मंगलवार, 26 मई 2020

कथा .... श्रीकृष्ण ( महा प्रयाण का दिन)भाग दो

    कथा .... श्रीकृष्ण ( महा प्रयाण का दिन)
        
                  "भाग २"
   
 "" कृष्ण "" क्या बात है ,आज इतनी जल्दी उठ गए आप ! कृष्ण चोंके,हल्के से मुंदी अपनी  आंखों को जैसे बड़ी ही कठिनाई से खोली ।सामने रुकमणी खड़ी थी। कृष्ण को कुछ क्षण लगे ,बरसाने से वापस द्वारका की मानसिक यात्रा से वापस आने को ! लेकिन रुकमणी ने कृष्ण की इस क्षण भर की दुविधा को जैसे भांप लिया।वे तुरंत आगे आई ,कृष्ण के हाथों को कोमलता से अपने हाथों में थाम लिया ,लगा जैसे उनका कृष्ण आज कहीं जाने वाला हैं ।उनकी बेचैनी ने जैसे स्वर धारण कर लिया "" मैने पूछा कृष्ण ,कहीं आज आपको जाना है क्या ! एक पल को कृष्ण जैसे उत्तर देने से ठिठके, आज तक उन्होंने कभी असत्य नहीं बोला था ,इसलिए आज इस महाप्रयाण की बेला में असत्य तो नहीं ही बोलूंगा,वैसे भी राधा ,उनकी मानसिक शक्ति अब जा ही चुकी थी "" हां ,रुकमणी ,मुझे आज जाना है,सोचा ,थोड़ा शीघ्र उठकर कुछ समय तुम्हारे साथ इस भोर कि बेला में  बिता लूं।प्रतिदिन तो उठते ही तुम मेरे साथ साथ पूरे महल के प्रबंधों में व्यस्त हो जाती हो तो इस लिए आज .....।रुकमणी को कुछ राहत मिली।"" हां कृष्ण ,सत्य कहते हैं आप,लेकिन आज मै भी आपके साथ ही चलूंगी।बहुत दिनों से हम साथ साथ नहीं निकले।""
       अब तक कृष्ण  मानसिक रूप से दृढ़ हो गए थे।राधा जा ही चुकी थी।अब उन्हें भी जाना ही था।"" नहीं रुकमणी, आज भी तुम्हे मुझे हमेशा की तरह अकेले ही जाने देना होगा ।रुकमणी ने कृष्ण के हाथों को और कस कर पकड़ लिया।भोर के धुंधले होते अंधेरे में लगा जैसे कि कृष्ण उसमे घुलते जा रहें हैं।"
       "" आओ ,रुकमणी,चलो इस महल के बाहर समुद्र के किनारे शीतल पवन के सानिध्य में कुछ क्षण व्यतीत करते हैं""।रुकमणी को थोड़ा विस्मय सा हुआ ,फिर भी बोली "" क्या रथ का इंतजाम करूं ,"" "" नहीं नहीं ,आज हम दोनों पैदल ही इस भोर की नीरवता का अनुभव करते हुए ऐसे ही चलते हैं,बहुत दिनों से इस प्रकार का संयोग ,व्यस्तता के कारण हम उठाने से वंचित रहे हैं।""
     दोनों ,एक दूसरे का हाथ थामे धीरे धीरे महल के घुमावदार रास्तों से होते हुए बाहर निकले।महल की सुरक्षा में लगे कर्मचारी थोड़े अचरज में पड़े ,वे सुरक्षा कारणों से उनके पीछे चलने हेतु उद्यत हुए तो कृष्ण के संकेत पर थम गए।
     मार्ग पर जैसे ही उन्होंने कदम बढ़ाए ,मार्ग में रजनीगंधा के पुष्प जैसे उनके स्वागत में बिछे हुए से प्रतीत हो रहे थे।वातावरण में रात्रि के पुष्प कहे जाने
 वाले मोगरा ,चमेली के वृक्ष जैसे उनके पदचापों की धमक प्रतीत करते ही पुष्पों कि वर्षा सी करने लगते ,पुष्पों के उनके अंगों से टकराते ही एक सुगंध की फुहार उन्हें अंदर तक भिगो जाती ।कुछ पुष्प जब रुकमणी के वेणी में अटक जाते तो कृष्ण मंद मंद मुस्कुराते होले से उन्हें चुन लेते,फिर एक ओर पटक देते। ये मार्ग जो दिन में हर समय द्वारका के निवासियों द्वारा हमेशा गुंजायमान रहता ,वहीं भोर के इस प्रहर में केवल पक्षियों के मंद मंद कलरवों से जीवंत हो रहा था।
     शीघ्र ही अपने मनपसंद किनारे की एक अपेक्षाकृत समतल उभरी चट्टान पर वे बैठ गए।
      कुछ क्षण वे यूं ही मोन ,समुद्र की उफनती लहरों को ,उसमे दमकते भोर के तारों को देखते रहे।रुकमणी को लगा जैसे कि आज द्वारका का समुद्र जो हमेशा गरजता ,उफनता रहता था ,पता नहीं आज इतना शांत कैसे है।द्वारका नगरी की भौगोलिक स्थिति कृष्ण के दूरदृष्टी के कारण ही आज संपन्नता की कहानी बन गई थी।लंबी लंबी सामुद्रिक यात्राएं करने वाले विशाल जहाजों के लिए द्वारका एक महत्वपूर्ण स्थान बन चुका था।वे जहाज द्वारका के किनारे भोजन , और  विश्राम के लिए अपना लंगर डालते थे ,जिसके कारण बदले में प्राप्त हुए करों के कारण द्वारका अति शीघ्र ही उस समय की अत्यंत धनाढ्य नगरी बन गई थी ।ये कृष्ण की दूर दर्शिता का ही परिणाम था कि सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में द्वारका का महत्व सूर्य की रोशनी की तरह जगमगा रहा था।कृष्ण और उनके राज्य के थोड़े बहुत शत्रु, द्वारका की ओर देखने का अब साहस नहीं कर पाते थे।द्वारका की प्रजा सुख चेन के साथ जीवन व्यतीत कर रही थी।अधिकांश समय ,कृष्ण अपने पुराने साथियों सहयोगियों के साथ प्राय ,धार्मिक आयोजनों ,भ्रमण एवम् यज्ञों आदि में ही समय व्यतीत करते रहते थे।रुकमणी तो प्रातःप्रतिदिन अपने भाग्य को सराहते हुए इंद्राणी के समान सुखों का उपभोग करती रहती थी।परन्तु जैसे जैसे समय बीतता जा रहा था वो स्पष्ट देख रही थी कि कृष्ण में कुछ परिवर्तन आ रहे हैं ।कृष्ण धीरे धीरे राजकाज के कार्यों को अपने पुत्रों ,विश्वसनीय सखाओं में बांटते जा रहे थे। और जबसे उन्होंने रुकमणी को भी द्वारका के कुछ महत्व पूर्ण कार्यों के लिए निर्देश देने प्रारंभ किए थे तो रुकमणी कुछ चिंतित सी होने लगी थी।रुकमणी वास्तव में कृष्ण से हृदय से प्रेम करती थी,इतना अधिक प्रेम कि कृष्ण के लिए उन्होंने अपने भाई शिशुपाल से भी बेर लिया था।शिशुपाल एवम् पिता की मृत्यु के पश्चात तो कृष्ण ही उसकी दुनिया थे।अब इतने वर्षों पश्चात कृष्ण के व्यवहार में जो परिवर्तन दृष्टिगोचर हो रहे थे स्पष्ट था कि किसी अनजानी आशंका से रुकमणी को चिंता होने लगी थीं ।आज भोर के समय कृष्ण के इस तरह चुपचाप अतिशीघ्र उठन से जैसे उसकी आशंकाएं साकार होने लगी थी।कृष्ण ने रुकमणी को समुद्र की ओर जब खोई खोई दृष्टि से ताकते हुए देखा तो उनसे रहा नहीं गया ,क्योंकि वे स्वयं भी आज रुकमणी को अपने महाप्रयाण के संबंध में बताने के लिए अवसर खोज रहे थे।"" रुकमणी ,इस मधुर ,शांत भोर की बेला में भी तुम किन विचारों मै उलझी हुई हो ,क्या बात है मुझसे साझा नहीं करोगी क्या " सुनते ही जैसे रुकमणी के आंख के आंसू पिघल उठे ।वे अपने हृदय की आकांक्षाओं को अब छुपा नहीं सकी।उन्होंने कृष्ण को जकड़ कर अपने भावों को शब्दों में पिरोकर पूछ ही लिया " कृष्ण क्या वास्तव में आप मुझे छोड़ कर जा रहे हैं !? कृष्ण ने अपनी गहरी नीली आंखो से सीधे रुकमणी की आंखों में देखा ,अपने हृदय में उठते विचारों के तूफानों को ,जो अब तक बलपूर्वक उन्होंने रोक रखा था ,अब उसे थामने में अपने को  असमर्थ   प्रतीत किया ।यही अवसर है ,रुकमणी को अब वास्तविकता से सामना करना ही होगा।उन्हें उसे बताना ही होगा कि " हां ,उन्हें अब जाना ही होगा हमेशा हमेशा के लिए ""।उन्होंने पुनः एक बार रुकमणी को अपने आलिंगन में ले लिया।
    """ रुकमणी ,तुमने हमेशा मेरे साथ रह कर हर कठिन समय में मेरा उत्साह ,साहस को संबल प्रदान किया है ,....... रुकमणी ,परन्तु विगत कुछ समय से मुझे लगने लगा है कि इस संसार में मेरे आने का प्रायोजन पूरा हो चुका है।परिवर्तन इस संसार का नियम है।अब ये मेरा कर्तव्य है कि मै दूसरों को भी अवसर दूं ,ताकि वे सब भी इस संसार में आने का अपना प्रायोजान सिद्ध कर सकें। मै चाहता हूं कि रुकमणी ,जिस प्रकार तुमने अपने जीवन में आने के लिए मुझे सहर्ष अनुमति दी थी वैसे ही इस संसार से जाने के लिए  तुम मुझे सहर्ष अनुमति दो रुकमणी !""
      अवाक रुकमणी ,कृष्ण की छाती से चिपक जैसे बिलख उठी।उसकी आशंका सत्य हो उठी।कृष्ण जा रहे थे।
       अब कृष्ण जी से नहीं रहा गया।रुकमणी को पकड़े पकड़े वे खड़े हो गए।"" रुकमणी अब सत्य को स्वीकार करने का साहस करो।जैसे तुम अभी तक अपना कर्तव्य निभाती आई हो वैसे भी मेरे बाद तुम द्वारका के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाती रहोगी।चलो रुकमणी, अपने कर्तव्यों का आरंभ अब तुम मुझे सहर्ष विदा करके करो। रुकमणी अब जान चुकी थी कि उन्हें वास्तविकता से सामना करना ही होगा।इतने वर्षों के साथ से वे अच्छी तरह जानती थीं कि कृष्ण अपने निश्चय पर दृढ़ रहने वाले व्यक्ति विशेष है।उन्होंने अंतिम बार पुनः कृष्ण को मनाने का प्रयत्न किया , हे प्रिय स्वामी ,आपने मेरा हरण करते हुए मुझसे प्राण किया था कि आप जीवन पर्यन्त मेरा साथ देंगे ,तो उसी प्रण को स्मरण करते हुए मुझे क्यों अकेला छोड़ कर जाने की बात कर रहे हैं।कृष्ण ने रुकमणी के हाथ थामे ,दृढ़ गंभीर स्वर में जो कहा उसे सुन कर तो जैसे रुकमणी  भली प्रकार जान गई कि अब उनका एवम् कृष्ण का बिछोह अवश्यंभवी है।""" रुकमणी ,शायद तुम वर्तमान जन्म के मोह में उलझ कर ये भूल चुकी हो कि जब जब हमने इस धरा पर अवतार लिया है ,हमे विछोह सहना पड़ा है।स्मरण करो , सीता के अवतार का,स्मरण करो लक्ष्मी के अवतार का , और ऐसे ही ना जाने कितने ही अवतारों में हमने जब जब भी मानवीय रूप धारण किया है ,संयोग एवम् मिलन ही तो उसका प्रमुख कारण रहा है। बस कुछ ही समय की और देर है ,अपने धाम में , मै तुम्हारा ,अपने दोनो हाथ फैलाए इंतजार करूंगा।रुकमणी ,विधि के विधान से स्वयं मै भी बंधा हुआ हूं, उसका उलंघन ना तो मनुष्य रूप में मै कर सकता हूं एवम् ना ही नारायण रूप में । धेरया रखें ,काल के नियम के अनुरूप ही हमे कर्तव्य करने होते हैं,अब मेरा इस धरा पर कर्तव्य सम्पूर्ण हुआ ,तुम्हे अभी इस कालचक्र में और रहना है ,इसलिए मेरी विदाई में तुम्हे बाधा नहीं डालनी चाहिए।"" सिसकती रुकमणी के पास अब कुछ कहने को ,कृष्ण को रोकने को कोई भी उपाय नह रह गया था।वे जोर जोर से रोटी हुई कृष्ण के चरणों में गिर पड़ीं।
      सहसा उन्होंने अपने को रुकमणी के बंधन से छुड़ाया,एक बार उनकी ओर गहरी नज़रों से देखा ,फिर दोनों हाथ जोड़ कर उनसे विदा की मुद्रा में आज्ञा मांगी एवम् अपने चरित्र के अनुसार ,जिस भाव से वे बरसाने से मथुरा की ओर प्रयाण किया था ,अब उसी भाव भंगिमा के साथ ,मोह के सारे बंधनों को एक ही झटके में काट, द्वारका के विपरित दिशा की ओर, गहरे वन मार्ग पर अपने कदम बढ़ा दिए।रुकमणी उन्हें भावशून्य नज़रों से तब तक देखती रहीं जब तक वे उनकी दृष्टि से ओझल नहीं हो गए।
       " सुनो प्रिये,तुम हमारे जीवन पालन के लिए क्यों इन निर्दोष ,निस्सहाय पशुओं का शिकार करते हो ,? क्या तुम्हे उन निरीह मूक प्राणियों पर किंचित दया नहीं आती ,जिनके शिकार के लिए तुम रोज वन में जाते हो ?" "" अगर वन में मै आखेट नहीं करूं तो तुम्हारा ,अपनी संतानों का पालन पोषण कैसे करूं ,तुम ही बताओ , मै तो केवल तुम सबके भोजन आदि की आवश्यकताओं के लिए ही तो आखेट करता हूं "! "" तो तुम क्यों नहीं द्वारकाधीश के पास कोई कार्य मांगने जाते हो ,सुना है वे बड़े दयालु हैं ,धन धान्य की उनके पास कोई कमी भी नहीं है ""।"" सोचता तो मै भी यहीं हूं परन्तु वे ठहरे द्वारकाधीश , मै एक साधारण सा आखेटक ,फिर क्या जाने कोई उनसे मुझे मिलने का अवसर भी देगा कि नहीं "। " लेकिन तुम एक बार द्वारकाधीश से मिलने का प्रयास तो करो ,मुझे पूर्ण विश्वास है कि वे सर्वदा असहयाओं की मदद को तत्पर रहते हैं ,मैने भी उनकी दयालुता की कई कहानियां सुनी हैं,इस लिए मै आपसे प्रार्थना करती हूं कि आप ये निर्दोष प्राणियों के वध का पाप पूर्ण कार्य त्याग कर ,मजदूरी आदि कोई भी कार्य करें, ताकि हमारा अगला जन्म सुधर जाए " ।
     पत्नी की उपरोक्त गंभीर बातें सुनकर ,"" जरा "" नामके बहेलिया का भी आज मन कुछ बदलने लगा।पत्नी ठीक कहती है ,निर्दोष पशुओं को मारने के क्रूर कर्म से जो पाप लगता है , कहीं ईश्वर मुझे उसके कारण नरक की अग्नि में तो नहीं झोंक दे। जरा का मन आज कुछ परिवर्तित होने लगा।
     "" ठीक कहती हो तो तुम प्रिए ,बस आज अंतिम दिन मुझे आखेट पर जाने दो , क़ल अवश्य ही मै द्वारका जा कर किसी भी प्रकार से द्वारकाधीश के दर्शन कर परिवार के जीवन यापन हेतु प्रार्थना करूंगा,पर आज मुझे मत रोको।"" 
       पत्नी ने होले से हां में गर्दन हिलाई तो ,जाता नामके बहेलिया ने अपना तीर धनुष उठाया और वन की ओर आखेट के लिए चल पड़ा।
       प्रातः से दोपहर हो गई ,सूर्य सीधे सिर के ऊपर ,अपनी भयंकर रश्मियों से जैसे अग्नि कि बरसात कर रहे थे।गर्मी एवम् भूख के साथ निराश ,हताश ,"जरा" शिकार हेतु कोई भी जानवर ना पाकर वापस अपने घर लौटने का विचार कर है रहा था कि उसे लगा कि सामने कुछ दूर झाड़ियों में कोई आहट हुई है।" ओह, प्रतीत होता है कोई तो है उन झाड़ियों में ,जो इस ताप्ती दोपहर में विश्राम कर रहा है। हे ईश्वर ,आज मुझ पर कृपा करे , मेरे तीर का सटीक निशाना ये प्राणी बने ताकि मै अपने भूले परिवार की भूख मिटा सकूं "।वह बिना कोई आहट किए , होले होले जितना हो सकता था ,दूर झाड़ियों में गुलाबी रंग से चमकते ,शायद ये हिरण हो ,ये समझ उस प्राणी के नजदीक तक जा पहुंचा ,अपने कंधे से टांगे धनुष को उतारा ,उसमे विष भुजे तीर को लगाया और सीधे ,सटीक निशाना लेकर ,उस चमकते प्राणी के गुलाबी अंग पर तीर छोड़ दिया।
      वातावरण में एक माध्यम सी चित्कार सू हुई। जरा दौड़ते हुए सीधे शिकार की ओर दौड़ा ,ये क्या ,ये तो कोई मनुष्य है जो अपने एक पैर के मुड़े घुटने पर दूसरे पैर को रख कर लेटा हुआ था। हे ईश्वर , ये कैसा अपराध मुझसे हो गया ,हिरण के धोके में उसका विष बुझा तीर उस मनुष्य के गुलाबी चमकते तलुए में जा धंसा था। जरा ने हिम्मत कर उस विष के प्रभाव से अचेत होते मनुष्य को सीधा करने का प्रयत्न किया तो ..... भय एवम् शोभ से कापने लगा।ये तो स्वयं द्वारकाधीश हैं ,ये तो कृष्ण है। जरा बिलखता हुआ , बारम्बार द्वारकाधीश से क्षमा मांगने लगा। जरा कृष्ण के रक्त निकलते पैर को उठाकर रक्त रोकने का प्रयत्न करने लगा कि तभी द्वारकाधीश श्री कृष्ण ने होले से अपनी आंखे खोलते हुए उसे इतना ही कहा "" तुम कोई दुख मत प्रकट करो , ये तो मेरा प्रारब्ध था ! !
           जय द्वारकाधीश ,जाए श्री कृष्ण

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