्होंने श्री कृष्ण जी यहां पधारने का उद्देश्य पूछा !! कृष्ण जी उनकी पितृ भक्ति
से इतने खुश हुए कि उन्होंने उनसे मन चाहा वरदान मांगने को कहा।ज्ञानेश्वर जी ने कहा कि उन्हें किसी भी भौतिक
वस्तु की आवश्यकता नहीं है ,वे आपकी भक्ति एवम् माता पिता की सेवा करते हुए पूर्ण संतुष्ट है उन्हें कुछ नहीं
चाहिए! भगवान कृष्ण उनकी भक्ति से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने पुनः  पुनः उनसे वरदान मांगने को कहा। अंत
में ज्ञानेश्वर जी ने कहा कि अगर आप वरदान देना ही चाहते हैं तो मै आपसे यही वरदान चाहूंगा कि आप इसी स्थान
पर ऐसे ही खड़े रह कर अपने भक्तों एवम् दर्शनार्थियों को दर्शन देते रहें।कहते हैं कि उसी समय से भगवान श्री कृष्ण
ऐसे ही खड़े रूप में मूर्ति के रूप में अपने भक्तों को दर्शन दे रहे हैं, और शायद तभी से उनके भक्त उनके नए नाम
" भगवान विट्ठल " के नाम सेभी जाने जाते रहें हैं। कालांतर में इस स्थान का नाम भी पैंधर पुर के नाम से भी प्रसिद्ध हो
गया है जिसका मराठी भाषा से हिंदी में अर्थ बनता है पत्थर के ऊपर खड़े भगवान श्री कृष्ण। हां ,आपको एक अत्यंत
महत्व पूर्ण बात बताना तो रह गया कि संत ज्ञानेश्वर ने अपने शिष्यों से यह वचन लिया था कि उनकी मृत्यु के पश्चात
उनकी समाधि ,भगवान श्री कृष्ण अर्थात विट्ठल जी के गर्भ गृह को जाने वाली सीढ़ियों में ही बनाई जाए ताकि भगवान
विट्ठल के दर्शनों को आने वाले श्रद्धालु उनकी समाधि पर अपने चरण रखने के बाद ही ,भगवान विट्ठल के दर्शन प्राप्त
कर सकें।धन्य है ऐसी भावना !
       इतना सुनने के पश्चात् तो मैने भी प्रण कर लिया कि ऐसे पवित्र स्थान पर तो मुझे भी जाना चाहिए, और मै निकल
पड़ा " भगवान श्री विट्ठल" जी के दर्शनों के लिए " पंढरपुर" ।



         अगले  दिन प्रातः ही पुणे से पंढरपुर की बस पकड़ ली।पंढरपुर पुणे से हैदराबाद जाने वाले राजमार्ग पर लगभग
250 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।बस ने 3 घंटों की यात्रा के पश्चात् पंढरपुर पहुंचा दिया।पहली दृष्टि में तो ये एक
छोटा सा ,आम धार्मिक शहरों की ही तरह नजर आया। बस स्टैंड से बाहर निकलते ही ऑटो रिक्शाओं के झुण्डों ने जैसे
घेर ही लिया। अपनी विभिन्न यात्राओं के अनुभवों से सीख लेकर मै उनसे किसी प्रकार पीछा छुड़ाकर आगे बढ़ा।इस तरह
की यात्राओं में,मैने अनुभव से ही सीखा है कि अनजाने स्थानों पर घूमने एवम् पूरी जानकारी लेने के लिए किसी जानकार
व्यक्ति अर्थात गाइड की सेवाएं अवश्य ले लेनी चाहिए ।हर तीर्थ स्थान के समान शीघ्र ही मुझे एक गाइड के रूप में
स्थानीय निवासी मिल गया।


    
  अब जैसे ही हम थोड़ा आगे बढ़े तो समझ आगया कि ये एक बहुत ही छोटा शहर है परन्तु धार्मिक मामलों में इस शहर
का महत्व इतना है जितना कि आंध्र प्रदेश में स्थित " तिरुपति बालाजी" का।गाइड के अनुसार ये महाराष्ट्र का सबसे अधिक
धार्मिक मान्यता वाला शहर है।कोई भी शुभ कार्य हो,कोई भी कार्य की मानता हो ,पूरे प्रदेश से नर नारी,सर्व प्रथम इसी
विट्ठल भगवान के दर्शन के पश्चात् ही ,करते हैं।वैसे तो वर्ष पर्यंत यहां दर्शनार्थियों के समूह के समूह आते रहते हैं परन्तु
आषाढ़  माह में इस मंदिर के दर्शनों का विशेष महत्व होने के कारण,पुणे से आनेवाली,महाराष्ट्र की सबसे बड़ी धार्मिक
यात्रा जिसे यहां " वारी " के नाम से संबोधन किया जाता है ,के कारण भी दर्शनार्थियों से यह शहर भरा हुआ था। गाइड
के अनुसार इस शहर का इतिहास लगभग 1 हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन है।मंदिर की ओर बढ़ते हुए मैने देखा कि
एक के बाद एक छोटे छोटे समूहों में ,गाजे बाजे के साथ ,बैलगाड़ी की पालकी के साथ जिसमें ज्ञानेश्वर उर्फ संत नामदेव
जी की चरण पादुकाओं के प्रतीक के रूप में स्थापित चिन्हों,ध्वजों के साथ विट्ठल भगवान के जयघोष के साथ,मराठी
भाषा के भजनों को गाते ,नृत्य करते विट्ठल भगवान के मंदिर की ओर बढ़े चले जा रहे थे।बाजार छोटे छोटे थे,परन्तु
सम्पूर्ण भारत के धार्मिक शहरों के समान सारी की सारी दुकानें धार्मिक और पूजा के सामानों से भरी हुई थी। मै
आश्चर्य चकित हो कर देख रहा था कि बाल बच्चे,नर नारी,अधिकांश शुभ्र सफेद वस्त्रों को ही पहने ,पूरी श्रद्धा सहित
मंदिर की ओर बढ़े चले जा रहे थे।

मै भी श्रद्धा में डूबे उन यात्रियों के साथ सम्मोहित सा मंदिर की ओर बढ़ा चला जा रहा था।कुछ ही देर
 में मैने अपने को एक बहुत ही विशाल परन्तु अत्यंत ही प्राचीन मंदिर के सम्मुख पाया।मंदिर के चारों ओर धार्मिक सामग्रियों से भरी हुई दुकानें थी,जिन पर यात्रियों की भीड़ लगी हुई थी।फिर मैने देखा कि
यात्रियों के समूह ,अपनी अपनी पालकी के साथ सर्व प्रथम मंदिर के चारों ओर बनी सड़क से ही, मंदिर के
 बाहर से ही ,सर्वप्रथम परिक्रमा कर रहे थे,उसके पश्चात ही,मंदिर में स्थित भगवान श्री कृष्ण के विट्ठल स्वरूप के
 दर्शनों के लिए लंबी,लंबी कतारों में खड़े हो रहे थे।मंदिर के चारों ओर ,चारों दिशाओं में फैली विशाल परकोटे की दीवारों मचार दरवाजे थे। उनमें से पूर्व दिशा वाले दरवाजों में से प्रवेश कर के ही,विट्ठल भगवान के दर्शन का मार्गथा।जब मैने गाइड से कहा कि मै भी विट्ठल जी के दर्शन करना चाहता हूं तो उसने जो बताया , मै हैरान रह गया।उसके अनुसार विट्ठल भगवान के दर्शनों के लिए सामान्य दिनों में तो लगभग 5 घंटे लगते है,परन्तु आषाढ़ का माह होने के कारण,अत्यधिक भीड़ होने के कारण इस समय तो दर्शन के लिए लगभग 10  घंटों से भी अधिक समय लगेगा।10 घंटे! इतना अधिक समय लगेगा ,यह तो मैने सोचा ही नहीं था ,ओर ना ही मेरे पास इतना अधिक समय था क्यों कि मुझे तय कार्यक्रम के अनुसार आज ही वापस पुणे लौटना था। मै मायूसी से हाथ जोड़े मंदिर के द्वार पर खड़ा ही था कि मेरे चेहरे के निराशा जनक भाव देख कर गाइड ने जो कहा ,उस सुनकर,जैसे में जोश
में आ गया।" हां ,विट्ठल जी के दर्शनों के लिए एक अन्य मार्ग भी है"।उसके अनुसार इस मंदिर में स्थित भगवान
विट्ठल के दर्शन के लिए 2 कतारें लगती है ।एक कतार में तो 10 घंटे का समय लगता है परन्तु उसका लाभ ये है किआप सीधे मंदिर में स्थापित भगवान विट्ठल जी के चरणों को अपने स्वयं के हाथों से स्पर्श का सकते है,परन्तु जिनके पास इतना अधिक समय
नहीं होता ,वे दूसरी कतार में लग कर दर्शन कर सकते है,इसमें केवल अधिकतम 2 घंटों का ही समय लगता है परन्तु
आप लगभग 10 फुट की दूरी सेही विट्ठल जी के दर्शन कर सकते है, उनके चरण स्पर्श नहीं कर सकते।अन्य कोई भी
विकल्प ना होने से, मै इस दूसरी पंक्ति में ही खड़ा हो गया।

         अब पंक्ति में लगने के पश्चात् मै, आस पास का नजारा लेने लगा।मैने देखा कि चरण स्पर्श के दर्शन वाली पंक्ति
मंदिर की ओर ना जा कर ,समीप ही बने 3 बड़े बड़े भवनों के ओर जा रही है।गाइड से इस संबंध में पूछने से उसने
बताया कि दूसरी पंक्ति में , 100,100  यात्रियों के समूहों को अलग अलग चैम्बरों में जो कि 10 की मात्रा में थे ,भेजा
जाता है।जैसे जैसे मूर्ति के दर्शनार्थ,मूर्ति को एक एक कर के ,चरण पूजा करके मंदिर से बाहर निकलते रहते हैं,एक
चेंबर से दूसरे चेंबर में भेजा जाता है और लगभग 10 घंटों के बाद ,तब कहीं जा कर भगवान विट्ठल जी दर्शन कर पाते
हैं! प्रत्येक चेंबर ,मंदिर के आसपास बने कई मंजिलें भवनों में  स्थित है।हालांकि मेरी पंक्ति में भी लगातार यात्री ,दर्शनों
केलिए खड़े होते जा रहे थे।शायद इन सबके पास भी,मेरी ही तरह,
 दूसरी पंक्ति में लगने वाला समय नहीं था! 
        धीरे धीरे हमारी पंक्ति मंदिर के बाहरी रास्तों से अंदर की ओर बढ़ने लगी।दर्शनार्थियों के जयकारों से मेरे मन
में एक अजीब सी भावना उमड़ने लगी।क्या रिश्ता है भक्तों और भगवान में,क्यों ये सब दूर दूर से अपना समय और
धन खर्च करके ,शरीर को कष्ट देकर इस पंक्ति में लगे हुए हैं? यूंही समय बिताने के लिए जब मैने अपने से आगे ओर
पीछे खड़े व्यक्तियों से इस संदर्भ में पूछना चाहा तो पहली प्रतिक्रिया ये थी कि वे स्वयं भी नहीं जानते थे कि किस
आकर्षण से वे यहां तक चले आएं है,बस आएं है तो आए हैं! ओर अधिक पूछने पर एक दो ने तो सोचा कि शायद में
किसी अन्य धर्म का अनुयाई हूं,परन्तु मेरे से कुछ आगे खड़े एक बुजुर्ग ने उल्टा मुझ से ही पूछ लिया कि मै स्वयं क्यों
यहां आया हूं।तब मुझे भी यकायक उत्तर नहीं सूझा ! कुछ शन मोन रह कर मैने उतर खोजना चाहा … क्या मै घूमने
आया हूं,इस के लिए तो मै किसी मनोरम पर्वतीय स्थल पर भी जा सकता था,तो क्या मै कोई कामना की पूर्ति के लिए
आया हूं,या फिर ….?तभी मेरे मन के उथल पुथल को भांपते हुए,वे बुजुर्ग बोले " बेटा ,हो सकता है यहां आने वाले हरेक
इंसान ,कोई ना कोई इच्छा पूर्ति के लिए आया होगा,शायद तुम खुद भी जाने अंजाने किसी इच्छा के वशीभूत होकर
आए हो ,परन्तु सत्य यही है कि यहां आने वाले हरेक इंसान एक ऐसे विश्वास को लेकर आया है कि विट्ठल के दर्शनों से
उसका कुछ तो भला होगा,ये विश्वास की भावना है जिस के कारण मै,तुम और ये सारे लोग इस समय उहान उपस्थित
हैं! हो सकता है तुम्हारी कोई कामना नहीं हो ,फिर भी तुम इतनी दूर से यहां आए हो तो इसके पीछे भी यही विश्वास
का आकर्षण है जो तुम्हारे,हमारे ओर सब उपस्थित लोगों के हृदय में है"। इस से पहले की वे कुछ ओर कहते ,वे आगे
बढ़ गए। मै स्वयं भी यहां आने का कारण सोचने लगा तो उन बुजुर्ग की बात ही गूंजने लगी कि हां विश्वास ही है जिसके
कारण मै इस समय पंक्ति में खड़ा हूं , और इस विश्वास का कारण मेरी नजर में शायद मेरे वे संस्कार अवश्य रहे होंगे


        
    इस तरह  3 घंटों की इस अध्यात्म,श्रद्धा,भक्ति एवम् विश्वास की यात्रा के पश्चात् मै इस पवित्र मंदिर से बाहर
आया।बाहर का दृश्य पहले ही की तरह भक्ति ,श्रद्धा के साथ श्रद्धालुओं से गुंजायमान था।गाइड ने मुझे फिर एक
ओर चलने का आग्रह किया,ओर मै चल पड़ा।इस छोटे से धार्मिक शहर में,वो मुझे एक एक कर के ,इस शहर के अत्यंत
प्राचीन ओर ऐतिहासिक धरोहरों,देवालयों एवम् भवनों को दिखाते हुए ,मंदिर के पीछे की ओर ले जाने लगा।मार्ग में
ही इन ऐतिहासिक भवनों में थे,अहिल्याबाई होलकर,सिंधिया के वंशजों एवम् पूरे भारत के गुनी जानो द्वारा स्थापित
भवन एवम् देवालय जो देखते ही इस स्थान की पवित्रता ,महत्व के मूक गवाह थे।


समय के अंतराल में इनकी चमक अवश्य फीकी हो गई थी मगर महत्व और अधिक बढ़ता जा रहा था।इन्हीं
सब को देखते ही अचानक मैने अपने आप को एक बहुत चौड़ी,धीरे धीरे बहती नदी के किनारे पाया।" ये चंद्रभागा " नदी है,जो पुणे के समीप से आती है ।पुणे में इसे भिमा नदी के नाम से भी संबोधित करते हैं,गाइड
ने मेरा ज्ञान वर्धन किया।



       
 चंद्रभागा नदी का तट काफी चोड़ा था।इसके इस और के किनारे पर तो जैसे मेले जैसा आयोजन लग रहा था।लोगों
की भारी भीड़ से नदी का तट भरा हुआ था तरह तरह के पकवानों, चाट,गन्ने के रस एवम् चाय की दुकानों की भरमार
थी।एक अनोखी बात और ये थी कि थोड़ी थोड़ी दूर पर काले रंग की विट्ठल जी की,रुक्मणि जी के साथ  बड़ी बड़ी
मूर्तियां पूरी साज सज्जा के साथ दिखाई दे रही थी। गौर करने पर समझ आया कि ये असली नहीं बल्कि अधिकांश
प्लास्टिक अथवा लकड़ी की बनी थी, जिनमे श्रद्धालु बैठकर,खड़े होकर ,एवम् विभिन्न मुद्राओं में अपनी इस धार्मिक
यात्रा के पलों को यादगार बनने के लिए फोटो खिच्वा रहे थे !


चंद्रभागा नदी के एक दम किनारे पर 2 माध्यम आकार के मंदिर नुमा आश्रम बने थे,जिनमे प्रवेश के लिए
 श्रद्धालु पुनः पंक्ति बनाकर खड़े थे,परन्तु मुझमें अब इतनी शक्ति नहीं बची थी कि मै अब और खड़ा भी रह सकूं। मै तो बस इस चंद्रभागा नदी ,उसके आसपास जमा लोगों ,एवम् दुकानों आदी को ही देख कर तृप्त हो
गया था।बस ऐसे ही निष्प्रयोजन कुछ विश्राम के पश्चात् ,गाइड को धन्यवाद अर्पित कर ,पुनः संयोग मिलने पर
 इस भक्ति और श्रद्धा से भरपूर पवित्र तीर्थ स्थल पर पुनः आगमन का विश्वास लेकर पुणे जाने के लिए बस स्टैंड
आ गया ।                                                                                 


                                                            जय श्री कृष्ण,जय श्री विट्ठल !