शनिवार, 28 सितंबर 2019

यात्रा……… जा ****** ना ****** पाओ

यात्रा……… जा ****** ना ****** पाओ                   
                        
( महर्षि पर शुराम जन्म स्थल)
  


     " जा ,ना ,पाओ" ,जी हां , मै अब आपको जिस अद्भुत ,रहस्यमई यात्रा पर ले कर जा रहा हूं ,उस स्थान का नाम भी यही है।जा..,ना.. पाओ ! इस शब्द का अर्थ भी यही होता है कि वो स्थान जहां जा ना पाएं! यहां मै स्वीकार करता हूं कि उपरोक्त नाम के स्थान के बारे में मुझे भी पिछले माह ही पता चला, जब मै इंदौर में निवास करने वाले मेरे साढू भाई डाक्टर दिलीप जी से मिलने पहुंचा।उन्हें मेरे घूमने के शौक का पता था ,इसलिए मिलते ही उन्होंने बताया कि आपके लिए हमने एक अद्भुत नाम वाला स्थल " जा... ना... पाओ" का एक दिन की-यात्रा का प्रोग्राम बनाया हुआ है तो ऐसे
 अद्भुत नाम के स्थान के प्रति मेरी जिज्ञासा बढ़ गई।

      "जा ना पाओ" नाम के स्थान जिसे जा ना पाओ कुटी भी कहते हैं, समुद्र तल से लगभग 2500 फुट ऊंचे विंध्याचल पर्वत श्रेणी पर एक प्रसिद्ध टूरिस्ट स्थान के साथ साथ यहां के निवासियों के लिए एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल भी है।अत्यंत ही हरा भरा क्षेत्र होने से इसकी प्राकर्तिक सुंदरता  अद्भुत तो है ही साथ ही ऊंचे नीचे पहाड़ी क्षेत्र होने से ये स्थान ट्रेकर्स में भी बहुत लोक प्रिय है।इस क्षेत्र की सुंदरता का वर्णन कार्तिक पुराण में भी मिलता है।प्रति वर्ष इस स्थान पर कार्तिक माह
 में ,कार्तिक पूर्णिमा पर एक विशाल मेला भी लगता है।  निसंदेह इस वर्णन से मेरी उत्सुकता औरबढ़ गई तो मैने उनसे इस स्थल के बारे में ओर विस्तार से बताने को कहा ।
    " हमारे देश में वैसे तो भगवान विष्णु के अवतार के रूप में ,परशुराम जी के क्रोध बारे में ,साथ ही साथ पिता के कहने भर से , बगैर कोई प्रश्न पूछे,अपनी माता का सर विच्छेदन करने और मुख्य रूप से शिव के प्रिय शिष्य परशुराम को सब जानते हैं।उत्तर भारत में , विष्णु के अवतार के रूप में भी उनका जन्मोत्सव मुख्यता उत्तर भारत के सभी शहरों में खूब गाजों,बाजों के साथ पूरी धूम धाम
 से मनाया जाता रहा है।लेकिन परशुराम जी का जन्म कहां हुआ था,इस प्रश्न का उत्तर शायद ही कोई जानता हो! आप भी नहीं जानते ना ! चलिए मै आपको उनके जन्म स्थल के रहस्य  से पर्दा हटाता हूं लेकिन पहले उनके परिवार के बारे में कुछ बातें और  जान लीजिए: 

       परशुराम जी के पिता का नाम महर्षि जमदग्नि ओर माता का नाम रेणुका था।महर्षि अपनी पत्नी और चार पुत्रों के साथ इसी दुर्गम स्थान " जा ना पाओ" पर आश्रम बना कर रहते थे। आश्रम के सौंदर्य को  चारों ओर फैली घाटियां और नदियों ने एक अपूर्व ही आभा प्रदान की थी।एक बार की बात हैकि ऋषि नित्य की तरह अपनी पूजा,तपस्या में मग्न थे कि अचानक उन्हें यज्ञ हेतु जल की आवश्यकता पड़ी तो उन्होंने अपनी पत्नी रेणुका से पास ही बहती बेतवा नदी से शीघ्र जल लाने को कहा।रेणुका तुरंत अपनी मटकी उठा कर जल लेने हेतु  नदी के किनारे पहुंची।संयोगसेउस समय नदी के मध्य कुछ यक्ष ओर यक्षिनी जल क्रीड़ा का आनंद उठा रहे थे।महर्षि पत्नी रेणुका उन यक्ष और यक्षणी की जल क्रीड़ा देखने में इतनी मग्न हो गई कि उन्हें समय का बोध ही नहीं रहा।थोड़ी देर बाद जब उन्हें पति का स्मरण हुआ तो वे जल भर कर आश्रम पहुंची,लेकिन तब तक अत्यंत विलंब होने के कारण उनका यज्ञ अधूरा रह गया था।।अत्यंत क्रोधित महर्षि ने जब जल लाने में हुए विलंब का कारण जाना तो वे और क्रोधित हो गए ।क्रोध इतना अधिक हो गया कि उन्होंने एक एक कर अपने पहले तीनों पुत्रोंसे अपनी माता रेणुका का सिर कटने को कहा।तीनों पुत्र माता का शीश विच्छेदन करने का साहस नहीं कर सके तो क्रोधित महर्षि ने पुत्र परशुराम से माता का शीश विच्छेदन करने को कहा।परशुराम ने पिता केआदेश का पालन करते हुए अविलंब अपनी माता रेणुका का शीश फरसे जैसे हथियार से धड से  अलग कर दिया। पिता आज्ञा पालन करने से महर्षि इतने प्रसन्न हुए की उन्होंने परशुराम जी से कोई वरदान मांगने को कहा।परशुराम जी ने वरदान में अपनी माता रेणुका के पुनः जीवित होने को कहा।वरदान स्वरूप रेणुका जीवित हो उठीं।माता पिता की आज्ञा पालन करने के कारण महर्षि दंपति इतने प्रसन हुए की उन्होंने परशुराम को अखंड वीर होने का आशीर्वाद भी दे दिया।
    

   ख़ैर ये तो रही अध्यात्म की बात ,चलिए अब आप को इस ऐतिहासिक,धार्मिक यात्रा पर शब्दों के द्वारा ही लिए चलते हैं।इंदौर शहर से 50 किलोमीटर की दूरी पर "जा ना पाओ" कुटी हेतु प्रातः ही प्रस्थान हेतु एक टाटा मैजिक गाड़ी किराए पर ली और 2 घंटे की यात्रा के लिए निकाल पड़े अब 1घंटा तो पूरे इंदौर शहरकी,चौड़ीचौड़ी सड़कें पर करने में ही व्यतीत हो गया।सुबह सुबह की लाइफ का दृश्य प्राय हर शहर का एक जैसा है होता है।दूध वालोंकेवाहन,सब्जियोंसे भरी गाड़ियां,बीते दिन भर का कूड़ा करकट एकत्रित करते,झाड़ू बुहारते कर्मचारी,ऊंघते कुत्ते, गाय बैल,बंद दुकानें,हलकी सी वातावरण में शांति,एक अलग ही दृश्य पैदा कर रहे थे,मगर थोड़ी ही देर पश्चात् मेरी दृष्टि मुख्य मार्ग के दोनों किनारों तक फैली छोटी मोटी लेकिन पूरी तरह हरियाली से लिपटी पहाड़ियों पर फिसलरही थी। कैसा होगा वह स्थान ,जिसके नाम में ही घोषणा है कि यहा
" जा... ना ...पाओ" गे!!   
         अभी शहर कि सीमा से बाहर निकले ही थे कि पुरानी सी टाटा मैजिक गाड़ी के इंजन की तेज फट फट की आवाज ,सहन शक्ति से बाहर होने लगी।आरम्भ में तो शहर के सुबह के शोरगुल में ये कर्णभेदी आवाज अधिक नहीं लग रही थी मगर शहर से बाहर आते ही कानों में तीर की तरह कोंधने लगी थी।पता नहीं कैसे मेरे साढू भाई ,मेरी मन स्तिथि को भांप गए,थोड़ा संकोच करते हुए बोले ,भाई साहब इतनी सुबह ओर अचानक कोई और साधन का इंतजाम ना होने के कारण ही मजबूरी में ये गाड़ी करनी पड़ी।तुरंत मैने अपने चेहरे की भाव भंगिमा में परिवर्तन लाने की चेष्टा करते करते उन्हें दिलासा दी कि नहीं नहीं, इस खुली खुली गाड़ी में बाहर के दृश्य भी भली भांति दिखाई दे रहें है,आप परेशान ना हो , मै तो बस उस अद्भुत स्थान पर शीघ्रता से जाने के लिए उत्सुक हूं।   

लगभग 2 घंटों की यात्रा के पश्चात् अचानक मुख्य मार्ग से एक छोटी सी सड़क अलग हुई और हरियाली से ढकी पहाड़ियों के मध्य जैसे लुप्त सी हो गई।हमारी गाड़ी जैसे ही इस सड़क पर मुड़ी, मै विस्मृत सा हो गया।सामने दूर दूर तक ,पूरी तरह हरियाली से आच्छादित ऊंची नीची पहाड़ियां फैली हुई थी।अभी हम 200 मीटर ही चले होंगे कि लगा जैसे हम इंदौर जैसे बड़े शहर के समीप नहीं अपितु घने जंगलों के मध्य चल रहे हैं ।सड़क बाएं,दाएं के साथ साथ हर कदम पर ऊपर की ओर बढ़ रही थी ।चारों तरफ हरे भरे पहाड,घाटियां, और सूर्य की रोशनी में चमकते तालाब ,तेज परन्तु शीतल हवाओं के झोंके ,मदमस्त कर रहे थे।इतनी प्राकर्तिक सुंदरता तो मैने प्रसिद्ध हिल स्टेशनों में भी नहीं देखी थी।चढाई इतनीअधिक की गाड़ी की स्पीड और पैदल यात्री की स्पीड में कोई विशेष अंतर नहीं लग रहा था।मार्ग के दोनों ओर लंगूरों के झुंड के झुंड बैठे हुए यात्रियों को देख रहे थे कि कोई उन्हें खाने की वस्तुएं दे दे।इधर उधर उड़ते रंग बिरंगे पक्षी भी इस यात्रा के प्राकृतिक सौंदर्य में चार चांद लगा रहे थे।सच मानिए मेरा हृदय इन प्रकृति के दृश्यों में इतना मुग्ध हो गया था कि मैने गाड़ी रुकवाकर कहा कि मै इस यात्रा का अनुभव ट्रेकिंग द्वारा करना चाहूंगा।शायद मेरे साथ आए मेरे साढू भाई भी यही चाह रहे थे अतः हम दोनों गाड़ी को छोड़ कर पैदल " जा ना पाओ" आश्रम की और चल दिए ।

शुद्ध शीतल, ताजी प्राण वायु,चारों ओर जहां तक दृष्टि जाए वहां तक फैली हरियाली,प्रकर्ती के इन अनुभवों को अभी
 हम आत्मसात कर ही रहे थे कि अचानक जाने किधर से बादलों का एक झुंड हमारे सिर के ऊपर आ गया।शायद वे भी
ट्रेकिंग  का आनंद लेने हेतु यहां आ पहुंचे थे।इतने मनोहारी दृश्यों में अभी हम डूबे ही थे कि ऊपर मंडराते बादलों को जाने क्या सूझा कि एकाएक वे बूंदों के रूप में हम ट्रैकर से मिलने नीचे आ पहुंचे।शायद चढाई के कारण जो कुछ हमें उष्णता का अनुभव हो रहा था , उसे शांत करने में हमारी मदद करने को तत्पर हो गए थे।हम भी इस रिमझिम आसमान से बरसते मोतियों का आनंद ले ही रहे थे कि हमारी दृष्टि दूर ऊपर पहाड़ी कि चोटी पर स्थित " जा ना पाओ" आश्रम पर गई।

विश्वास कीजिए जो दृश्य उस समय हमने देखा ,उसका वर्णन शब्दों के द्वारा नहीं हो सकता ! एक विशाल सतरंगी इन्द्रधनुष ने पूरे आश्रम को अपने घेरे में ले रखा था।एक अद्भुत स्वर्णिम रंगो के उस क्षण के हम साक्षी बन रहे थे। इन पलों को हमने अपने कैमरे में कैद कर लिया ,जिसे इस यात्रा के माध्यम से आपको भी हम दिखाने को नहीं रोक पा रहे हैं! 

   इस ट्रेकिंग के अनुभव को आपके साथ बांटने के लिए मेरे पास अधिक शब्दावली नहीं होने केकारण मै इस ट्रेकिंग के कुछ दृश्य फोटो के रूप में आपको अवश्य दिखाना चाहूंगा ,आज के समय में दुर्लभ, ऐसे प्रकर्तिक दृश्यों का आनंद लेते,हांफते,1  घंटे की यात्रा के पश्चात हम आखिर कर आश्रम के मुख्य द्वार पर जा पहुंचे। मुख्य द्वार पर 2 विशाल काय मूर्तियों ने हमारा मार्ग रोक लिया।गाड़ी पार्किंग में लगा कर उन विशालकाय मूर्तियों को हमने गौर से देखा,ये महान चाणक्य एवम् भगवान राम जी की थी।

जहां चाणक्य ऋषि की चोटी खुली थी,चेहरे पर क्रोध की झलक थी वहीं भगवान राम जी की मूर्ति एक हाथ से विशाल धनुष को पकड़े और दूसरे हाथ को अभय  की मुद्रा में ऊपर की ओर इशारा कर रही प्रतीत हो रहीं थीं।इसके साथ ही एक बोर्ड लगा था जिस पर लिखा था " जा ना पाओ कुटी में आपका स्वागत है।" इसी बोर्ड पर आश्रम के इतिहास के बारे में भी लिखा हुए था।एक तरफ एक शिवालय था तो दूसरी ओर परशुराम जी की मूर्ति से सजा एक बड़ा सा मंदिर था,यही जा ना पाओ आश्रम था।

            शिवालय से कुछ आगे बढ़ने पर एक विशाल गोलाकार ,सीढ़ियों से घिरे,  विशाल तालाब ने हमें आश्चर्य चकित
कर दिया।इतनी ऊंचाई पर,पर्वतों के मध्य ,चारों ओर घाटियों से घिरे इस तालाब में लहरों के साथ लहराते नीले
आकाश के प्रतिबिंब के साथ साथ ,आस पास की हरियाली का प्रतिबिंब एक अनोखा दृश्य उत्पन्न कर रहा था।
सरोवर के दूसरे किनारे पर हाथ में त्रिशूल थामे ,भगवान शिव की एक विशाल प्रतिमा इस स्थान को एक विशिष्ट
गरिमा प्रदान कर रही थी।सरोवर के किनारे एक बोर्ड लगा था जिसके अनुसार इस सरोवर से इस प्रदेश की तीन
मुख्य नदियां बेतवा, गंभीर और पवित्र सरस्वती का उद्गम होता है, लेकिन मुझे तो सरोवर से कोई भी नदी निकलती
नहीं दिखाई दे रही थी! लेकिन अधिसंख्य यात्री बोर्ड की सूचना से बे खबर इस सरोवर के पवित्र जल में स्नान ,पूजा करने में लगे थे।तभी मुझे शिव मंदिर के पीछे एक अर्ध निर्मित भव्य मंदिर दिखाई दिया,तो मै उसके पास जाने से अपने को रोक नहीं सका।पता चला कि इंदौर शहर के निवासी आपसी सहयोग से इस आधुनिक परशुराम जी के जन्म स्थल का निर्माण करा रहे हैं।

सरोवर के एक किनारे पर कुछ महिलाएं ,कोयले पर मकई के भुट्टे को भून कर विक्रय कर रही थीं जिनको खरीदने
हेतु  ना केवल यात्रियों की भीड़ लगी थी,अपितु उन भुट्टो के स्वाद चखने हेतु कोई ओर भी निगाहें गड़ाए बैठे थे ,वे
थे ….. काले मुख वाले लंगूर ! जी हां, लंगूर।ये इतनी अधिक संख्या में थे कि देख कर हैरानी हुई,फिर समझ में आया
कि इस आश्रम के चारों ओर फैला जंगल इनका शानदार निवास स्थल है।
     कुछ ही देर में इस पवित्र आश्रम का भ्रमण पूरा हो गया।कहने को तो ये एक ऐतिहासिक स्थान है परन्तु
ऐतिहासिकता मुझे तो कहीं नजर नहीं आ रही थी,लेकिन आस्था और विश्वास के आगे मै नतमस्तक था। मै तो इस
आश्रम के चारों ओर फैले प्रकृति के सौंदर्य को ही इस आश्रम की उपलब्धि मानता हूं।इस यात्रा के माध्यम से मै आप
सब पाठकों से एक बार अवश्य आग्रह करूंगा कि जहां यह आश्रम हम भारतीयों के एक प्राचीन इतिहास को हमारे
सामने कल्पना से यथार्थ रूप में दिखाता है वहीं प्रकृति के अनमोल खजाने का यह एक ऐसा भंडार है जो इस प्रदेश
में शायद ही कहीं अन्यत्र मिलता हो, अतः आप सब से अंत में यही अनुरोध कर के अपनी यात्रा के इस अनुभव को
समाप्त करता हूं कि जब भी आपको मोका मिले तो इंदौर शहर के समीप इस आश्रम में एक बार तो आवश्य जाए
जिसका नाम ही है  " जा... ना... पाओ"।

      


शनिवार, 7 सितंबर 2019

यात्रा……… …ट्रेन की …..W T

    यात्रा………  …ट्रेन की …..W T   
           
           (READING Time : 5 mnt)



  जी हां,हेडिंग से आप चौंक गए होंगे कि इसका क्या मतलब निकलता है! तो चलिए मै आपको
 इस हेडिंग का मतलब समझता हूं मगर इस के लिए आपको मेरे साथ ट्रेन की यात्रा करनी होगी।
 चौंकिए नहीं,जी हां,ट्रेन की यात्रा और वो भी… W T .क्या कहा कि क्या मतलब है इस W T का?
  इसी लिए तो कह रहा हूं कि इस के लिए आपको मेरे साथ ट्रेन की यात्रा पर चलना होगा।तैयार है
 ना आप तो आइए चलते हैं।
           ये यात्रा मैने उन दिनों की थी जब मुझे नौकरी करते हुए तीन चार वर्ष हो गए थे।कुछ सह
 कर्मियों से संबंध, दोस्ती से भी अधिक हो गए थे।एक दिन ऑफिस में भोजन अवकाश के दौरान 
भोजन शुरू ही किया था कि अचानक संदेशवाहक एक रजिस्टर ले कर आया और बोला कि इस
 पर सिगनेचर कर दो।मैने कुछ रोष दिखाते हुए कहा  देखते नहीं हम खाना खा रहे है।लेकिन वो
 मायूसी दिखाते हुए बोला कि मैने मैनेजर साहब को भी ये बताया था मगर उन्होंने कहा कि अर्जेंट है
 इस लिए अभी करा के लाओ। तुरंत मेरा दोस्त लगभग चिल्लाते हुए बोला भाड़ में जाए रजिस्टर,
कह दो कि खाने के बाद ही  सिगनेचर करेंगे ,जाओ। हमारे तेवर देख कर वो लौटने लगा तो मुझसे
 रहा नहीं गया ।उसे रोकते हुए मैने पूछा एसी क्या अर्जेंट बात है जो मैनेजर साहब तुरंत सिगनेचर के
 लिए कह रहे हैं? लेकिन वो रुका नहीं और वापस जाते हुए बोला कि चुनाव की घोषणा हो गई है ,
और तुम सब की चुनाव ड्यूटी लगेगी,और कोई कर्मचारी इस बीच छुट्टी ना लेले इसीलिए उनका ये
 लिखित ऑर्डर है जिस पर तुम सब को मंजूरी के लिए साइन करने को कहा है।अब तुम जानो और
मैनेजर,कहते हुए वो पैर पटकते हुए चला गया।                                 
        हमारा तो जैसे खाने का स्वाद ही चला गया। हे भगवान , चुनाव ड्यूटी! पिछली सारी यादें ताजा
 हो गई जो चुनाव ड्यूटी के दौरान बीती थी।
        झट पट खाना समाप्त करके मैने अपने तीनों दोस्त " सतीश शर्मा,गोपी नाथ शर्मा और कांड पाल"
 से इस ड्यूटी से बचाव की  कोई तरकीब सोचने को कहा।हमारे पास समय केवल आज शाम तक ही
 था ,क्योंकि आज तो  रजिस्टर पर सिगनेचर करना टल गया था लेकिन कल तो करने  ही पड़ेंगे ।तुरंत
 फैसला लेना था और ले लिया।एक मत से उपाय निकला कि कल हम चारों ऑफिस में बीमारी का
 मेडिकल सार्टिफिकेट  भिजवा देंगे और फिर इलाज के बहाने घर से एक सप्ताह के लिए बाहर चले
 जाएंगे ताकि मैनेजर घर पर सिगनेचर करने के लिए किसी को भेजे तो हम ना मिले।एकमत से निष्कर्ष
 निकाला कि इन सात दिनों के लिए कोई नई जगह घूमने चलेंगे।घूमने की जगह भी सोच ली।मथुरा से
 पहले झांसी फिर भोपाल,फिर मध्य प्रदेश का वर्ल्ड क्लास हिल स्टेशन पचमढ़ी और वापसी जबलपुर
 होते हुए।अचानक मैने सुझाव दिया कि यारो, यात्रा मेंऔर रोमांच लाने के लिए क्यों ना ट्रेन में  W T चलें?
अब जवानी का जोश, किसे चिंता थी परिणाम की।बगैर आगे पीछे कुछ सोचे सब की हां हो गई।"कल सुबह
 स्टेशन पर ठीक दस बजे मिलेंगे",यह तय करके, आज का काम ख़तम करने अपनी अपनी सीटों पर चले
 गए।


    
     " ट्रेन न 12618 मंगला एक्स प्रेस कुछ ही समय में प्लेटफार्म न 1 पर आने वाली है" ये घोषणा सुनते
 ही हम सब साथी ट्रेन के आखिर में लगने वाले जनरल बोगी की तरफ बढ़ चले।आप सोच रहे होंगे कि जनरल
बोगी में क्यों? वो इस लिए कि मै ये जनता था कि अक्सर जनरल बोगी में बहुत भीड़ होती है जिसके कारण 
 टी टी आई उसमें घुसने से परहेज़ करते हैं यानी कम खतरा!ट्रेन आई और हम जनरल बोगी में  घुसे और
 थोड़ी कसरत के बाद चारों को बैठने के लिए सीट भी मिल गई।थोड़ी देर में ही ट्रेन चल पड़ी ,हमारी पहली मंजिल
थी, झांसी।कुछ मिनट बाद अचानक गोपी नाथ  कुछ फुफुसाते सा मेरे कान में बोला " यार मुझे तो
 W T चलने में घबराहट हो रही है,अगर टी टी आई आ गया तो?" तो क्या,मै…. हूं….ना! मैने शायद शहरुख खान
की नकल करते हुए उसे कहा। हालांकि मेरा भी W T  का यह पहला ही सफर था।तभी मेरे बाकी
 दोनों दोस्तों ने भी अपने मुख के उन भावों से मुझे देखा जैसे की गोपी नाथ देख रहा था।चलिए, अब शायद आपको
भी W T का अर्थ बताने का समय हो गया है।अरे भाई, सिम्पल "विदाउट टिकट"!
         मै समझ गया कि दोस्तों को दिलासा देना जरूरी है नहीं तो शायद घबरा कर अगले स्टेशन पर 
या तो उतर जाएंगे और या अगर टी टी आई सचमुच आ गया तो उनके मुख के घबराहट के भावों को देख
 कर सीधे हमारे ही पास चला आएगा।अब क्योंकि ट्रेन में मैने काफी सफर किया है एवं सर्विस के कारण
 मेरे कुछ मित्रों में टी टी आई भी रहे हैं ,तो एक बार बातों ही बातों में उन्होंने मुझे बताया था कि जैसे ही हम टिकट
चेकिंग के लिए ट्रेन की बोगी में चढ़ते है तो अक्सर बगैर टिकट वालों के मुख पर घबराहट के चिन्ह
 उबर आते हैं और अनुभव से हम इन चिन्हों को समझ जाते हैं, और सीधे उन्हें ही पकड़ लेते हैं।अब ये बात
 इस समय  मुझे भी याद आ गई , इस लिए अपने साथ साथ दोस्तो को भी नॉर्मल होने के लिए समझा रहा था!
 लेकिन नार्मल होना इतना आसान नहीं था।झांसी की यात्रा के दौरान जब जब ट्रेन किसी स्टेशन पर रुकती थी तो
हमारे दिलों की धड़कन भी रुकने लगती थी। निगाहें बोगी के दरवाजे पर टिकी रहती थी कि कहीं टी टी
 आई अंदर ना आजाए,और तभी चैन आता था जब ट्रेन अपने सफर पर आगे बढ़ने लगती थी  ख़ैर झांसी का सफर
4 घंटे के करीब था और कोई टी टी आई भी इस दौरान नहीं आया।जैसे ही ट्रेन झांसी पर रुकी, हम
 उतर गए। इस पहले W T  सफर के दौरान जो अनुभव अंदर से मुझे हुए उनमें से एक आप से भी शेयर करूंगा ।
इस पूरे सफर के दौरान शायद मेरा B P  भी बढ़ा हुआ रहा होगा क्योंकि प्लेट फॉर्म पर उतर कर मुझे भी अच्छा
फील हुए था।

     
     अब अगली चुनौती थी स्टेशन से बाहर निकल ने की! इधर भी मेरा अनुभव ही काम आया।मैने दोस्तो
 को समझाया कि थोड़ा आगे पार्सल आफिस है उसमे से बाहर जाने का रास्ता होता है क्योंकि ट्रेन में पार्सल के
द्वारा सामान बुक करने लोग आते रहते है ,फिर कर्मचारी उन पार्सलों को सीधे खुले रास्ते से प्लेटफार्म पर पहुंचा
देते हैं।मेरे ये बताने पर भी तीनों दोस्तों ने घबराहट के कारण अकेले जाने से इंकार कर दिया।अब मैने ही पहल
की और एक एक दोस्त को पार्सल आफिस के पास ले जा कर बाहर निकाल लाया।जब आखिर में मै भी बाहर
सकुशल आ गया और दोस्तों से मिला तो मै समझ रहा था कि वे लोग मुझे हीरो समझेंगे ,मगर यहां तो सीन ही
बदला हुए था।तीनों दोस्तों ने एक स्वर में धमकी भरे अंदाज में कहा" बहुत हो गया,अब बाकी सफर टिकट ले
कर ही करेंगे,इतनी टेंशन झेलना हमारे बस की नहीं है।" ठीक है,ठीक, मान ली तुम्हारी बात, फिलहाल तो कुशल
पूर्वक जब  बाहर आ ही गए हैं तो सब भूल कर झांसी का किला देखने चलते हैं।
       



 देर शाम को जब हम वापस झांसी स्टेशन आए ,टाइम टेबल के बोर्ड को देखा तो पता लगा कि हमारी अगली
मंजिल भोपाल के लिए ट्रेन रात को लगभग 11 बजे आएगी और सुबह  5.30 पर भोपाल पहुंचेगी।यानी ट्रेन आने में
अभी 2 घंटे शेष थे।स्टेशन के बाहर साधारण से होटल में भोजन करते हुए मैने अपने दोस्तों को समझाया कि देखो
भाई लोगो, कुछ भी कहो इस  यात्रा में जो रोमांच मिला है वो हम सबको हमेशा याद रहेगा,अरे टिकट ले कर तो सभी
सफर करते हैं,लेकिन W T का ये सफर हमें हमेशा याद रहेगा।वैसे टिकट के पैसे भी हमारे पास हैं,हम तो केवल
रोमांच के लिए ये यात्रा कर रहे हैं। मान लो  कि अगर टी टी आई हमें W T पकड़ भी लेगा तो हम जुर्माना दे कर बच
जाएंगे, कोई फांसी थोड़े होगी! सारे दोस्त मेरे जबरदस्त भाषण से असमंजस में पड़ गए।तब मैने एक छक्का और
मारा कि चलो एक समझौता और करते हैं , अगर कभी टी टी आई अगर हमें पकड़ता है तो सब लोग अलग अलग
बचने की कोशिश करेंगे ।अब  टी टी आई तो एक ही होगा तो जुर्माना भी एक पर ही लगेगा, जिसको हम आपस में
बांट लेंगे। आशा के अनुरूप मेरी इ बात क जबरदस्त असर हुआ,दोस्तों की टेंशन भी काफी कम हो गई और वे यात्रा
के रोमांच के कारण तैयार  हो गए।और हम प्लेटफार्म पर आ गए भोपाल की यात्रा के लिए।
          ठीक टाइम पर ट्रेन आई और हमारा जनरल बोगी का सफर फिर शुरू हो गया।हमारे आस पड़ोस के यात्री तो
नींद के झोंके ले रहे थे,नींद हमें भी आ रही थी मगर W T की टेंशन से उड भी रही थी ।रात का सफर,खिड़कियों से
आती  ठंडी हवा,ट्रेन के चलने की आवाज जहां और यात्रियों को लोरी सुनाने का काम कर रही थी, वहीं हम चारों के
लिए टेंशन बढ़ाने का काम कर रही थी।6 घंटों का सफर मानो 16 घंटो का लग रहा था। सब एक ही बात सोच रहे थे
कैसे भी बस भोपाल आ जाए। पूरी रात राम राम जपते आखिरकार भोपाल आ ही गया। बाहर निकलने का वहीं तरीका
अपनाया और हम सब बाहर।सच बताएं हम सब ऐसा महसूस कर रहे थे,जैसे कोई बड़ा युद्ध जीत कर आए हैं।अब
की बार शायद मेरे मित्रों की हिम्मत बढ़ गई थी क्योंकि बाहर चाय पीते हुए सब ने एक स्वर से कहा " मान गए यार
तुम्हें, वाह! मैने भी होंसला अफजाई करते हुए ,,छाती फुलाते हुए ,रोब दर आवाज में फिर एक बार कहा " मेरे होते
हुए काहे की फिकर, मै...हूं…ना!"
         भोपाल हम एक दिन में जितना घूम सकते थे घूमे,टी टी नगर,लाल घाटी,बड़ा तालाब और भी बहुत जगह।रात
होते होते वापस स्टेशन,टाइम टेबल देखा ,और रात 10 बजे की ट्रेन फाइनल की , 2  घंटे के इटारसी के सफर के लिए
क्योंकि इटारसी से ही ट्रेन बदल कर एक छोटे से स्टेशन पिपरिया पर उतर कर, पचमढ़ी हिल स्टेशन जाना होता है।
यह सफर भी 4 घंटों के लगभग का ही था लेकिन अंदर की बात यही कि रात के ट्रेनों में टी टी आई कम ही आते हैं।
पिपरिया स्टेशन  से केवल बस द्वारा ही पचमढ़ी पहुंचा जा सकता है।
       ठीक 10  समय पर ट्रेन आ गई और शुरू हुआ पिछली रात की तरह इटारसी का सफर ।लेकिन आज इस रात
के सफर का अंदाजा कल के सफर से बिल्कुल अलग था।कल हमारा सफर टेंशन का था मगर 2 रातो के W T के
अनुभवों ने हमारी हिम्मत इतनी बढ़ा दी थी कि ट्रेन चलते ही नीद के झोंके आने लगे।देखते ही देखते तीनों मित्र नींद
के आगोश में समा गए।वैसे नींद के झोंके मुझे भी अपनी गोद में सुलाने के लिए बुला रहे थे,मगर   मै सीमा पर तेनात
सिपाही की तरह सजग होने की कोशिश में लगातार जागते रहने का प्रयत्न कर रहा था कि कहीं अचानक दुश्मन रूपी
टी टी आई हमला न कर दे!
       ऐसे हालातों से गुजरते,लगातार घड़ी देखते देखते आखिरकार हमारी ट्रेन इटारसी शहर के पास आ गई।ट्रेन की
रफ्तार कम होने लगी। प्लेटफॉर्म से कुछ ही पहले मैने खिड़की से बाहर झांका तो मुझे दूर कुछ भीड़ सी नजर आईं।
मेरी छटी इन्द्रियों ने मुझे सचेत किया कि आगे कुछ गड़बड़ है।तुरंत मैने साथियों को जगाया ।ट्रेन की स्पीड बहुत कम
थी ही,हम ट्रेन के आखिरी बोगी में बैठे थे, अतः मैने तुरंत निर्णय लिया कि हमें स्टेशन से पहले उतर जाना चाहिए,और
स्पीड कम होने के कारण हम उतर भी गए।रात्रि के 12 बजे थे मगर W T के  रोमांच प्रभाव से हम पूरी तरह सजग थे।
  

      प्लेटफॉर्म से कुछ पहले,रुकती सी ट्रेन से हम सब उतर गए।चूंकि हम आखरी बोगी में थे इस लिए ट्रेन की स्पीड
भी बहुत कम हो चुकी थी।बस फिर क्या था, लाईन पार करके, सामने स्टेशन के पीछे की सड़क पर आ कर हम
पैदल ही  स्टेशन की तरफ चल दिए।हालांकि रात्रि के12 बज चुके थे लेकिन कुछ दुकानें खुली हुई थी। रौनक भी
काफी थी।इस समय हम चारों दोस्त एक अनोखी सी गर्वीली चाल से चल रहे थे जैसे किसी जासूसी मिशन को पूरा
करने निकले है और सफलता लगातार मिलती जा रही है !!
        इटारसी के प्लेटफॉर्म पर अंदर जाने वाले गेट से झांका तो गर्व से मैने अपनी पीठ खुद ही ठोकली! वास्तव में
प्लेटफॉर्म पर टी टी आई का समूह रात को आने,जाने वाली ट्रेनों में W T यात्रियों की धर पकड़ कर रहा था।
समझदारी इसी में थी कि टिकट लेनी चाहिए ,मगर फिर हमारे W T मिशन का ,रोमांच का क्या होता।टिकट तो
लेनी नहीं थी तो अब क्या करें? तुरंत ही एक सुझाव मेरे दिमाग में काेंधा, क्यूं ना हम 5 रुपए की प्लेटफॉर्म टिकट
खरीदें,जिस से हमारा मिशन W T  भी पूरा होगा और टी टी आई से भी सुरक्षित रहेंगे।एकमत हो प्लेटफॉर्म टिकट
ले कर प्लेटफॉर्म के अंदर प्रवेश कर गए।    
          अंदर आ कर अपने इस निर्णय पर वाकई हमें खुशी मिली।टी टी आई ट्रेन के यात्रियों के साथ साथ प्लेट फॉर्म
पर आने वाले प्रत्येक यात्री की भी चेकिंग कर रहे थे।खैर आधे घंटे के बाद बंबई से जबलपुर जाने वाली ट्रेन आ गई
और हम अपनी अगली मंजिल " पिपरिया" स्टेशन के लिए रवाना हो गए।


    
    लगभग  2 बजे के करीब हम सब पिपरिया के प्लेटफॉर्म पर उतर गए।कुछ देर बाद ट्रेन अपनी मंजिल की तरफ बढ़ गई।पिपरिया का प्लेट़ार्म एक दम खाली था।भला इस छोटे से स्टेशन पर इस बे समय पर कोन उतरता? स्टेशन पर दो या तीन ही कमरे बने थे।एक पर स्टेशन मास्टर का आफिस,दूसरे में रेलवे पुलिस का आफिस।अब पचमढ़ी जाने के लिए बस किधर से मिलेगी ,ये किस से पूछें? अब रेलवे अधिकारियों से तो पूछ ही नहीं सकते थे।कारण आपको पता ही था,इस लिए सोचा की स्टेशन के बाहर किसी चाय वाले दुकानदार से पूछेंगे , बाहर की ओर चल दिए।आधी रात में कोई टिकट पूछने वाला था ही नहीं।बाहर आए तो केवल एक ही चाय का खोका खुला था।उस से पूछा तो बोला कि पचमढ़ी जाने की पहली बस सुबह 6 बजे ही आएगी,और कोई साधन इस समय नहीं मिलेगा।कारण पूछने पर बोला की इस समय ऑफ सीजन होने के कारण इक्का दुक्का ही यात्री घूमने आते हैं ।सीजन में काफी यात्री आने के कारण साधन भी खूब मिलते हैं।
       अब सुबह के 6 बजने में 4 घंटे शेष थे।स्टेशन के बाहर कोई ऐसा स्थान नहीं था जिधर समय बिताया जाए। तय हुआ
कि वापस स्टेशन ही चला जाए ,वहीं किसी बेंच पर बैठ कर , तांश आदी खेल कर समय बिताया जाए।अतः वापस आये
और खाली प्लेटफार्म की खाली पड़ी बेंचो पर बैठ गए।आधी रात,ना कोई आने वाला,ना कोई  जाने वाला ।अब हम चारों
मित्रों ने समय पास करने के लिए तांस खेलने शुरू कर दिए क्योंकि समय तो काटना ही था।
        अभी खेलते हुए आधा घंटा ही बीता  था कि अचानक ना जाने किधर से हाथ में डंडा पकड़े एक रेलवे का सिपाही
प्रगट हो गया।" ये क्या कर रहे हो ,क्या खेल रहे हो इधर" उसने कड़क कर पूछा।हम अचकचा गए।और कोई समय
होता तो हमे कोई फ़र्क नहीं पड़ता,मगर वो कहावत है ना कि " चोर की दाढ़ी में तिनका" अब आप समझते ही हैं कि
ऐसा हम क्यों कह रहे हैं!! तब भी हमने थोड़ा तेज लेकिन नम्रता के से अंदाज वाली आवाज में कहा " हम टूरिस्ट हैं,
पचमढ़ी जाना है और सुबह 6 बजे पहली बस मिलेगी ,इसीलिए ट्रेन से उतर कर समय काटने के लिए इधर बैठे खेल
रहे हैं।वो शायद हमारी दृढ़ता से बात करने के अंदाज से वापस चला गया।मगर कुछ ही मिनट बाद लौट आया
" चलो आपको हमारे इंस्पेक्टर साहब बुला रहे हैं"।अब काटो तो  खून नहीं,अंदर से हम सब घबरा गए ।जाना तो पड़ेगा
ही,क्योंकि इंस्पेक्टर का बुलावा था।" चलो ,हम आ रहे हैं" यह सुनकर सिपाही तो लौट गया ,अब अगर साहब ने टिकट
चेक करने के लिए मांगी तो क्या होगा?कैसे सिद्ध करेंगे कि हम वास्तव में यात्री हैं,अब क्या करें?
         तुरंत ही हमने अपनी आखरी दांव चलने की योजना बना ली और चौकी की तरफ चल दिए , जैसे ही हम इंस्पेक्टर
के सामने पहुंचे ,हम सब ने अपने बैंक के आई कार्ड उनके सामने रख दिए और अपने इधर रात को आने का कारण
बता दिया। आई कार्ड का प्रभाव पड़ना ही था और पड़ गया।वे समझ गए कि हम बैंक के कर्मचारी है,दूर मथुरा से
आए हैं ,मजबूरी वश ही बैठे हैं।वे नरम आवाज में बोले " देखो स्टेशन पर कार्ड खेलना अच्छा नहीं लगता है।मगर सर,
हम जुआ नहीं केवल कोर्ट पीस खेल रहें है"।जो भी हो अगर खेलना ही है तो मै आप के लिए बगल का कमरा खुलवा देता
  हूं,आप उधर अंदर ही खेलें।स्पष्ट था कि वे हमारे बैंक कर्मचारी होने से प्रभावित हो गए थे।हमें तो हां कहना ही था ,कोई
और उपाय था ही नहीं।
        कमरे में आकर हम सब की घबराहट काफुर हो गई।दरवाजा बंद कर के हम अपनी इस चाल पर फूले   ना
समाए।हंस हंस कर लौट पोट हो गए।सारे दोस्तों पर मेरी नेतागिरी का जादू चल चुका था।एकांत में सब ने मेरी तारीफों
के पुल बांध दिए ।लेकिन अंदर ही अंदर मै अच्छी तरह जानता था कि ये असर हमारे बैंक के आई कार्ड का था।अगर
वे टिकट चेक कर लेते तो इस समय हम इस कमरे में नहीं होकर किसी अन्य कमरे में होते!!
          3 दिनों के बाद पचमढ़ी हिल स्टेशन घूम कर वापस शाम के समय फिर इसी स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर आ गए,और
उस रात के अनोखे अनुभव को याद कर कर हंसते मुस्कुराते रहे।
         अब हमारी अगली मंजिल थी" जबलपुर" जो कि पिपरिया से 3 घंटे की दूरी पर था।यह सफर भी पिछले सफरों की
तरह आराम से W T  हो गया।
   


   2  दिनों के जबलपुर घूमने के बाद हम फिर एक बार सीधे वापस अपने घर मथुरा जाने के लिए,जबलपुर के प्लेटफॉर्म
पर शाम के 3 बजे सीधे मथुरा जाने वाली जबलपुर एक्सप्रेस में पहले ही की तरह लास्ट जनरल की बोगी में बैठ गए।हमारे
इस W T सफर का चूंकि बड़ा हिस्सा कुशलता पूर्वक पूरा हो चुका था ,इस लिए इस सफर के लिए हम  निश्चिंत ,पूरे
उत्साह के साथ बोगी में बैठे थे।
          ट्रेन के मथुरा के लिए चलने से ठीक 5  मिनट पहले अचानक मेरा ध्यान ,मेरे साथ बैठे 2 दैनिक यात्रियों की
बातचीत पर चला गया।उनमें से एक अपने दूसरे साथी से पूछ रहा था " तेरे पास एम एस टी तो है ना? पहले ने जवाब
दिया " हां ,है मगर क्यों पूछ रहा है?" "अरे अगले स्टेशन कटनी पर आज मजिस्ट्रेट चेकिंग है,मुझे पता लग गया है।
" अब वे तो खामोश ही गए मगर मेरे दिल की धड़कन तेज हो गई।" मजिस्ट्रेट चेकिंग मतलब गारंटी से पकड़े जाना"।
मैने अपने दोस्तों की तरफ देखा।वे बेखबर आपस में बातों मै लगे थे।ट्रेन चलने में अब कुछ ही मिनट शेष थे।मुझे तुरंत
निर्णय लेना था।मैने सोचा इस बात को दोस्तों से शेयर कर ही लूं तो ठीक रहेगा,और जब तक हम सब किसी निर्णय पर
आते,ट्रेन चल दी।अब कुछ नहीं कर सकते थे।देखा जाएगा , यह सोच कर चुप बैठ गए कि पिछले किए हुए हर W T 
की यात्रा में कोई परेशानी नहीं आई थी,अब आगे भी " भाग्य" हमारे साथ है।        
          लगभग 2 घंटो की यात्रा के बाद ट्रेन की स्पीड कम होने लगी तो मैने आशंका से खिड़की से बाहर झांका तो
समझ गया कि साथ बैठे यात्री की चेकिंग का अनुमान सही था।दूर से ही प्लेटफार्म पर टी टी आई का झुंड नजर आ
रहा था।ट्रेन की दूसरी तरफ भी पुलिस वालों का दल खड़ा था।तुरंत मैने दोस्तो को आनेवाली परिस्थितियों से अवगत
करा दिया।उस कम समय हम जो कर सकते थे उसका तुरंत प्लान बना लिया।मैने कहा सब अलग अलग हो जाओ,
एक दोस्त ट्रेन के टॉयलेट में घुस जाए,दूसरा ट्रेन रुकते ही उल्टी तरफ से नीचे उतरकर सामने के दूसरे प्लेटफार्म पर
पानी पीने के बहाने उतर जाए।कुछ क्षणों में ही ट्रेन रुक गई ,रुकते ही तीन चार टी टी आई बोगी में चढ़ गए और टिकट
चेक करने लगे।हम चारों, योजना के अनुसार इधर उधर होने लगे मगर एक टी टी आई की तेज नजरों ने मंजर भांप
लिया,सीधे मेरी ही तरफ आया और टिकट मांगी। मै समझ गया कि अब कोई उपाय नहीं है तो योजना के अनुसार मै
पकड़ा तो गया हूं ,जुर्माना तो देना ही होगा,इसलिए टी टी से थोड़ी बहस करूंगा ताकि अन्य टी टी आई का ध्यान मेरी
तरफ हो जाए और मेरे अन्य दोस्तों को बच निकलने का अवसर प्राप्त हो जाए।ऐसा ही हुआ।मैने टी टी से बहस करना
शुरू कर दिया कि मैं लास्ट मिनट पर जबलपुर स्टेशन पहुंचा था,मुझे कटनी से अगले स्टेशन " सतना" तक ही जाना है
आप टिकट के पैसे लेकर टिकट बना दो , मै जुर्माना नहीं दूंगा।बहस तेज हुई तो अन्य टी टी आई भी मेरे पास आ गए,
लेकिन,दोस्तों को बचाने हेतु, मै उनसे भी उलझ पड़ा ।योजना के अनुसार,इसी समय मेरे अन्य तीनों दोस्त इधर उधर
हो कर टी टी आई की तलाशती नजरों से बच निकलने में सफल हो गए।अब चूंकि ट्रेन को तो निर्धारित समय पर ही
आगे बढ़ना था,तो उसके इंजन ने भी सिटी बजा दी।सिटी की आवाज सुनते ही मैने टी टी आई  को अपना बैंक का
आई कार्ड निकाल कार दिखाया कि मै एक बड़े बैंक का कर्मचारी हूं,कोई एरा गेरा नहीं।अब कुछ मेरे बैंक कर्मचारी,
कुछ ट्रेन के चलने का समय ,समय की कमी ,आखिरकार टी टी आई मजबूर हो ने लगे।बोले अच्छा तो जबलपुर से
सतना तक का टिकट किराया और 100 की जगह 50 रुपए ही दे दो,इतना तो तुम्हे देना ही पड़ेगा।मैने मुंह बनाते
हुए धीरे धीरे जेब से पैसे निकालने शुरू कर दिए।पहले इस जेब से कुछ, फिर दूसरी जेब से कुछ ,फिर तीसरी जब
से कुछ।इतने में ही गार्ड की ट्रेन चलाने के लिए की गई सिटी कि आवाज भी मेरे कानों में आ गई ।टी टी आई बेचैन
होने लगे ,अरे जल्दी करो,ट्रेन चलने ही वाली है।मैने फिर भी उनके बताए किराए की रकम धीरे धीरे गिनने लगाऔर
जैसे ही ट्रेन हिली,मैने वे पैसे उन्हें से दिए।ट्रेन के चलते ना चलते वे सब रसीद बनाकर लगभग उतरने को भागे. वाह!
अब बेशक मैने जुर्माने के पैसे तो दे दिए 
मगर मेरी तरकीब की वजह से तीन अन्य दोस्त साफ बच गए। चारों के मुकाबले में एक पर जुर्माना कोई मायने नहीं
रखता था,क्योंकि वायदे के अनुसार ये भी हम चारों में ,बराबर ही बंटना था।

          इसके बाद तो उस रात के मथुरा तक के सफर में कोई अन्य टी टी नहीं  आया और हमारा ये ऐतिहासिक ,
हमेशा याद रहनेवाला ,रोमांच से भरपूर सफर समाप्त हो गया। अब यहां में एक बात वर्तमान रेल अधिकारियों से क्षमा
मांगते हुए निवेदन करना चाहूंगा कि इस  W T यानी विदाउट टिकट यानी बगैर टिकट की यात्रा के सन्दर्भ में कोई
दुर्भावना या नुकसान पहुंचाने की भावना नहीं थी।ये तो केवल जवानी के जोश में रोमांच के लिए किया गया सफर था।
ये हमारा पहला और आखिरी ही W T  की यात्रा थी उस के बाद हम हमेशा टिकट ले कर ही यात्रा करते हैं और दूसरों
को भी टिकट लेकर ही यात्रा करने का अनुरोध करते है।आज भी अब अगर रेलवे हमसे अगर उस W T सफर के
टिकट की धन राशि मांगे गी,तो हम उसे देने को राजी हैं बाकी आज कल चल रहे" मी टू" के अभियान का इस से
कोई लेना देना नहीं है, सबसे एक ही अनुरोध है कि टिकट ले कर चैन से यात्रा करे,इसमें आप का भी भला,और
देश का भी भला निहित है। इस तरह हमारी,कभी ना भूलने वाली, एक रोमांच से भरी,W T यात्रा समाप्त हो गई।