सोमवार, 18 मई 2020

कहानी ......... बंद  खिड़की

                                   कहानी
              बंद  खिड़की  
                                                                 


  " अरे, आज तू कालेज से जल्दी आ गई,तबीयत तो ठीक है ना तेरी" मां के ये प्यार के बोल को अनसुना करके
मै सीधे अपने कमरे में गई ,बेग को एक ओर पटका और सीधे पलंग पर आंखें बंद कर लेट गई।पीछे पीछे मां
आ पहुंची।" क्या बात है, तेरी तबियत तो ठीक है ना",कहते हुए मां ने मेरे माथे पर स्नेह से अपना हाथ फेरा . …,
लेकिन आज मैने उनके हाथ को झटकते हुए करवट ले ली। मां का स्पर्श मेरे लिए हर स्पर्श से अधिक प्रिय रहा है,
बचपन से लेकर आज तक जब भी कोई परेशानी , मानसिक अथवा शारीरिक होती थी तो मां का यह स्नेह स्पर्श मेरे
लिए एक ऐसी ओषधि का कार्य करता रहा था जिससे मै  सब कुछ विस्मृत करके ,पलकें मूंद लेती थी।ऐसा प्रतीत
होता था कि उस समय मै एक अबोध बच्ची की तरह उनके आंचल में समा जाती थी।परन्तु आज उनका यह चिर
परिचित स्पर्श भी मेरे धधकते मन को शीतलता प्रदान नहीं कर पा रहा था। मै भावशून्य हृदय से आंखें मूंदे चुप चाप
यूं ही लेटी रही। कुछ देर तक मेरे माथे को सहलाने के पश्चात् और पूरी तरह निश्चिंत होने के पश्चात कि ,मुझे ज्वर ताप
नहीं है, मां बोली," क्या बात है,आज तुमने अपना लंच भी नहीं खाया, कोई बात नहीं मैं अपनी गुड़िया के लिए अभी
हलुआ बना कर लाती हूं" । मां जानती है कि मुझे हलवा बहुत पसंद है, अतः स्नेह और ममता के कारण और शायद
कुछ मेरी अनमयास्कता के कारण वे हलवा  के लिए किचन की ओर चल दी।" नहीं नहीं, मै हलवा नहीं खाना चाहती,
मत बनाओ" परन्तु … चाह कर भी मै उन्हें हलवा बनने से रोक नहीं पाई । मां के जाते ही मैने करवट ली और तकिए
में अपना मुंह धसां सा लिया।"हलवा " शब्द सुनते ही जैसे मुझे एक एक कर के पिछले बीते दिन के घटनाक्रम पुनः
याद आने लगे।
       बचपन से लेकर आज तक मुझे कभी भी हलुआ रुचिकर नहीं लगा।घर के सारे सदस्य जहां हलवा को अत्यधिक
पसंद करते थे,वहीं मुझे हलवाअत्यधिक ना पसंद था।कभी तीज त्योहारों पर प्रसाद के नाम पर मां जिद कर के हलवा
खिलाती थी तो मै ओषधि की तरह कुछ निवाले लेकर मुंह फर लेती थी।
         मां आई और स्नेह से फिर एक बार माथे पर स्पर्श करते हुए बोली " देख आज मैने अपनी लाडली के के लिए
देशी घी का ,गरमागरम हलवा बनाया है, उठ ,चल तुझे अपने हाथ से खिलाती हूं" लेकिन मै बगैर आंखे खोले,कुछ
रुष्टता के भाव से
 बोल उठी" खालूंगी,आप टेबल पर रख दो ओर प्लीज़ ,मुझे कुछ देर सोने दो " ।पता नहीं मेरे स्वर में केसा रूखापन
उभर आया कि मां बगैर बोले कटोरी टेबल पर रख कर बाहर चली गई।वे मां है, और दुनिया की प्रत्येक मां और बेटी
के मध्य जन्म से ही एक ऐसी अदृष डोर होती है जिससे वे दोनों एक ऐसे अटूट बंधन में बंधी होती है कि एक दूसरे की भावनाओं को व्यक्त करने,समझने हेतु  किसी भी शब्दों की आवश्यकता नहीं होती! निसंदेह वे मेरी मनस्थिति को भांप कर, मुझे कुछ देर एकांत में रहने के लिए ही बाहर चली गई।सच कहूं,मुझे इस वक्त एकांत की इतनी अधिक आवश्यकता थी कि बस ….।तभी मुझे महसूस हुआ कि नजदीक रखे हलवा की सुगंध मेरे नथुनों में जबरन घुसती का रही है और इसी के साथ मेरे दिमाग में घुसती जारही थी विगत 10 दिनों का घटना क्रम।
      जैसे कि मैने बताया था कि मुझे हलवा कतई ना पसंद है , और ऐसे ही एक दिन मां ने कालेज जाते हुए जब लंच
बॉक्स थमाया, और बोली कि आज होई अष्टमी का दिन है, आज भोजन के स्थान पर हलवा बनाने एवं खाने की प्रथा
है ,इसलिए मैने आज भोजन के स्थान पर हलवा बनाया है,जैसे भी हो खा लेना।कालेज को देर हो रही थी और अन्य
विकल्प के लिए समय नहीं था,इस लिए बॉक्स ले लिया ,बेरुखी से उसे बेग में पटका और शायद मुंह फुलाते हुए में
कालेज के लिए चल पड़ी।
         मेरे घर से कालेज कि दूरी कोई अधिक नहीं थी,इस लिए मै पैदल ही जाना पसंद करती थी।आसपास की
चहल पहल,बाजार की रौनक देखने में ही मेरा कालेज का सफर कट जाता था।लेकिन पिछले महीने से मै गौर कर
रही थी कि मेरी गली के बाद  मुड़ते ही सीधे हाथ की तरफ एक तीन मंजिलें बड़े से मकान में ,जो कि बहुत ही सुन्दर
बना था,उसके भूतल पर, ठीक सड़क के किनारे वाले कमरे में एक बड़ी सी लेकिन खूबसूरत खिड़की थी, जो हमेशा
खुली रहती थी।लेकिन उस खिड़की से भी खूबसूरत थी उस खिड़की से बाहर झांकती एक वृद्ध महिला !  जो बाहर
आते जाते व्यक्तियों को निहारती सी रहती थी।चांदी से चमकते बाल,चेहरे पर बीत चुके समय के निशान झुर्रियो के
रूप में एक अलग ही आभा प्रदान करते थे मगर मुझे जो बात सबसे अधिक आकर्षित करती थी वह ये कि इस महिला
को देख कर मुझे अपनी दादी की याद आती थी। मै अपनी दादी को बहुत प्यार करती थी,मगर आज वो हमारे साथ
नहीं थी।कालेज आते जाते मेरी निगाहें अनचाहे ही उस खिड़की,ओर खिड़की में बैठी महिला की तरफ चली जाती थी।
      उस दिन में रोज की तरह कॉलेज जा रही थी।जैसे ही में  उस सुन्दर से मकान की सुन्दर सी खिड़की के पास
से निकली, मेरी नजर उस खिड़की में बैठी वृद्ध महिला की ओर गई तो मुझेलगा कि उस महिला ने आंखो के इशारे
से मुझे नजदीक आने का संकेत किया ।पहले तो मुझे लगा कि शायद ये मेरा वेहम है,परन्तु तभी महसूस हुआ की
वास्तव में वे मेरी और कुछ इशारा रही हैं। मै अनजाने ही उनकी ओर बढ़ गई।खिड़की के समीप जाकर मैने हाथ
जोड़ कर उनसे नमस्कार किया और प्रश्वाचक नजरों से उनकी ओर देखा।बड़ी ही माध्यम परन्तु सुरीली सी आवाज
में उन्होंने मेरा नाम पूछा।नाम बताते बताते मुझे लगा कि वे शायद मुझसे कुछ कहना चाहती हैं।उन्होंने इधर उधर
देखते हुए होले से पूछा " क्या तुम हलवा खिला सकती हो"? मै अवाक! अनायास ही मेरे मुंह से हां निकला।वहीं सड़क
पर खड़े मैने अपने बेग में से लंच बॉक्स निकला और उनकी ओर बढ़ा दिया।बिना कुछ और बोले उन्होंने लंच बॉक्स
और उसे खोल कर ,उसमे रखे हलवा को उंगलियों से ही खाने लगी। मै विस्मृत सी उन्हें देखती रही।वे सब कुछ भूल
कर खाने में लगी रहीं।यह दृश्य मेरी स्मृति में इतना पेंठ गया कि आज तक मुझे वो क्षण याद है।मुझे उस क्षण ऐसा
प्रतीत हो रहा था जैसे मेरी स्वयं की दादी जी हलवा खा रही है।खाने के पश्चात् उन्होंने खाली लंच बॉक्स मुझे वापस
कर दिया।मैने केवल एक वाक्य उनसे  पूछा " दादी जी ,क्या आपको हलवा इतना अच्छा लगता है"? उन्होने हल्के
से स्वीकृति में हां कहा।मैने हाथ जोड़े और कालेज की ओर बढ़ गई।सब कुछ भूल कर मुझे एक ऐसी तृप्ति का
अनुभव हो रहा था जैसे कि मैने स्वयं की स्वर्गवासी दादी को ही हलवा खिलाया है।
    उस दिन घर वापस आते ही सबसे पहले मैने मां से कहा " आज आपका हलवा अत्यंत ही स्वादिष्ट था,मां,कल से
रोज  मेरे लिए हलवा बनाया कीजिए"!मां को अवाक छोड़ मै अपने कमरे की ओर बढ़ गई।उस समय मै उनके किसी
भी प्रश्न का उत्तर देने की स्थिति में नहीं थी।
       अगले दिन जैसे ही में कालेज जाने को तैयार हुई,मां ने लंच बॉक्स मेरी और बढ़ाया ओर कहा" मै जानती थी
कि एकनाएक दिन तुझे मेरे हाथ के बने हलवा का स्वाद जरूर तुझे अच्छा लगेगा", और इस से पहले की मां कोई
अन्य प्रश्न पूछती,, मै कालेज के लिए निकल गई।
         अब तो मेरा ये रोज का नियम हो गया कि में रोज मां से हलवा बनवाती और रोज ही उस खिड़की के पास
जाकर उन दादी जी को खिला देती,फिर खाली बॉक्स लेकर मै आगे बढ़ जाती।इस सब के दौरान हमारे मध्य
कोई संवाद नहीं होता था, और शायद  हम दोनों को इसकी आवश्यकता भी नहीं लगती थी। मै उन्हें तृप्ति के
साथ खाते देखती ,ओर वे खाकर बॉक्स मुझे वापस कर देती! हां,बॉक्स वापस करते समय वे जिस नजरों से मुझे
देखती,मुझे वो उनका मूक आशीर्वाद ही लगता।उस समय मुझे तो यही लगता कि जैसे मेरी स्वयं की दादी ही
तृप्त हो रही हैं।
          ऐसे ही तृप्ति के क्षणों में मैने गौर किया कि वे व्हील चेयर पर बैठी रहती है,लेकिन आज तक मैने उनके
आस पास किसी को भी नहीं देखा।हम दोनों में मध्य एक ऐसा रिश्ता आकार ले चुका था जिसे किसी भी नाम की
आवश्यकता नहीं थी।ये सब घटना क्रम कोई 10 ,15  दिन लगातार चलता रहा।एक शाम जब में घर वापस आईं
तो अचानक मुझे लगा कि मुझे तेज बुखार आ रहा है। मै निढ़ाल सी पलंग पर लेट गई।मां आई ,आते ही मेरे माथे
पर अपना हाथ रखा तो चौंक गई " अरे तुझे तो तेज बुखार है"।फिर क्या था ,तुरंत ही डाक्टर को बुलाया ,उसने कहा
कि इसे वायरल हो गया है, अतः 8 या दिनों तक आराम करे और दवाई खाए ,ठीक हो जाएगी।फिर क्या था,मां का
सख्त ऑर्डर हुआ,कल कालेज नहीं जाना है।बुखार से मै निढ़ाल थी,आंखे बंद करली।
      जब मेरी आंख खुली तो देखा कि मै अस्पताल में थी।मां ने स्नेह पूर्वक हाथ पकड़ा हुआ था, आंखे भरी हुई
थी।मेरी सवालिया नज़रों को देख मां ने बताया कि तुम्हे कोई विशेष इंफेक्शन हो गया था ,आज 7 के बाद तुम्हे
होश आया है।अब तुम कुशल से हो।
        अगले 4 या 5 दिनों तक मां ने कमरे से बाहर  ही नहीं निकलने दिया।ठीक होने पर जब कालेज जाने लगी
तो मां ने लाड से सर पर हाथ फेरते हुए लंच बॉक्स थमा दिया" आज मैने तेरे लिए स्पेशल हलवा बनाया है", तुरंत
बॉक्स लेकर मै थोड़ी बेकरारी से कालेज के लिए चल दी,शायद उस समय मुझे इतने दिनों बाद कालेज से अधिक
दादी से मिलने की जल्दी थी।लगभग दौड़ते भागते मै उस खिड़की के पास आई तो देखा खिड़की बंद थी! 
    एक दिन,दो,तीन,इसी तरह से 10 दिन बीत गए परन्तु खिड़की नहीं खुली। मै हैरान परेशान सी,कुछ बेचैन सी
रोज खिड़की कि तरफ देखती थी।इस दौरान मां से रोज हलवा बनवाती,फिर ना चाहते हुए भी खुद ही खा लेती।क्या
कारण था जो खिड़की बंद थी,किस से पूछूं,उनके अतिरिक्त मेरा उस सुंदर घर  पर रहने वालों से मेरा कोई परिचय
नहीं था। 11दिन बाद जैसे ही उस मकान के पास पहुंची,देखा खिड़की तो बंद थी मगर दरवाजे खुले हुए थे।पंडाल
सजे हुए थे,बहुत सारे लोग खाने पीने में लगे थे।हिम्मत करके मैने साथ वाले दुकानदार से इस सब की वजह जानी
तो …. दिल को धक्का सा लगा।" इस घर की एक बुजुर्ग महिला की कुछ दिन पहले मृत्यु हो गई थी,उसी के लिए
ये तेरहवीं का भोज था। सब तरफ भोज्य पदार्थों की खुशबू फैली हुई थी,तरह तरह के व्यंजन बन रहे थे।लोग जी
भरकर खा रहे थे और महिला के बेटों की प्रशंसा के पुल बांध रहे थे।नजदीक से निकलते एक महिला के निकट
संबंधी के शब्द कानों मै अनायास ही तीर की तरह चुभ गए " वाह! क्या बेटे हैं,बहुत बढ़िया दावत दी है ,सबके बेटे
ऐसे ही हों", आगे के शब्द सुनने की मेरी हिम्मत नहीं थी। मै बदहवास सी वापस घर की तरफ दौड़ सी लगाती,मां
की किसी भी बात का उत्तर ना देते हुए बिस्तर पर ओंधी जा पड़ी।मां हलवा बनाने के लिए किचन में व्यस्त थी। कैसी
है ये दुनिया,केसा है ये समाज,जीते जी हम सगे रिश्तेदारों को भोजन नहीं खिलाते,उनकी छोटी सी इच्छा, चाहे वह
हलवा जैसी ही हो ,कोई पूरी नहीं करता और मृत्यु के पश्चात…. उसकी आत्मा की शांति हेतु विशाल भोज,दावत…!
मैने बहुत कठिनाई से आंसू रोकते हुए ,अंतर्मन में समाज को कोसते ,निराशा और शोभ के साथ अपना सर तकिए
में छुपा लिया ।मुझे आज एक बार ऐसा महसूस हो रहा था कि आज एक बार फिर मेरी दादी की मृत्यु हो गई है!


      

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