शनिवार, 28 सितंबर 2019

यात्रा……… जा ****** ना ****** पाओ

यात्रा……… जा ****** ना ****** पाओ                   
                        
( महर्षि पर शुराम जन्म स्थल)
  


     " जा ,ना ,पाओ" ,जी हां , मै अब आपको जिस अद्भुत ,रहस्यमई यात्रा पर ले कर जा रहा हूं ,उस स्थान का नाम भी यही है।जा..,ना.. पाओ ! इस शब्द का अर्थ भी यही होता है कि वो स्थान जहां जा ना पाएं! यहां मै स्वीकार करता हूं कि उपरोक्त नाम के स्थान के बारे में मुझे भी पिछले माह ही पता चला, जब मै इंदौर में निवास करने वाले मेरे साढू भाई डाक्टर दिलीप जी से मिलने पहुंचा।उन्हें मेरे घूमने के शौक का पता था ,इसलिए मिलते ही उन्होंने बताया कि आपके लिए हमने एक अद्भुत नाम वाला स्थल " जा... ना... पाओ" का एक दिन की-यात्रा का प्रोग्राम बनाया हुआ है तो ऐसे
 अद्भुत नाम के स्थान के प्रति मेरी जिज्ञासा बढ़ गई।

      "जा ना पाओ" नाम के स्थान जिसे जा ना पाओ कुटी भी कहते हैं, समुद्र तल से लगभग 2500 फुट ऊंचे विंध्याचल पर्वत श्रेणी पर एक प्रसिद्ध टूरिस्ट स्थान के साथ साथ यहां के निवासियों के लिए एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल भी है।अत्यंत ही हरा भरा क्षेत्र होने से इसकी प्राकर्तिक सुंदरता  अद्भुत तो है ही साथ ही ऊंचे नीचे पहाड़ी क्षेत्र होने से ये स्थान ट्रेकर्स में भी बहुत लोक प्रिय है।इस क्षेत्र की सुंदरता का वर्णन कार्तिक पुराण में भी मिलता है।प्रति वर्ष इस स्थान पर कार्तिक माह
 में ,कार्तिक पूर्णिमा पर एक विशाल मेला भी लगता है।  निसंदेह इस वर्णन से मेरी उत्सुकता औरबढ़ गई तो मैने उनसे इस स्थल के बारे में ओर विस्तार से बताने को कहा ।
    " हमारे देश में वैसे तो भगवान विष्णु के अवतार के रूप में ,परशुराम जी के क्रोध बारे में ,साथ ही साथ पिता के कहने भर से , बगैर कोई प्रश्न पूछे,अपनी माता का सर विच्छेदन करने और मुख्य रूप से शिव के प्रिय शिष्य परशुराम को सब जानते हैं।उत्तर भारत में , विष्णु के अवतार के रूप में भी उनका जन्मोत्सव मुख्यता उत्तर भारत के सभी शहरों में खूब गाजों,बाजों के साथ पूरी धूम धाम
 से मनाया जाता रहा है।लेकिन परशुराम जी का जन्म कहां हुआ था,इस प्रश्न का उत्तर शायद ही कोई जानता हो! आप भी नहीं जानते ना ! चलिए मै आपको उनके जन्म स्थल के रहस्य  से पर्दा हटाता हूं लेकिन पहले उनके परिवार के बारे में कुछ बातें और  जान लीजिए: 

       परशुराम जी के पिता का नाम महर्षि जमदग्नि ओर माता का नाम रेणुका था।महर्षि अपनी पत्नी और चार पुत्रों के साथ इसी दुर्गम स्थान " जा ना पाओ" पर आश्रम बना कर रहते थे। आश्रम के सौंदर्य को  चारों ओर फैली घाटियां और नदियों ने एक अपूर्व ही आभा प्रदान की थी।एक बार की बात हैकि ऋषि नित्य की तरह अपनी पूजा,तपस्या में मग्न थे कि अचानक उन्हें यज्ञ हेतु जल की आवश्यकता पड़ी तो उन्होंने अपनी पत्नी रेणुका से पास ही बहती बेतवा नदी से शीघ्र जल लाने को कहा।रेणुका तुरंत अपनी मटकी उठा कर जल लेने हेतु  नदी के किनारे पहुंची।संयोगसेउस समय नदी के मध्य कुछ यक्ष ओर यक्षिनी जल क्रीड़ा का आनंद उठा रहे थे।महर्षि पत्नी रेणुका उन यक्ष और यक्षणी की जल क्रीड़ा देखने में इतनी मग्न हो गई कि उन्हें समय का बोध ही नहीं रहा।थोड़ी देर बाद जब उन्हें पति का स्मरण हुआ तो वे जल भर कर आश्रम पहुंची,लेकिन तब तक अत्यंत विलंब होने के कारण उनका यज्ञ अधूरा रह गया था।।अत्यंत क्रोधित महर्षि ने जब जल लाने में हुए विलंब का कारण जाना तो वे और क्रोधित हो गए ।क्रोध इतना अधिक हो गया कि उन्होंने एक एक कर अपने पहले तीनों पुत्रोंसे अपनी माता रेणुका का सिर कटने को कहा।तीनों पुत्र माता का शीश विच्छेदन करने का साहस नहीं कर सके तो क्रोधित महर्षि ने पुत्र परशुराम से माता का शीश विच्छेदन करने को कहा।परशुराम ने पिता केआदेश का पालन करते हुए अविलंब अपनी माता रेणुका का शीश फरसे जैसे हथियार से धड से  अलग कर दिया। पिता आज्ञा पालन करने से महर्षि इतने प्रसन्न हुए की उन्होंने परशुराम जी से कोई वरदान मांगने को कहा।परशुराम जी ने वरदान में अपनी माता रेणुका के पुनः जीवित होने को कहा।वरदान स्वरूप रेणुका जीवित हो उठीं।माता पिता की आज्ञा पालन करने के कारण महर्षि दंपति इतने प्रसन हुए की उन्होंने परशुराम को अखंड वीर होने का आशीर्वाद भी दे दिया।
    

   ख़ैर ये तो रही अध्यात्म की बात ,चलिए अब आप को इस ऐतिहासिक,धार्मिक यात्रा पर शब्दों के द्वारा ही लिए चलते हैं।इंदौर शहर से 50 किलोमीटर की दूरी पर "जा ना पाओ" कुटी हेतु प्रातः ही प्रस्थान हेतु एक टाटा मैजिक गाड़ी किराए पर ली और 2 घंटे की यात्रा के लिए निकाल पड़े अब 1घंटा तो पूरे इंदौर शहरकी,चौड़ीचौड़ी सड़कें पर करने में ही व्यतीत हो गया।सुबह सुबह की लाइफ का दृश्य प्राय हर शहर का एक जैसा है होता है।दूध वालोंकेवाहन,सब्जियोंसे भरी गाड़ियां,बीते दिन भर का कूड़ा करकट एकत्रित करते,झाड़ू बुहारते कर्मचारी,ऊंघते कुत्ते, गाय बैल,बंद दुकानें,हलकी सी वातावरण में शांति,एक अलग ही दृश्य पैदा कर रहे थे,मगर थोड़ी ही देर पश्चात् मेरी दृष्टि मुख्य मार्ग के दोनों किनारों तक फैली छोटी मोटी लेकिन पूरी तरह हरियाली से लिपटी पहाड़ियों पर फिसलरही थी। कैसा होगा वह स्थान ,जिसके नाम में ही घोषणा है कि यहा
" जा... ना ...पाओ" गे!!   
         अभी शहर कि सीमा से बाहर निकले ही थे कि पुरानी सी टाटा मैजिक गाड़ी के इंजन की तेज फट फट की आवाज ,सहन शक्ति से बाहर होने लगी।आरम्भ में तो शहर के सुबह के शोरगुल में ये कर्णभेदी आवाज अधिक नहीं लग रही थी मगर शहर से बाहर आते ही कानों में तीर की तरह कोंधने लगी थी।पता नहीं कैसे मेरे साढू भाई ,मेरी मन स्तिथि को भांप गए,थोड़ा संकोच करते हुए बोले ,भाई साहब इतनी सुबह ओर अचानक कोई और साधन का इंतजाम ना होने के कारण ही मजबूरी में ये गाड़ी करनी पड़ी।तुरंत मैने अपने चेहरे की भाव भंगिमा में परिवर्तन लाने की चेष्टा करते करते उन्हें दिलासा दी कि नहीं नहीं, इस खुली खुली गाड़ी में बाहर के दृश्य भी भली भांति दिखाई दे रहें है,आप परेशान ना हो , मै तो बस उस अद्भुत स्थान पर शीघ्रता से जाने के लिए उत्सुक हूं।   

लगभग 2 घंटों की यात्रा के पश्चात् अचानक मुख्य मार्ग से एक छोटी सी सड़क अलग हुई और हरियाली से ढकी पहाड़ियों के मध्य जैसे लुप्त सी हो गई।हमारी गाड़ी जैसे ही इस सड़क पर मुड़ी, मै विस्मृत सा हो गया।सामने दूर दूर तक ,पूरी तरह हरियाली से आच्छादित ऊंची नीची पहाड़ियां फैली हुई थी।अभी हम 200 मीटर ही चले होंगे कि लगा जैसे हम इंदौर जैसे बड़े शहर के समीप नहीं अपितु घने जंगलों के मध्य चल रहे हैं ।सड़क बाएं,दाएं के साथ साथ हर कदम पर ऊपर की ओर बढ़ रही थी ।चारों तरफ हरे भरे पहाड,घाटियां, और सूर्य की रोशनी में चमकते तालाब ,तेज परन्तु शीतल हवाओं के झोंके ,मदमस्त कर रहे थे।इतनी प्राकर्तिक सुंदरता तो मैने प्रसिद्ध हिल स्टेशनों में भी नहीं देखी थी।चढाई इतनीअधिक की गाड़ी की स्पीड और पैदल यात्री की स्पीड में कोई विशेष अंतर नहीं लग रहा था।मार्ग के दोनों ओर लंगूरों के झुंड के झुंड बैठे हुए यात्रियों को देख रहे थे कि कोई उन्हें खाने की वस्तुएं दे दे।इधर उधर उड़ते रंग बिरंगे पक्षी भी इस यात्रा के प्राकृतिक सौंदर्य में चार चांद लगा रहे थे।सच मानिए मेरा हृदय इन प्रकृति के दृश्यों में इतना मुग्ध हो गया था कि मैने गाड़ी रुकवाकर कहा कि मै इस यात्रा का अनुभव ट्रेकिंग द्वारा करना चाहूंगा।शायद मेरे साथ आए मेरे साढू भाई भी यही चाह रहे थे अतः हम दोनों गाड़ी को छोड़ कर पैदल " जा ना पाओ" आश्रम की और चल दिए ।

शुद्ध शीतल, ताजी प्राण वायु,चारों ओर जहां तक दृष्टि जाए वहां तक फैली हरियाली,प्रकर्ती के इन अनुभवों को अभी
 हम आत्मसात कर ही रहे थे कि अचानक जाने किधर से बादलों का एक झुंड हमारे सिर के ऊपर आ गया।शायद वे भी
ट्रेकिंग  का आनंद लेने हेतु यहां आ पहुंचे थे।इतने मनोहारी दृश्यों में अभी हम डूबे ही थे कि ऊपर मंडराते बादलों को जाने क्या सूझा कि एकाएक वे बूंदों के रूप में हम ट्रैकर से मिलने नीचे आ पहुंचे।शायद चढाई के कारण जो कुछ हमें उष्णता का अनुभव हो रहा था , उसे शांत करने में हमारी मदद करने को तत्पर हो गए थे।हम भी इस रिमझिम आसमान से बरसते मोतियों का आनंद ले ही रहे थे कि हमारी दृष्टि दूर ऊपर पहाड़ी कि चोटी पर स्थित " जा ना पाओ" आश्रम पर गई।

विश्वास कीजिए जो दृश्य उस समय हमने देखा ,उसका वर्णन शब्दों के द्वारा नहीं हो सकता ! एक विशाल सतरंगी इन्द्रधनुष ने पूरे आश्रम को अपने घेरे में ले रखा था।एक अद्भुत स्वर्णिम रंगो के उस क्षण के हम साक्षी बन रहे थे। इन पलों को हमने अपने कैमरे में कैद कर लिया ,जिसे इस यात्रा के माध्यम से आपको भी हम दिखाने को नहीं रोक पा रहे हैं! 

   इस ट्रेकिंग के अनुभव को आपके साथ बांटने के लिए मेरे पास अधिक शब्दावली नहीं होने केकारण मै इस ट्रेकिंग के कुछ दृश्य फोटो के रूप में आपको अवश्य दिखाना चाहूंगा ,आज के समय में दुर्लभ, ऐसे प्रकर्तिक दृश्यों का आनंद लेते,हांफते,1  घंटे की यात्रा के पश्चात हम आखिर कर आश्रम के मुख्य द्वार पर जा पहुंचे। मुख्य द्वार पर 2 विशाल काय मूर्तियों ने हमारा मार्ग रोक लिया।गाड़ी पार्किंग में लगा कर उन विशालकाय मूर्तियों को हमने गौर से देखा,ये महान चाणक्य एवम् भगवान राम जी की थी।

जहां चाणक्य ऋषि की चोटी खुली थी,चेहरे पर क्रोध की झलक थी वहीं भगवान राम जी की मूर्ति एक हाथ से विशाल धनुष को पकड़े और दूसरे हाथ को अभय  की मुद्रा में ऊपर की ओर इशारा कर रही प्रतीत हो रहीं थीं।इसके साथ ही एक बोर्ड लगा था जिस पर लिखा था " जा ना पाओ कुटी में आपका स्वागत है।" इसी बोर्ड पर आश्रम के इतिहास के बारे में भी लिखा हुए था।एक तरफ एक शिवालय था तो दूसरी ओर परशुराम जी की मूर्ति से सजा एक बड़ा सा मंदिर था,यही जा ना पाओ आश्रम था।

            शिवालय से कुछ आगे बढ़ने पर एक विशाल गोलाकार ,सीढ़ियों से घिरे,  विशाल तालाब ने हमें आश्चर्य चकित
कर दिया।इतनी ऊंचाई पर,पर्वतों के मध्य ,चारों ओर घाटियों से घिरे इस तालाब में लहरों के साथ लहराते नीले
आकाश के प्रतिबिंब के साथ साथ ,आस पास की हरियाली का प्रतिबिंब एक अनोखा दृश्य उत्पन्न कर रहा था।
सरोवर के दूसरे किनारे पर हाथ में त्रिशूल थामे ,भगवान शिव की एक विशाल प्रतिमा इस स्थान को एक विशिष्ट
गरिमा प्रदान कर रही थी।सरोवर के किनारे एक बोर्ड लगा था जिसके अनुसार इस सरोवर से इस प्रदेश की तीन
मुख्य नदियां बेतवा, गंभीर और पवित्र सरस्वती का उद्गम होता है, लेकिन मुझे तो सरोवर से कोई भी नदी निकलती
नहीं दिखाई दे रही थी! लेकिन अधिसंख्य यात्री बोर्ड की सूचना से बे खबर इस सरोवर के पवित्र जल में स्नान ,पूजा करने में लगे थे।तभी मुझे शिव मंदिर के पीछे एक अर्ध निर्मित भव्य मंदिर दिखाई दिया,तो मै उसके पास जाने से अपने को रोक नहीं सका।पता चला कि इंदौर शहर के निवासी आपसी सहयोग से इस आधुनिक परशुराम जी के जन्म स्थल का निर्माण करा रहे हैं।

सरोवर के एक किनारे पर कुछ महिलाएं ,कोयले पर मकई के भुट्टे को भून कर विक्रय कर रही थीं जिनको खरीदने
हेतु  ना केवल यात्रियों की भीड़ लगी थी,अपितु उन भुट्टो के स्वाद चखने हेतु कोई ओर भी निगाहें गड़ाए बैठे थे ,वे
थे ….. काले मुख वाले लंगूर ! जी हां, लंगूर।ये इतनी अधिक संख्या में थे कि देख कर हैरानी हुई,फिर समझ में आया
कि इस आश्रम के चारों ओर फैला जंगल इनका शानदार निवास स्थल है।
     कुछ ही देर में इस पवित्र आश्रम का भ्रमण पूरा हो गया।कहने को तो ये एक ऐतिहासिक स्थान है परन्तु
ऐतिहासिकता मुझे तो कहीं नजर नहीं आ रही थी,लेकिन आस्था और विश्वास के आगे मै नतमस्तक था। मै तो इस
आश्रम के चारों ओर फैले प्रकृति के सौंदर्य को ही इस आश्रम की उपलब्धि मानता हूं।इस यात्रा के माध्यम से मै आप
सब पाठकों से एक बार अवश्य आग्रह करूंगा कि जहां यह आश्रम हम भारतीयों के एक प्राचीन इतिहास को हमारे
सामने कल्पना से यथार्थ रूप में दिखाता है वहीं प्रकृति के अनमोल खजाने का यह एक ऐसा भंडार है जो इस प्रदेश
में शायद ही कहीं अन्यत्र मिलता हो, अतः आप सब से अंत में यही अनुरोध कर के अपनी यात्रा के इस अनुभव को
समाप्त करता हूं कि जब भी आपको मोका मिले तो इंदौर शहर के समीप इस आश्रम में एक बार तो आवश्य जाए
जिसका नाम ही है  " जा... ना... पाओ"।

      


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