4 महीने पहले की बात है कि मै अपने मित्र अशोक के साथ टीवी पर आमिर खान की मेरी पसंदीदा
फिल्म " पी के" देख रहा थे।वैसे मै ये फिल्म करीब चोथी बार देख रहा था।लेकिन इस बार अशोक जो कि
पुणे महाराष्ट्र से मेरे पास मथुरा घूमने आया था ,साथ बैठा था।थोड़ी देर बाद अचानक फिल्म का गीत
" भगवान है तू कहां" आया। मै मंत्र मुग्ध गाना देख रहा था।गाने की समाप्ति पर अचानक अशोक बोला
" देख इस गाने के आरम्भ में जो एक मंदिर दिखाया गया है,जिसमें आमिर खान मंदिर परिसर में हल्दी से
होली खेल रहा है,वह पुणे के पास है" ।मैने कहा छोड़ यार ये फिल्मी सेट है।लेकिन उसने कहा " विश्वास
कर,ये मंदिर वास्तव में पुणे के पास जेजुरी नामक कस्बे में है और यहां वर्ष में 8 बार ऐसी ही हल्दी की होली
खेली जाती है।महाराष्ट्र और साथ के कर्नाटक राज्य के निवासियों में इस मन्दिर की बड़ी मान्यता है" ।
अशोक जिस विश्वास के साथ कह रहा था की मुझे यकीन करना ही पड़ा।अब मेरी दिलचस्पी फिल्म की
जगह इस पीले रंग में रंगे जेजुरी नामके मंदिर मे हो गई।अशोक ने जिस ढंग से फिर मंदिर का वर्णन किया
,उस से मेरी उत्सुकता इस मंदिर को साक्षात देखने में बहुत अधिक बढ़ गई थी।
बस थोड़ी ही देर में हम दोनों ने तुरंत पुणे जाने का प्रोग्राम बना लिया,वो इस लिए कि श्रीमती जी गर्मियों
की छुट्टियों में बच्चों के साथ अपने मायके गई हुई थी।किस्मत भी शायद मेरे साथ ही थी क्योंकि ट्रेन में दो
दिन बाद की पुणे की सीट भी रिजर्व हो गई।
ट्रेन शाम को पुणे पहुंच गई।अशोक के घर पर उनके पूरे परिवार के साथ चाय पीते हुए मैने जेजुरी मंदिर
का जिक्र छेड़ दिया,क्योंकि मै ऐसे अजीब रस्म वाले मंदिर के बारे में पूरी तरह जानने को बेहद उत्सुक था।
अशोक के पिताजी ने जो जानकारी विस्तार से मुझे बताई वो अद्भुत थी।उनके अनुसार जेजुरी मंदिर तो
लगभग 15 वीं शताब्दी से अधिक प्राचीन है।पूरे महाराष्ट्र में इसके प्रति बहुत अधिक श्रद्धा है।शायद ही
महाराष्ट्र का कोई निवासी होगा जिसने इस मंदिर के दर्शन नहीं किए होंगे।इस मंदिर का वर्णन तो पुराणों के
अलावा ऐतिहासिक यात्रियों के वर्णन में लिखित में मिलता है, ये सब सुनकर मेरी उत्सुकता अपने चरम पर
पहुंच गई थी।मैने अशोक के पिताजी से इस मंदिर के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त की।उनके अनुसार यांहा
केवल सूखी पिसी हल्दी का ही प्रयोग पूजा के लिए होता है।वर्ष में 2 बार मंदिर से पालकी की सवारी निकलती
है जो कि पास में ही एक तालाब पर जाती है।मदिर की ऊंचाई भी लग भग 2 सौ फुट से अधिक है।यह मंदिर
2 भागों में बना है।मंदिर तक जाने के लिए 250 सीढ़ियां चढ़नी पड़ी है।महाराष्ट्रीयन परिवारों में किसी भी शुभ
कार्य से पहले एवं बाद में मंदिर में हल्दी से पूजा की जाती है।
मेरे यह पूछने पर कि मंदिर किसका है,इसकी कथा क्या है तो बताया कि इस क्षेत्र में हजारों वर्ष पहले
2 राक्षस भाई ,मल्ल और वीरी का बहुत आंतक था क्योंकि उन्होंने तपस्या द्वारा शिवजी से वरदान लिया था
कि उनकी मौत केवल उनके ही द्वारा होगी।अब जब आसपास की प्रजा राक्षसों के आतंक से बहुत परेशान हो
गई तो उन्होंने शिवजी से प्रार्थना की।तब शिवजी ने खांडोबा के नाम से अवतार लेकर उनका अंत किया। मरने
से पहले राक्षसों ने देवता रूपी शिवजी से मुक्ति की प्रार्थना की और उन्हें एक चमत्कारी सफेद घोड़ा प्रदान
किया ।यह चमत्कारी घोड़ा ऐसा था कि जो भी उसे पीले चने खिलाता था उसके सारे दुख और कष्ट दूर हो जाते
थे।इसी मान्यता के चलते दर्शनार्थी मंदिर में आते हैं और चने के स्थान पर पीली हल्दी का प्रसाद लगाते हैं ।चने
की जगह पूजा में हल्दी के प्रयोग का कारण मंदिर के पुजारियों ने बताया कि वर्षों पहले अकाल पड़ने के कारण
चने कि कमी हो गई तो चने कि जगह हल्दी से पूजा की गई,तब से हल्दी से ही पूजा करने की प्रथा शुरू हो गई।
मन्दिर में राक्षसों के प्रतीक के रूप में एक विशाल अनघड़ शिला भी दिखती है। शिव जी के प्रतीक खंडोबा
देवता की मूर्ति स्थापित है जिनके एक हाथ में तलवार होती है।
अब कहानी तो कहानी थी,मगर मै हल्दी की पूजा वाले मंदिर को देखना चाहता था क्योंकि पूरे भारत में
यह इकलौता मंदिर है जिसमें केवल हल्दी से ही पूजा होती है,किसी अन्य चीजों से नहीं। प्रग्राम बना कि कल
सुबह 8 बजे मंदिर देखने के लिए कार से चलना है।
पुणे से जाजूरी मंदिर की दूरी 45 की.मी. है।नाश्ता करके नियत समय पर हम चल दिए।थोड़ी दूर चलने
के बाद ही छोटे छोटे पहाड दिखने शुरू हो गए,और फिर जब सड़क उन पहाड़ों से मिली तो वाह! बलखाती ,
घूमती,तेज मोडों पर जब हमारी कार पहुंची तो मसूरी और नैनीताल की याद आ गई।आसपास हरियाली भी बहुत
थी।लगता ही नहीं था कि हम पुणे जैसे बड़े महानगर के समीप हैं।मंदिर को भूलकर मै तो इस प्राकृतिक सुंदरता
में खो सा ही गया।सच कहता हूं कि जाजुरि मंदिर तक का पूरा रास्ता हरा भरा था।लगभग 2 घंटो के बाद हम
जाजूरि नामके कस्बे में पहुंच गए।कस्बा तो ख़ैर आम कस्बों की तरह ही था , हां मगर मध्य में एक ऊंची पहाड़ी
पर मंदिर का पीले रंग का शिखर चमक रहा था।
खैर पहाड़ी के नीचे पार्किंग में कार खड़ी करके सामने देखा तो सीढ़ियां दिखाई दी। जिधर से सीढ़ियां शुरू
होती थी उसके ठीक सामने एक छोटे से नंदी की मूर्ति स्थापित थी जिसका मुख सीढ़ी के सामने की ओर था।मूर्ति
के पास एक पुजारी नुमा आदमी बैठा था जो हर ऊपर जाने वाले यात्री के माथे पर हल्दी का टीका लगा रहा था ।
बदले में हर यात्री कुछ पैसे उसके सामने रखे बर्तन में डाल रहा था।रस्म या श्रद्धा के वशीभूत हो मैने भी टीका
लगवा लिया।ये मेरा पहला परिचय था हल्दी से! सीढ़ियों के दोनों किनारों पर हर तीर्थ स्थानों के समान ही दुकानें
थी,मगर यह क्या? और जगह की दुकानें पूजा के सामानों,फूल मालाओं और पूजन की सामग्री से भरी रहती हैं,
वहीं इन सब दुकानों पर एक ही चीज मिल रही थी ,वो थी हल्दी और केवल हल्दी।पैकेटों में भरी,खुले बर्तनों में
भरी सुर्ख पीली हल्दी।
नीचे से मंदिर का केवल शिखर ही नजर आ रहा था।सामने हमने मंदिर तक पहुंचने के लिए सीढ़ी चढ़ना
शुरू कर दिया।दस बारह सीढ़ी चढ़ते ही समझ आ गया कि चढाई इतनी आसान नहीं है जितना हम समझ रहे
थे।सांस फूलने लगी,मगर ऊपर तो जाना ही था। अतः रुक रुक कर सीढ़ी चढ़ने लगे।ये और बात थी कि थोड़ी
थोड़ी दूर पर सुस्ताने के लिए बैठना पड रहा था।उस समय ये हाल था कि 20 सीढ़ियां चढ़ने में आधा घंटा लग
रहा था।
किसी तरह जब 50 फुट के करीब ऊपर पहुँचे,सुस्ताने के लिए बैठे ओर फिर नजर को सामने जो दृश्य
दिखाई दिए वे चमत्कृत करने वाले थे।ऊपर से नीचे दूर दूर तक हर तरफ छोटी छोटी सह्याद्रि पर्वत माला की
पहाड़ियां पूरी तरह हरे भरे पेड़ों से ढंकी हुई थी।उनके ऊपर उमड़ते घुमड़ते काले सफेद बादल एक अद्भुत
नजारा दिखा रहे थे।लग रहा था जैसे प्रकृति एक नवयुवती का रूप धर, हरी साड़ी पहन ,सफेद काले बादलों
रूपी हल्का सा घूंघट ओढ़, अपने पूरे सौंदर्य के साथ खड़ी थी। मै सम्मोहित सा प्रकृति के इस अद्भुत सौंदर्य
को निहारने में पूरी तरह से डूबा हुआ था कि अचानक मित्र अशोक की आवाज ने जैसे जगा दिया" उठो भाई,
अभी और ऊपर जाना है"। मै जैसे नशे से होश में आया ,ऊपर चढ़ने लगा लेकिन अब थकान कि जगह एक
अलग सी ताजगी का अहसास हो रहा था।अब मुझे समझ आ रहा था कि क्यों महाराष्ट्र का ये क्षेत्र इतना विशेष
है।फिर मैने गौर किया कि ऊपर मंदिर से जो भी यात्री चाहे वो महिला हो या पुरुष , नीचे आ रहे थे वे पूरी तरह
हल्दी से रंगे हुए थे।उनके माथे, गालों,और वस्त्रों पर हर तरफ हल्दी लगी हुई थी।मैने ऐसे दृश्य अपनी तरफ तो
केवल होली के त्योहार पर ही देखे थे मगर फ़र्क साफ नजर आ रहा था।होली के त्योहार पर हम केवल पुराने
वस्त्र ही पहनते हैं रंग से खराब होने के डर से जबकि इधर के हर दर्शनार्थी ने अपने सबसे अच्छे वस्त्र पहने हुए
थे और उनपर हर जगह हल्दी लगी हुई थी।वो शायद अच्छी तरह जानते होंगे कि वस्त्रों पर एक बार जो हल्दी लग
जाती है तो उसका पीला रंग किसी भी साबुन या सर्फ से नहीं जाता है।मगर तब समझमे आ गया कि श्रद्धा का रंग
हल्दी हो या कोई और रंग ,सबसे गहरा होता है।
धीरे धीरे हम भी आखिर कार ऊपर चढ़, मंदिर के मुख्य द्वार तक आ गए।सामने देखा तो अभी 15 सीढ़ी
अभी और चढ़नी थी,मगर यह देख पसीना आ गया।सभी सीढ़ी 80 डिग्री के से एंगल से खड़ी थी।उनके बाद एक
विशाल लकड़ी का काफी पुराना दरवाजा था।जिसके ऊपर बड़े बड़े चमकते पीतल के अक्षरों में लिखा था"
मार्तण्ड देव स्थान जेजुरी"।फिर इनके नीचे लिखा था पूर्वी द्वार।अशोक ने मेरी उलझन को देख बताया की मंदिर के
चारों तरफ चार ऐसे ही बड़े बड़े दरवाजे है। जंहा हम खड़े थे वहां से मंदिर की बाहरी विशाल दीवार बड़े बड़े पथरों
से बनी थी जिसकी ऊंचाई लगभग 50 फुट की रही होगी।ये दीवार एकबडे विशाल गोलाकार रूप लिए खड़ी थी।
इसके अंदर ही मुख्य मंदिर था जबकि दीवार के बाहर नीचे एक गोलाकार लगभग 10 फुट चौड़ी पथरों से ही बना
मार्ग बना था।इसी मार्ग पर प्रत्येक दिशा में विशाल दरवाजे बने थे।जिनसे मंदिर के अंदर प्रवेश किया जा सकता था।
आखिरकार मंदिर के अंदर प्रवेश किया और मै स्तब्ध रह गया।बतात हूं कि क्यों।मंदिर अंदर से भी एक
लगभग 10 फुट चौड़े गलियारे से चारों ओर से घिरा था ।इस गलियारे के अंदर दो बड़े गर्भ ग्रह थे,जिनके ऊपर एक
विशाल गुंबद बना था और जिसके ऊपर एक बडा सा पीले रंग का कलश तमाम तरह की आकृतियों से सजा था।
अब वो विशेष बात बताता हूं कि क्यों मै आश्चर्य चकित रह गया था।आमतौर पर मंदिर के गलियारे मार्बल आदी के
पत्थरों से बने होते है,मगर इसका गलियारा तो गहरे पीले रंग से ढके , चौड़े चौड़े पुराने पत्थरों से बना था।गौर से
देखने पर समझ आया कि पत्थर पीले रंग के नहीं है बल्कि वे पूरी तरह से पीली हल्दी से ढके हुए है।देखा कि जो भी
दर्शनार्थी मंदिर से दर्शन करके बाहर आता है वो माथे ,गालों पर हल्दी से रंगा पुता होता है। फिर बाहर आकर वो
अपने हाथ में हल्दी के पैकेट से हल्दी निकाल कर अपने साथ आए परिवारजनों या मित्रों पर हल्दी लगाते है,गले
मिलते है एवं गुलाल की तरह हल्दी को मुट्ठी में भरकर हवा में उछालते हैं।ओह,तो अब समझ आया कि मंदिर के
चारों ओर गलियारे में पत्थरों के ऊपर हल्दी का कार्पेट सा क्यों बिछा हुआ है।अब आप सोचिए कि सैकडों की
संख्या में जब दर्शनार्थी दर्शन के पश्चात् हल्दी उछालेंगे तो पीले रंग का कार्पेट तो बिछ जाएगा ही।
मै भी लंबी लाइन में लग कर मंदिर के गर्भ गृह में घुसा और सामने जो मूर्ति देखी तो फिर हैरान हुआ।मैने अभी
तक सैकडों मंदिर की मूर्तियों के दर्शन किए है यह तो अलग ढंग की मूर्ति थी।ये मूर्ति किसी देवता जैसी ना लग कर
किसी योद्धा जैसी लग रही थी।उसके वस्त्र भी महाराष्ट्रीयन के सैनिकों की तरह थे।सिर पर कलम लगी,मुकुट से
सजी पगड़ी ,एवम् ,गले में,हाथों में ,कमर पर स्वर्ण आभूषण पहने हुए थे।विशेष बात यह और थी कि आमतौर पर
मूर्ति का एक हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में होता है , तो दूसरा माला जपता हुआ या किसी ग्रंथ को पकड़े हुए होता है,
मगर इस मूर्ति का एक हाथ तो ऊपर उठा हुआ था ,ओर दूसरे हाथ में एक बड़ी तलवार थमी थी।ये ही खंडोबा देवता की मूर्ति थी।अब सुनी हुई कहानी याद आ गई कि खंडोबा जी ,भगवान शिव का अवतार थे और ये अवतार उन्होंने उन 2 दुष्ट राक्षसों को मारने हेतु लिया था।इसी लिए उनके इसी रूप की पूजा की जाती है।मूर्ति के बगल में एक पूरे कद काठी के सफेद घोड़े की मूर्ति भी थी,जो कि हल्दी चढ़ाने के कारण पीली लग रही थी।तभी दिमाग में एक विचार कोंधा कि चूंकि महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज ने अपना काफी समय मुगलों से लड़ते हुए बिताया था और उनका प्रभाव मराठी जनमानस पर काफी है,तो शायद उनके इसी रूप से प्रभावित होकर मराठी जनमानस कंडोबा जी की इसी रूप में पूजा करके शांति और संतोष प्राप्त करता होगा।मगर ये सिर्फ मेरे ही विचार है,मराठी जनमानस क्या सोचते हैं ये उनकी श्रद्धा के ऊपर छोड़ते है।थोड़ी देर और मंदिर के गलियारों में घूमा,तो उसके एक किनारे पर लाल रंग से बनी एक विशाल डील डोल वाली खड़ी अवस्था की मूर्ति की तरफ भी नजर गई।बड़ा सिर,बड़ी बड़ी मूछें ओर दर्शनार्थी भी उन पर एक तरह से दूर से ही हल्दी फेंक रहे थे।अशोक ने बताया कि यह मूर्ति मल्ल नामके राक्षस की थी,जिस पर लोग हल्दी फेंक कर अपने बुरे ग्रहों से छुटकारा पाते हैं।थोड़ा आगे बढ़ने पर एक तरफ शिवजी पूरे परिवार के साथ स्तापिथ थे।,जाहिर है वे सब भी पीले रंग में रंगे हुए थे।
मगर इस मूर्ति का एक हाथ तो ऊपर उठा हुआ था ,ओर दूसरे हाथ में एक बड़ी तलवार थमी थी।ये ही खंडोबा देवता की मूर्ति थी।अब सुनी हुई कहानी याद आ गई कि खंडोबा जी ,भगवान शिव का अवतार थे और ये अवतार उन्होंने उन 2 दुष्ट राक्षसों को मारने हेतु लिया था।इसी लिए उनके इसी रूप की पूजा की जाती है।मूर्ति के बगल में एक पूरे कद काठी के सफेद घोड़े की मूर्ति भी थी,जो कि हल्दी चढ़ाने के कारण पीली लग रही थी।तभी दिमाग में एक विचार कोंधा कि चूंकि महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज ने अपना काफी समय मुगलों से लड़ते हुए बिताया था और उनका प्रभाव मराठी जनमानस पर काफी है,तो शायद उनके इसी रूप से प्रभावित होकर मराठी जनमानस कंडोबा जी की इसी रूप में पूजा करके शांति और संतोष प्राप्त करता होगा।मगर ये सिर्फ मेरे ही विचार है,मराठी जनमानस क्या सोचते हैं ये उनकी श्रद्धा के ऊपर छोड़ते है।थोड़ी देर और मंदिर के गलियारों में घूमा,तो उसके एक किनारे पर लाल रंग से बनी एक विशाल डील डोल वाली खड़ी अवस्था की मूर्ति की तरफ भी नजर गई।बड़ा सिर,बड़ी बड़ी मूछें ओर दर्शनार्थी भी उन पर एक तरह से दूर से ही हल्दी फेंक रहे थे।अशोक ने बताया कि यह मूर्ति मल्ल नामके राक्षस की थी,जिस पर लोग हल्दी फेंक कर अपने बुरे ग्रहों से छुटकारा पाते हैं।थोड़ा आगे बढ़ने पर एक तरफ शिवजी पूरे परिवार के साथ स्तापिथ थे।,जाहिर है वे सब भी पीले रंग में रंगे हुए थे।
इस तरह हम उस अद्भुत मंदिर को देख कर और एक नई पूजा की पद्धति को देख कर वापस नीचे सीढ़ियों से
आने लगे।
नीचे उतर कर एक और नई बात से आपको परिचय कराना जरूरी समझता हूं वो यह कि जिधर हमने कार
पार्क की थी,उसके सामने एक लंबे चौड़े सफेद बोर्ड जिस पर लाल रंग के बड़े बड़े अक्षरों में लिखे शब्दों ने मेरा
ध्यान खींचा था वो था" येवले अमृत तुल्य" फिर लालरंग से ही बने कप की आकृति,फिर उसके ठीक नीचे लिखा था
" येवले चहा एकदा पियुन तर पहा…" ।मैने अशोक से इस के बारे में पूछा तो फिर हैरान हुआ।उसने बताया कि
1960 के करीब पुणे के एक किसान ने सूखे से परेशान हो कर एक चाय की दुकान खोली थी।जाने उसकी चाय के
स्वाद में क्या जादू था कि पुणे वाले उसकी चाय के दीवाने हो गए और देखते ही देखते येवले चाय पुणे की एक
पहचान और बड़ा ब्रांड बन गया।थोड़े ही समय में येवले चाय की 100 से अधिक रिटेल चैन खुल गई।येवले चाय ने
इतनी प्रतिष्ठा पाई कि बड़ी बड़ी नामी गिरामी हस्तियां जिनमें फिल्मी कलाकार,खिलाड़ी,नेता शामिल थे,उसके दीवाने
हो गए और उसके मालिक को राष्ट्रपति महोदय ने पदम् श्री की उपाधि भी प्रदान की।
अब यह तो हो ही नहीं सकता था कि मै इस चाय पीने के अवसर का लाभ ना उठाऊ।हम येवले चाय की दुकान
पर जा पहुंचे।एकदम आधुनिक तरीके से चाय बन रही थी।एक तरफ बड़े से बर्तन में मशीनी हैंडल दूध को लगातार
घूमता जा रहा था तो दूसरी तरफ एक और बर्तन में चाय का पानी ,चाय की पत्ती और दूध के साथ उबाल खा रहा था।
एक निश्चित समय के बाद कर्मचारी उस चाय के मिश्रण को लोहे की पुरानी केतली में भर देते थे।फिर सामने रखी बड़ी
सी ट्रे में दुकान के बाहर लगे बोर्ड में बने कप की तरह ,ठीक वैसे ही रखे कपों में लगातार चाय भरते रहते थे। मै
लगातार इस लिए कह रहा हूं कि उस दुकान में जाने किधर से लगातार चाय पीने वाले आते रहते थे।मतलब कि क्या
मजाल कि कोई भरा कप थोड़ी देर के लिए भी यूं ही भरा रह जाए,अद्भुत।चाय पीनी ही थी और पी।अशोक की निगाहें
मुझ पर ठहरी हुई थी कि मै भी अपनी चाय के स्वाद की प्रशंसा में कुछ बोलूं।उसकी नजरों के भावों को पढ़ते हुए ये
जरूरी हो गया था कि मै चाय की प्रशंसा में कुछ बोलूं,ओर मै तारीफ में बोला भी।मगर अंदर की बात आप को बताऊं
कि ऐसी स्वाद वाली चाय तो हर शहर में मिल जाती है।चाहे वो भोपाल हो या आगरा,मथुरा या दिल्ली।मगर मै अशोक
का मेहमान था यानी कि महाराष्ट्र के सवामिभान का मेहमान था तो तारीफ तो जरूरी थी और तारीफ की भी।
अब यह तो हो ही नहीं सकता था कि मै इस चाय पीने के अवसर का लाभ ना उठाऊ।हम येवले चाय की दुकान
पर जा पहुंचे।एकदम आधुनिक तरीके से चाय बन रही थी।एक तरफ बड़े से बर्तन में मशीनी हैंडल दूध को लगातार
घूमता जा रहा था तो दूसरी तरफ एक और बर्तन में चाय का पानी ,चाय की पत्ती और दूध के साथ उबाल खा रहा था।
एक निश्चित समय के बाद कर्मचारी उस चाय के मिश्रण को लोहे की पुरानी केतली में भर देते थे।फिर सामने रखी बड़ी
सी ट्रे में दुकान के बाहर लगे बोर्ड में बने कप की तरह ,ठीक वैसे ही रखे कपों में लगातार चाय भरते रहते थे। मै
लगातार इस लिए कह रहा हूं कि उस दुकान में जाने किधर से लगातार चाय पीने वाले आते रहते थे।मतलब कि क्या
मजाल कि कोई भरा कप थोड़ी देर के लिए भी यूं ही भरा रह जाए,अद्भुत।चाय पीनी ही थी और पी।अशोक की निगाहें
मुझ पर ठहरी हुई थी कि मै भी अपनी चाय के स्वाद की प्रशंसा में कुछ बोलूं।उसकी नजरों के भावों को पढ़ते हुए ये
जरूरी हो गया था कि मै चाय की प्रशंसा में कुछ बोलूं,ओर मै तारीफ में बोला भी।मगर अंदर की बात आप को बताऊं
कि ऐसी स्वाद वाली चाय तो हर शहर में मिल जाती है।चाहे वो भोपाल हो या आगरा,मथुरा या दिल्ली।मगर मै अशोक
का मेहमान था यानी कि महाराष्ट्र के सवामिभान का मेहमान था तो तारीफ तो जरूरी थी और तारीफ की भी।
अब चाहे चाय तो कोई खास नहीं थी मगर इस बात में कोई ऐतराज नहीं था कि ये हल्दी वाला मंदिर वाकई में
खास था ,अद्भुत था, ऐसा मंदिर शायद पूरे भारत में और कन्ही नहीं है ,ये पक्का था।आपसब से भी यही कहूंगा कि
जब भी पुणे आना हो तो एकबार इस मंदिर में जरूर जाइएगा और आप भी मेरी तरह अवश्य कहेंगे ,आश्चर्य जनक
,अद्भुत है हल्दी वाला मंदिर।
Great post, love the photos as well. Jijhuri temple is indeed beautiful. Add more photos in the next post.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा.... अगली यात्रा में हमें भी साथ ले जाइएगा..
जवाब देंहटाएंBahut khoob apratim
जवाब देंहटाएंWonderful description. Please add more pics.
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