शुक्रवार, 22 मई 2020

कथा ...........श्री कृष्ण ( अवतार का अंतिम दिन)

                      कथा 

  श्रीकृष्ण ( अवतार का अंतिम दिन )

  भोर की पहली किरण,हल्की सी " गुंजन "पक्षी की आवाज, इस आवाज के अतिरिक्त हर ओर शांति की एक निशब्द ध्वनि के साथ श्रीकृष्ण की आंख खुली।वे हौले से उठ कर बैठे।समीप में शैया पर रुकमणी अभी भी किसी गहन स्वप्न में खोई हुई सी, अधरों पर हल्की सी मुस्कान लिए निंदृत अवस्था में सोई हुई थी।उनके बालों की एक लट, मध्यम हवा का संबल पा,जैसे उनके मुख पर इठलाती हुई सी लहरा रही थी।कृष्ण धीरे से उठ खड़े हुए।वे नहीं चाहते थे कि रुकमणी के स्वप्न संसार में कोई बाधा पड़े।धीमे धीमे वे शयन कक्ष से बाहर निकल श्रीतिर्थ जिसे आज हम द्वारका के नाम से जानते है के अपने इस विशाल किलेनुमा महल के एक खुले कंगूरे पर सट कर खड़े हो गए। हल्की ,ठंडी हवा जैसे उनके कानों में कुछ कहने लगी।सामने विशाल लेकिन हमेशा उमड़ती ,बलखाती लहरों के रूप में अपनी व्यग्रता दिखलाता समुद्र भी पता नहीं आज क्यों शांत ,निस्तब्ध एक शांत नदी की तरह लग रहा था।गुंजन पक्षी कृष्ण को जगाकर ना जाने कहां उड़ गया था।सामने विशाल उपवन,राजमार्गों के किनारे, सघन पत्तियों से लदे वृक्ष भी शायद अभी रात्रि के इस अंतिम पहर में अलसाए से खड़े थे। पुनः तभी ना जाने कहां से हवा का एक हल्का सा झोंका अपने अंदर कदंब के पुष्पों की भीनी सी महक समेटे सीधे उनके मुख़ से टकराया तो वे चोंक उठे।उन्होंने  खड़े खड़े ही अपनी पलकों को मूंद लिया ।
      "  कृष्ण ,अरे तुम अचानक यहां बरसाने में कब चले आए ?" दूर से उन्होंने अपलक निहारती राधा की आवाज सुनी, तो वे अपने को रोक ना सके।उन्होंने अपने दोनो हाथ राधा की ओर बढ़ाए ,तो राधा की आवाज ने जैसे उनके पग के साथ साथ उनके, राधा के आलिंगन हेतु बढ़ाए हाथों को जैसे रोक दिया।" कृष्ण ,तुमने बताया नहीं कि अचानक यहां केसे आना हुआ "।राधा की गंभीर आवाज ने जैसे योगिराज को रोक दिया। " बस ,दुनियादारी के कार्यों में उलझा रहा ,कभी  आने का अवसर ही नहीं मिला , जब कभी तुमसे मिलने का अवसर खोजता ,तभी कोई ना कोई कार्य मेरा मार्ग रोक देता परन्तु राधा , माना कि मै कार्य क्षेत्र में उलझा रहा ,पर तुम तो द्वारिका आ सकती थी,तुम्हारे लिए तो द्वारका का प्रत्येक मार्ग खुला हुआ था।नहीं ,कृष्ण ,स्मरण करो जब तुम हमेशा के लिए वृंदावन छोड़ कर मथुरा जा रहे थे तो तुम्हीं ने तो कहा था कि राधा निश्चिंत रहो,वचन देता हूं कि लौट कर बरसाना आऊंगा और तुम्हे हमेशा हमेशा के लिए अपने साथ ले जाऊंगा "  कृष्ण की बड़ी बड़ी सी आंखों में जैसे द्वारका के विशाल समुद्र की नमी भरने लगी।" हां, तुमने वचन दिया था , और मै जानती हूं कि कृष्ण अपने वचनों के पक्के हैं, और आज तुमने  वचन निभा भी दिया कृष्ण "! तुम आज पुनः एक बार बरसाने ,अपनी राधा के पास लौट आए हो।" ये सुनते ही कृष्ण के अश्रुओं का बांध जैसे टूटने लगा।
       " नहीं कृष्ण , इन आंसुओं को व्यर्थ मत जाने दो। मै जानती हूं कि मेरा कृष्ण जिन विशाल ,इतिहास की धाराओं को मोड़ने में व्यस्त था ,शायद मेरी विरह पुकार को सुनकर कहीं वह अपने कर्मों से विलग ना हो जाए। जिस कृष्ण का अवतार ,संसार में कर्मों के प्रसार हेतु हुआ है , मै अपने छोटे से स्वार्थ वश ,उनमें बाधा नहीं बनना चाहती थी।विश्वास करो कृष्ण मैने कभी स्वप्न में भी यह नहीं सोचा कि कर्मो के पथ से तुम्हे किसी प्रेम के पथ के उद्देश्य हीन मार्ग पर चलने के लिए प्रयास करूं।फिर कृष्ण क्या तुम वास्तव में मानते हो कि मै कभी भी,किसी क्षण तुमसे आज तक दूर रही हूं? 
    निरुत्तर से कृष्ण अवाक से राधा के मुख को निहारते रहे।सत्य कह रही है राधा।जबसे बरसाना छोड़ ,कर्मपथ पर कदम रक्खा है,तब से आज तक ,जीवन के इस अंतिम पड़ाव तक राधा हमेशा में मस्तिष्क के किसी एक कोने में विराजमान रही हैं।जब भी कभी दुनियादारी के झंझावात में कोई भी कठिन क्षण आया,कभी भी अनिर्णय की स्थिति आईं,हमेशा राधा ही तो मार्ग प्रशस्त करती रही है।कृष्ण को याद आया कि जब भी वे कोई महत्वपूर्ण निर्णय करते थे ,तो अचेतन में उपस्थिति राधा उन्हें निर्णय लेने में मदद करती रहती थी।शायद कोई एक भी दिन ऐसा नहीं बीता होगा जब अत्यधिक व्यस्त होने के बाद भी, जब कभी विश्राम का क्षण प्राप्त हुआ तो उन्हें राधा का स्मरण नहीं हुआ हो।
     कृष्ण ने फिर एक बार राधा को मन की ओट से बाहर निकाला और साक्षात देखने लगे।बरसाना छोड़े हुए उन्हें एक शतक से भी अधिक समय हो गया था।भले ही वे चमत्कारिक व्यक्ति थे ,परन्तु मानव व्यवहार का असर उन पर भी पड़ रहा था।इस पृथ्वी पर शायद उनके पधारने का उद्देश्य अब पूर्ण हो चुका था।पूरे भारत वर्ष में अब धर्म और न्याय शीलता की पताका लहरा रही था।स्वयं उनके मानव रूपी शरीर पर दीर्घ जीवन का प्रभाव सम्पूर्ण रूप में दिखाई दे रहा था।उन्हें लगने लगा था कि इस धरा पर उनके अवतरित होने का उद्देश्य पूर्ण हो चुका है ,उनके, अब अपने धाम पर वापस जाने का समय आ चुका है।अपने जैविक एवम् पालक माता पिता के सारे दुखों,कष्टों का वे अंत कर चुके थे।उनकी स्वयं की संताने अब स्वयं धर्म की रक्षा के लिए योग्य हो चुकी थी।अपनी महिषी रुकमणी की कोई चिंता नहीं थी।कृष्ण के लंबे साथ ने उनको मानसिक रूप से अत्यधिक मजबूत बना दिया था।कृष्ण ने अपने अवतार के पूर्ण होने का आभास होते ही ,रुकमणी को व्यस्त रखने हेतु उन्हें धीरे धीरे द्वारका के राजकाज में हाथ बटाने के लिए पूरी तरह प्रशिक्षित कर दिया था।स्वयं रुकमणी को पिछले कुछ समय से स्पष्ट रूप से कृष्ण, जो उनका जीवन आधार थे ,में बदलाव की अनुभूति कहीं गहराई से होने लगी थी।स्वयं कृष्ण ने भी बातों बातों में उन्हें ,उनके बाद जिम्मेदारी उठाने को लेकर मार्गदर्शन कई बार किया था।समय के इस अंतराल में स्वयं रुकमणी भी कृष्ण से विलग होने की बात से सचेत थी।वे कोई भी क्षण अब कृष्ण को अपनी आंखों से दूर नहीं रखती थी ।हर समय वे कृष्ण की परछाई के रूप में रहती थी।कृष्ण भी इसे अनुभव करते हुए नित्य प्रतिदिन रुकमणी को द्वारका के कामों हेतु सजग करते जा रहे थे।ऐसा नहीं था कि इन सब के मध्य वे कभी भी राधा को एक क्षण के लिए भी भूले हों।उनके हृदय में हमेशा राधा के प्रति  ,उनके द्वारा किए अन्याय का भाव उपस्थित रहता था।क्या सोचती होगी राधा उनके बारे में।क्या द्वारकाधीश होने से वे राधा को भूल गए होगे,अथवा धरा के लिए किए गए कर्मों में, वे राधा को भूल गए होंगे,या रुकमणी के उनके जीवन में प्रवेश करने को लेकर राधा उन्हें विरह के लिए तो जिम्मेदार तो नहीं मान रही होगी।इन्हीं सब प्रश्नों के उत्तर आज इस भोर की बेला में उन्हें साक्षात राधा से प्राप्त हो रहे थे।
 कृष्ण ने पुनः एक बार ध्यान से राधा को पूर्ण चेतांता से देखा। राधा अब वो ब्रज की शोड्सी नहीं रह गई थी।उम्र और कर्तव्यों के कारण उनका बाहरी रूप बादल गया था परन्तु व्यवहार ... तभी राधा की धीर,गंभीर आवाज ने उन्हें लक्ष्य किया।नहीं ,कृष्ण, नहीं, मै जानती हूं कि जैसे तुमने मुझे एक क्षण भी अपने से अलग नहीं किया  ,वैसे ही मैने भी तुम्हे कभी विस्मृत नहीं किया । जहां तुम कर्म के प्रभाव में बह रहे थे तो मै तुम्हारी ,मुझे सौंपी गई जिम्मेदारी ,कर्तव्यों को तुम्हारी आज्ञा जान कर यहां ,बरसाना में उनका पालन पोषण कर रही थी। नंद एवम् यशोदा जिन्होने द्वारका ना जाकर बरसाने में ही रुकने का निश्चय किया था,उनकी देखभाल तुम्हारी ही आज्ञा में कर रही थी।तुम जानते ही हो कि अगर में भी तुम्हारे साथ द्वारका चली जाती तो शायद वे भी इस धाम को छोड़ ,परम धाम पर कबके चले गए होते कृष्ण।कृष्ण निरुत्तर थे।
      " राधा,कहने को तो बहुत कुछ शेष है पर, " नहीं कृष्ण अब कुछ मत कहो ।ये मार्ग मैने स्वयं चुना था ,लेकिन मन के किसी कोने में एक इच्छा थी कि इस धाम को छोड़ने से पहले एक बार तुम से साक्षात्कार कर लेती तो... ।राधा का स्वर रूंधने लगा था।कृष्ण अपलक ,अवाक राधा के अनकहे शब्दों को, ,भावनाओं को बिना सुने भी सुन रहे थे।वे समझ चुके थे कि राधा ने भी अब उनसे ,नहीं नहीं ,इस धाम से विदा होने का निश्चय कर लिया है।राधा से मिलकर जहां उनके हृदय को अपराध भाव से मुक्ति मिली थी , वहीं ,राधा से पुनः हमेशा के लिए, विरह की आकांक्षा उनके हृदय को मथ ने लगी थी।वे अच्छी तरह से जानते थे कि राधा दृढ़ निश्चय कर चुकी थी।अब विदाई की बेला आ चुकी थी।
    कृष्ण,एक चमत्कारी पुरुष को ,शायद जो कुछ अभी तक घट चुका था , और जो घटने जा रहा था ,उसका पूर्वानुमान ना हो  ऐसा हो ही नहीं सकता था ।लेकिन सम्पूर्ण संसार को कर्मो के लिए प्रेरित करने,मनुष्यता को मानव धर्म का पालन करने के लिए वे गीता के ज्ञान के रूप में पूर्व में ही अपने पश्चात संसार को मार्ग दिखाने का मार्ग आलोकित कर चुके थे।स्पष्ट था कि उन्हें  संसार से विदा लेने हेतु ,स्वयं अपने साथ साथ अपनी मानसिक शक्ति राधा से भी आज्ञा लेनी ही थी जिसके लिए ही आज वे राधा के सम्मुख खड़े थे ।वे भली भांति जानते थे कि स्वयं राधा का भी इस धरा में आने का उद्देश्य पूर्ण हो चुका था।विदा तो दोनों को ही लेनी थी ,लेकिन इस वर्तमान में अब जो घटने जा रहा था उसके लिए शायद कृष्ण तो क्या स्वयं नारायण भी एक बार तो विचलित हो जाने वाले थे !
      नहीं ,मुझे सत्य को स्वीकार ही करना होगा,कृष्ण ने सोचा,मोह से मुंह मोड़ा , और पुनः एक बार अपने चमत्कारिक अवतार का उद्देश्य रखते हुए , गहन ,विशाल ,आंखो में चेटनता लाते हुए पुनः राधा की ओर देखते हुए बोले " अच्छा ,राधा ,इस सत्य को में स्वीकार करता हूं  इस जीवन में तुम्हारे किए गए सहयोग से मै कभी  उर्रिन नहीं हो सकूंगा आज  मै तुम्हे रोकूंगा नहीं ।तुम्हारी कोई ऐसी इच्छा जो अभी तक अधूरी रह गई हो ,बोलो राधा ,ये कृष्ण का तुमसे वायदा है ,बोलो राधा , मै कृष्ण ,तुम्हारी प्रत्येक बात मानने के लिए आज बरसाना में उपस्थित हूं।" राधा ने क्षण भर के लिए पुनः गौर से कृष्ण को देखा ,अपने कृष्ण को " हां ,कृष्ण तुमसे विदा लेने से पहले मेरी एक अंतिम इच्छा और पूरी करो कृष्ण ,पूरी करो " ।" बोलो राधा " कृष्ण इतना ही कह पाए।
         " मै चाहती हूं कि इस विदाई कि बेला में तुम मुझे वो ही बांसुरी की धुन सुनाओ ,जिसे तुम कभी मेरे लिए जमुना के किनारे सुनाया करते थे।...... "लेकिन मेरे बरसाना छोड़ने से पहले ही तो तुमने मुझसे वो बांसुरी ले ली थी राधे,स्मरण है ,मैने भी उस पल कहा था कि लो ,राधा इस बांसुरी को लो, क्योंकि कृष्ण ये बांसुरी ,राधा के लिए ही तो बजाता था, सुनाता था।तब से लेकर आज तक मैने कभी बांसुरी को बजाना तो दूर ,बांसुरी देखी तक नहीं,तो अब बांसुरी की धुन कैसे ......"।अविलंब राधा ने अपने आंचल से कृष्ण की वहीं बांसुरी निकाल उनके बढ़े हुए हाथों में रख दी !
       निस्तब्ध कृष्ण ने बांसुरी अपने होठों से लगाली !
        जैसे ही बांसुरी की स्वरलहरी राधा के कानों तक पहुंची ,राधा ने दोनों हाथ जोड़ कर कृष्ण को अंतिम प्रणाम किया और उनकी ओर से मुख मोड़, सामने फैले ,बरसाने के घने जंगलों में प्रवेश करने को उद्दयत हो गई।कृष्ण की बांसुरी की हर धुन के साथ राधा के कदम वन क्षेत्र की ओर बढ़ते गए  ,बांसुरी की धुन तीव्र तर होती गई ,राधा के कदम भी बढ़ते गए।शीघ्र ही राधा सामने के वन में लुप्त हो गई और जैसे ही राधा लुप्त हुई ,आग का एक विशाल गोला उस वन से ऊपर विशाल असीम ,आकाश में समा गया।
         कृष्ण ,अवतारी कृष्ण ,भावहीन चेहरे से ये सब ताकते ,रुके ,बांसुरी अपने हाथों में ली , और , और सहजता से समीप बहती जमुना में उसे प्रवाहित कर दिया !
                                        ( क्रमशः शेष अगले भाग दो में )
       

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