बुधवार, 20 मई 2020

यात्रा.................उडुपी (कर्नाटक)

                                               यात्रा ..........  उडुपी ( कर्नाटक )



    अचानक ऐसे ही किसी साधारण दिन , मै टी वी देख रहा था तो अचानक एक चैनल पर भगवान श्री कृष्ण जी से संबंधित प्रोग्राम आने लगा।क्योंकि मुझे भगवान श्रीकृष्ण के जन्मस्थान " मथुरा" में रहने का सौभाग्य प्राप्त है तो मै प्रोग्राम को रुचि के साथ देखने लगा।कुछ क्षण पश्चात जब उसमे उडुपी शहर का जिक्र आया तो हैरान रह गया।उडुपी,इस शहर का जो कि सुदूर कर्नाटक राज्य में स्थित है ,वहां श्रीकृष्ण की आराधना,ये मेरे लिए एक दम नई सूचना थी।उस प्रोग्राम को देखने के बाद मेरा यह विचार कि मै श्रीकृष्ण से संबंधित समस्त कथाओं को पूरी तरह से जानता हूं, गलत सिद्ध हुआ।बस, फिर क्या था,मेरा घुमक्कड़ हृदय बेचैन हो उठा " उडुपी" जाकर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन एवम् उडुपी में उनके प्रगट होने के वर्णन को साक्षात महसूस करने के लिए।श्रीकृष्ण जी के जन्मस्थान मथुरा के निवासी होने के, सौभाग्य मिलने के कारण मेरा यह मानना है कि जहां जहां श्रीकृष्ण जी ,वहीं वहीं मै स्वयं तो ऐसी विचारधारा होने के कारण आप भी जब मेरे साथ ,मेरे शब्दों के द्वारा " उडुपी " की यात्रा पर चलेंगे ,तो निसंदेह आप भी कह उठेंगे " अरे ,भगवान श्री कृष्ण जी की इस कथा के बारे में तो हम भी कुछ नहीं जानते थे "! तो चलिए, कुछ समय निकालिए और मेरे साथ चलिए उडुपी शहर की यात्रा पर।




         उडुपी जाने के लिए मेरे शहर मथुरा से केवल दो ही ट्रेन जाती हैं,मगर उनमें अगले पांच माह तक कोई सीट खाली नहीं थी, और चूंकि उडुपी तक की यात्रा में लगभग 42 घंटे लगने वाले थे तो बगैर रिजर्वेशन के तो संभव ही नहीं था जाना।परन्तु पांच माह तक मै उडुपी जा कर ,भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन एवम् उनकी कथा को साक्षात देखने के लिए रुक भी नही सकता था तो दिमाग पची करके मार्ग खोज ही लिया।मथुरा से सीधे मुंबई , और मुंबई से सीधे उडुपी शहर,हालांकि इस यात्रा में भी समय कुछ अधिक लगने वाला था क्योंकि सीधी ट्रेन के बजाय ,दो दो ट्रेन से यात्रा करनी पड़ रही थी,परन्तु संतोष की बात यह थी कि यात्रा के लिए केवल सात दिन का ही इंतजार करना था।उसके पश्चात उडुपी तक दोनों ट्रेन में सीट मिल गई थी।
      ट्रेन सही समय पर प्रातः 8 बजे मुंबई पहुंच गई और उसी दिन प्रातः 11 बजे उडुपी के लिए दूसरी ट्रेन भी पकड़ ली।अब उडुपी जाने की मेरी इच्छा पूरी ही होने वाली थी,केवल कुछ ही घंटो कि यात्रा की ही बात थी ! ये और बात है कि ये यात्रा भी लगभग 17 घंटों की थी।



   आपको एक बात और बताना चाहूंगा कि उडुपी ना केवल अपने कृष्ण मठ के लिए प्रसिद्ध है अपितु माना जाता है कि दक्षिण भारत में ही इडली ,डोसा उत्तपम आदि का निर्माण भी इसी उडुपी शहर में हुआ था।इसलिए आज भी कुछ सर्वोत्तम उपरोक्त व्यंजनों के लिए रेस्टोरेंट, उडुपी नाम से ही पहचाने जाते हैं। 



आखिरकार ट्रेन जब उडुपी पहुंची तो रात्रि के 3 बजे थे।स्टेशन पर जब मै और मेरे साथी उतरे तो हैरानी की सीमा नहीं रही।स्टेशन पर केवल और केवल हम ही उतरे ,यहां तक कि पूरे स्टेशन पर इस ट्रेन में सवार होने वाला भी एक ही यात्री था।कुछ ही समय में ट्रेन आगे रवाना हो गई ।पूरा प्लेटफार्म तो क्या पूरे स्टेशन पर हमारे सिवाय अन्य कोई एक भी यात्री,कर्मचारी नहीं था।स्टेशन काफी बड़ा था ,मगर शायद रात्रि के इस अंतिम पहर में किसी को भी यात्रा करने की आवश्यकता नहीं थी।
   सुनसान मगर रोशनियों से जगमगाते स्टेशन पर बाहर की तरफ आते हुए , हमे कमरे में बैठे रेलवे के कुछ कर्मचारी ही दिखे ,मगर कोई यात्री नहीं था।स्टेशन के बाहर आए तो बाहर एक दम अंधेरा,वीरानी,ना कोई टैक्सी अथवा कोई भी परिवहन का साधन नहीं।यहां तक कि स्टेशन जितना रोशनी से दमक रहा था,बाहर उतना ही अंधेरा ।हम ठहरे परदेसी,किधर जाना है , किससे जाना है कोई बताने वाला नहीं,क्योंकि हमें उस घुप अंधेरे में दिशा का कोई ज्ञान नहीं हो रहा था।आखिर कार निर्णय किया कि सुबह होने तक स्टेशन पर ही रुका जाए।वापस प्लेटफार्म पर आकर वेटिंग रूम देखा तो ताला बंद।स्टेशन मास्टर के पास जाकर उनसे मदद मांगी तो वहीं भाषा कि समस्या ! इशारों और टूटी फूटी अंग्रेजी हिन्दी में उन्होंने टी टी आई के आफिस में जाने का संकेत किया ,मगर अफसोस,वो आफिस भी ताला बंद।कोई अन्य उपाय नहीं देख,झख मारकर प्लेटफार्म पर लगी बैंचों पर ही समय बिताने को मजबूर हुए।अब आप समझ ही सकते हैं कि घंटों लंबी यात्रा की थकान,रात्रि का जागरण से हमारा क्या हाल हुआ होगा।
     आखिर कार सुबह के 7 बजे ,तब कंही जा कर यात्रियों की चहल पहल होने लगी।बाहर आए तब समझ आया कि स्टेशन के बाहर तो कोई बस्ती या होटल था ही नहीं ,था तो केवल हरे भरे पेड़ों से घिरा परिसर।आखिरकार समझ में आ गया कि स्टेशन से शहर काफी दूर है ।इस लिए मंदिर जाने के लिए कोई वाहन आदि लेना ही पड़ेगा मगर फिर वही परेशानी ,



  एक आध ओटो यात्रियों को ले कर आ तो रहे थे ,मगर मंदिर जाना है,के नाम पर सब का स्पष्ट इनकार ! मजबूरी,बेबसी का आलम था,क्या करते ,मंदिर तो छोड़ो ,शहर का ही कोई अता पता नहीं था।लगभग एक घंटे के बाद ,काफी चिरोरियों के बाद एक आटो वाला राजी हो गया और  चल पड़े मंदिर कि ओर ,क्योंकि अन्य कोई जगह हमे पता ही नहीं थी। हां , आप समझ ही गए होंगे कि किराए में हम कोई मोल भाव करने कि स्थिति में नहीं ही थे।



      पंद्रह मिनट की आटो की यात्रा के बाद जैसे अचानक हम किसी महानगर में आ पहुंचे।लोकल बसें,टैक्सी ,बड़े बड़े विज्ञापनों के पोस्टर ,मार्किट आदि देख कर पुनः हैरान , कि इतने बड़े शहर के होते हुए स्टेशन पर आने जाने का कोई साधन नहीं !फिर
 कुछ ही समय के बाद अचानक जैसे हमारी सारी यात्रा की थकान गायब हो गई।हम अपनी चिर प्रतीक्षित मंजिल नहीं नहीं,भगवान श्री कृष्ण के मंदिर उडुपी मंदिर के सम्मुख हाथ जोड़े खड़े थे !!
       ऑटो से उतरे दो देखा ,शहर के एक दम मध्य ,एक बड़ा विशाल लेकिन पक्के फर्श वाला मैदान जिसके एक ओर उडुपी नगर पालिका का भवन,शेष तीनों ओर दुकानें आदि , और सामने एक बड़ा सा,भव्य लाल पत्थरों से निर्मित दरवाजा जिसके ठीक बीच में लिखा था " उडुपी श्रीकृष्ण मठ "। उतरकर सर्वप्रथम दरवाजे के नीचे की धुली उठा कर अपने मस्तिष्क पर लगाई।क्यों ना लगाते,आखिर कार मेरे ब्रज के श्रीकृष्ण के प्रभाव का इतने सुदूर तक जो असर था।




      अंदर प्रवेश करते ही लगा ही नहीं कि हम किसी बड़े शहर एक दम बीच में खड़े हैं।एक दम शांति ,बड़े बड़े भवन ,चारों ओर हरियाली का आवरण,बड़े बड़े वृक्ष जैसे हमे सम्मोहित करने लगे। और आगे बढ़े तो थोड़ी ही दूर पर एक विशाल फैलाव लिए बड़ का वृक्ष जैसे  प्रत्येक आनेवाले भक्तों को ,श्रीकृष्ण के समान अपनी छाया रूपी शराब में ले रहा प्रतीत हो रहा था।कानों में माध्यम स्वर में गूंजते भजन जैसे हमे एक अलौकिक दुनिया में ले जतहे थे।भाषा अवश्य अनजानी थी ,परन्तु भाव स्पष्ट थे।हम श्रीकृष्ण के दक्षिण के कुछ गिने चुने बड़े देवायलों में से एक के समक्ष खड़े थे।तभी एक भक्त ने हमे ठिठकते देख कुछ कहा परन्तु अनजानी भाषा से हमारी विवशता देख उसने इशारे से एक कमरे की ओर संकेत किया ।ओह,अपने जूते यहां ही उतारने थे।पुनः उसने संकेत की भाषा में एक ओर इशारा किया ,स्पष्ट था कि हमारी तरह सैकडों भक्त सुबह सुबह अपने अभीष्ट के दर्शनों के लिए शांत चित्त से पंक्ति में खड़े थे।प्रत्येक के हाथ में फूलों का ढेर था,लेकिन हम चुपचाप अपने अभीष्ट के लिए अपने श्रद्धा के भावों को अपने दोनो हाथों के मध्य रख ,हाथ जोड़े ही खड़े हो गए।



      पंक्ति धीरे धीरे आगे बढ़ रही थी।जैसे कि हरेक धार्मिक स्थान का दृश्य होता है ,एक तरफ तो पूजा सामग्रियों की दुकानें ,दूसरी ओर एक बड़ी सी दीवार ,सिर के ऊपर तीन कि छत,शायद सूर्य की किरणों एवम् वर्षा से बचाव हेतु लगाई गई थी।हमारी उत्सुक आंखे दीवार के ऊपर ,झांक रही थी।एक बड़ा सा तालाब ,उसके ठीक बीच में दक्षिण भारतीय शैली में बना मंदिर का शिखर ही दिखाई दे रहा था ।पंक्ति के एक किनारे पर अनजानी भाषा में कुछ निर्देश लिखे थे ,जो कि हमारे लिए भेंस बराबर ही थे 



       लगभग एक घंटे के पश्चात हम मंदिर के मुख्य दरवाजे के सामने आ पहुंचे।तभी मंदिर के सुरक्षा कर्मचारी ने हमसे कुछ कहा ,जो हमारी समझ से बाहर था ,तब एक अन्य पुलिस के दरोगा आए और अंग्रेजी भाषा में कहा कि आप मंदिर के अंदर केवल और केवल लूंगी या पेंट पहन कर ही जा सकते है।कमीज़ ,बनियान आपको उतारनी पड़ेगी।हमे असमंजस में देख पुनः उसने कहा कि आप सामने की किसी भी दुकान पर अपने वस्त्र जमा कर सकते हो।हमने अंग्रेजी में ही पूछा कि तब क्या फिर से लाइन में लगना पड़ेगा तो उसने पूछा कि आप कहां से आए हो? " मथुरा " इन शब्दों का तो जैसे जादू का सा असर हुआ।उसने पहले हमारे लिए हाथ जोड़े ,फिर हाथ मिलाया।स्पष्ट था कि वह अपने मनोभावों को इस रूप में ,कृतज्ञता के रूप में प्रगट कर रहा था।कोई बात नहीं ,आप कमीज़ उतार कर सीधे इधर ही आएं।



    जब हम केवल पेंट पहनकर उसके पास पहुंचे तो उसने एक व्यक्ति को अपने पास बुलाया ,उस से कुछ बात की,फिर हम से कहा कि ये आपको अच्छी तरह से मंदिर के दर्शन करा देगा ,साथ ही गाइड के रूप में हमारा ज्ञान वर्धन भी करेगा।उसे धन्यवाद देते हुए हम मंदिर के आंतरिक दरवाजे के सामने खड़े हो गए।



     यह दरवाजा एक विशाल बरामदे जैसे के ठीक बीच में था।दरवाजा इतना छोटा कि केवल दो व्यक्ति ही एक साथ उसमे आ सकते थे,इस लिए पंक्ति में खड़े एक एक दर्शनार्थी अंदर जाता था ,तो मंदिर से एक एक कर के ही दर्शनार्थी बाहर आता था।



     इस विशाल बरामदे में पूरी दिवालों पर दक्षिण भारतीय चित्रशैली में भगवान श्रीकृष्ण से संबंधित कथाओं का चित्रण किया गया था ,परन्तु एक चित्र का भाव हमे समझ नहीं आ रहा था।जब हमने साथ खड़े गाइड से इशारा करके उसके बारे में पूछना चाहा तो उसने कहा कि पहले आप दर्शन करने के लिए अंदर चले ,अंदर चल कर आपको सब बताऊंगा।निसंदेह ये सारा वार्तालाप अंग्रेजी भाषा में ही हो रहा था। हां,एक बात और आपको बता देना चाहूंगा कि मंदिर के बरामदे के ठीक मध्य में दो विशालकाय पुतले जिनके हाथो में चमचमाती तलवारे थी,हमारी उत्सुकता और बढ़ा रही थी,मगर गाइड के कारण चुप थे।



      अब जैसे ही इस छोटे से दरवाजे से अंदर प्रवेश किया तो एक सौ मीटर के करीब लंबा गलियारा था ,जिसके एक ओर सर्व प्रथम मंदिर के मुख्य पुजारी का सजा धजा कक्ष था तो दूसरी ओर ,विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियां बनाई हुई थी।कुछ पेंटिंग से बने चित्र भी बने थे।
    जैसे ही इस गलियारे को हमने पर किया ,तो सामने था एक पचास फुट का ऊंचा शिखर वाला मंडप ,जिसके नीचे के हिस्से हमारे पहाड़ी घरों में ,छत पर लगने वाले ताइलों से बने थे।मंदिर अथवा मंडप के चारों ओर ,एक शायद चार फुट चौड़ा परिक्रमा मार्ग था।इसके दूसरे किनारे पर छोटे ,बड़े कमरे,बरामदे बने हुए थे ,जिनमें तमाम सारे साधु संत,भक्त पुरुष एवम् महिलाएं अपने हाथों में कोई पुस्तकें लिए उच्च स्वर में लेकिन अनजानी भाषा में पाठ पढ़ रहे थे। इन स्वरों के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार का कोई शोर आदि नहीं था।सारे के सारे जैसे एक विशिष्ट दक्षिण भारतीय शैली में पठन पाठ कर रहे थे।भाषा जरूर अनजानी थी मगर  उनके भाव सीधे हमारे हृदय तक पहुंच रहे थे।पहली बार समझ में आया कि भक्ति की कोई भाषा नहीं होती,होती है तो केवल और केवल श्रद्धा !




         हम हाथ जोड़े भगवान श्रीकृष्ण जी के दर्शनों के लिए हर पल ,बेचैन हो रहे थे किन्तु मंदिर के अंदर स्थित भगवान के दर्शन ही नहीं रहे थे।हमने मंदिर की पूरी परिक्रमा कर ली ,जिसमें कोई दस मिनट का ही समय लगा ,परन्तु श्रीकृष्ण जी की मूर्ति तो दिखाई हो नहीं दी,साथ ही और अधिक हैरान परेशान हो गए की इस मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश करने के लिए कोई मार्ग अथवा दरवाजा तो है ही नहीं,अगर एक छोटा सा दरवाजा था तो वो केवल पुजारियों के लिए ,श्रीकृष्ण जी की पूजा अर्चना के लिए ही था,उनके अतिरिक्त कोई और मंदिर के अंदर प्रवेश नहीं कर सकता था, और ना ही कर रहा था।हमे असमंजस में देख हमारे गाइड ने हमे मंदिर की एक दीवार ,जिस के बाहर काले पत्थर की श्रीकृष्ण जी की मूर्ति स्थापित थी की ओर संकेत किया।पहली नजर में तो हम कुछ समझे ही नहीं,अगर इन मूर्ति के ही दर्शन करने थे तो फिर गर्भ ग्रह किस लिए? हमने फिर इस मूर्ति को देखा ,जिस पर सारे दर्शनार्थी फूलों कि माला,नारियल ,सोने चांदी के आभूषण ,प्रसाद आदि चढ़ा रहे थे, और फिर इस मूर्ति के एक दम बगल में  जो दीवार थी ,उस पूरी की पूरी दीवार में  एक फुट के वर्गाकार आले अथवा रोशन दान बने हुए थे।तब हमने गौर किया कि प्रत्येक दर्शनार्थी ,उन झरोखों में पूरा मुख लगा कर ,मंदिर के अंदर गर्भ ग्रह में झांक रहे है ,हाथ जोड़ कर प्रार्थना कर रहे है,आनंद के एक अवर्णनीय सुख में गोता लगा रहे हैं।कुछ क्षण बाद दूसरा दर्शनार्थी पहले दर्शनार्थी का स्थान ले लेता ,इस प्रकार तमाम सारे दर्शनार्थी अंदर किसी के दर्शन कर रहे थे।बाहर की मूर्ति पर तो वे केवल अपनी भेंट आदि ही चढ़ा रहे थे।



     हमारा भी अब नंबर आया कि हम उन झरोखों में से अंदर झांके , और फिर .....उन झरोखों से हमे जिनके दर्शन हुए ,उन्हीं के लिए तो हम सुदूर ,अपरिचित स्थान पर बड़ी लंबी यात्रा कर के आए थे। वाह ,उन झरोखों से जिनके दर्शन हुए वे ही तो " श्रीकृष्ण जी" थे।
   दक्षिण भारत के जितने भी देवालय हैं उन सब में जिनकी भी मूर्ति स्थापित है ,वे सभी की सभी ,काले रंग के कठोर पत्थर द्वारा है निर्मित हैं,जबकि उत्तर भारत के देवालयों में अधिकतर सफेद पत्त्थरो से ही निर्मित है।ऐसा क्यों है ,इसका कारण तो हमे यही समझ आया कि शायद दक्षिण में सफेद संगमरमर होता ही नहीं है और होता भी ही तो बहुत थोड़ी मात्रा में ,जबकि वहां,काले रंग की चट्टानों की अधिकता होने के कारण शायद मंदिर में स्थापित मूर्ति चाहे वो किसी की हो ,काले पत्थर से ही बनी हुई है।लेकिन इस समय तो हम सब कुछ भूल कर ,झरोखों में अपने पूरे मुख को सिर सहित अंदर घुसा कर पूरी श्रद्धा के साथ अपने इष्ट के दर्शन कर
 रहे थे।
         अभी हम दर्शन कर ही रहे थे कि साथ खड़े पुजारी ने जोर से ,अनजानी भाषा में हमारे लिए कुछ कहा ,भाषा अनजानी थी ,परन्तु संकेत स्पष्ट था,अरे भाई दर्शन कर लिए ,अब दूसरे को भी दर्शन करने दो।हम झरोखों से,श्रीकृष्ण के दर्शन करके ,पुनः अपनी वर्तमान दुनिया में आ गए।इस मंदिर की दीवार के सामने एक बड़ा सा हाल था जिसमें और भी दर्शनार्थी बैठे थे ,तो हम भी उनके पास जाकर बैठ गए।आंखे फिर एक बार बंद की , और उस क्षण को ,जो अब हमारी स्मृति में शायद हमेशा के लिए स्थापित हो गया था,याद करने लगे।
     झरोखे के अंदर भगवान श्रीकृष्ण की बाल रूप में ,काले पत्थर की एक माध्यम आकर की ,श्रंगारित मूर्ति भव्य रूप में ,प्रत्येक दर्शनार्थी को ,अलौकिक दुनिया में ले जा रही थी।मूर्ति के चेहरे पर जो भाव था ,उस से मुझे तो स्पष्ट प्रतीत ही रहा था कि जैसे हम इन झरोखों में से श्रीकृष्ण जी के दर्शन कर रहे थे ,वैसे ही अंदर स्थापित श्रीकृष्ण जी की मूर्ति भी इन झरोखों के बाहर हमारी ही तरह  कुछ देख रही थी।क्या ये मूर्ति हमे देख रही प्रतीत हो रही थी क्या ?इसका उत्तर में आपको अगली कुछ पंक्तियों  के माध्यम से बताऊंगा कि ऐसा क्यों प्रतीत ही रहा था।अभी तो हम सब इस समय इस अलौकिक ,अद्भुत मंदिर के आस पास के दृश्यों को ही देख रहे थे।
   मंदिर और उसका पूरा प्रांगण ,परिक्रमा मार्ग ,आदि सब कुछ एक विशाल पक्की छत के द्वारा ढका हुआ था।दर्शनार्थी ,जिसमें से अधिकांश दक्षी के ही थे ,अपनी पूरी श्रद्धा से ,झरोखों से विग्रह के दर्शन करते ,फिर जैसे में सामने बैठा हूं ,ऐसे कुछ देर  बैठते,कोई कोई किसी पुस्तक से तो कोई मन ही मन इष्ट की प्रार्थना करता ,फिर आगे बढ़ जाता।हमे भी गाइड ने आगे बढ़ने का संकेत किया ,तो पुनः एक बार हम ,श्रीकृष्ण जी के विग्रह का ध्यान करते आगे बढ़ गए।
    थोड़ा आगे बढ़ते ही मंदिर के एक कोने से मार्ग एक बहुत ही विशाल प्रांगण में जा पहुंचा।फिर हैरानी हुई।मंदिर एक माध्यम आकर का था ,परन्तु ये प्रांगण तो बहुत ही विशाल था।इसके एक कोने पर मंदिर की विशाल लकड़ी से बनी प्रतिमूर्ति बनी हुई थी ,दूसरी ओर सहायता बूथ ,साथ ही एक दो धार्मिक पुस्तकों की दुकान थी ,वहीं बाकी प्रांगण में थोड़ी थोड़ी दूरी पर ,तमाम पांडे पुजारी ,अपने यजमानों के लिए पूजा पाठ,यज्ञ आदि अनेकों धार्मिक क्रियाओं में व्यस्त थे।इस प्रांगण की दीवारें भी प्राचीन धार्मिक कथा चित्रों से रंगी हुई थी।यहां भी हमारा ध्यान एक ऐसे चित्र पर गया जिसमें एक पुरुष हाथ जोड़े ,आंखे बंद किए खड़ा है , और उसके समक्ष भगवन श्रीकृष्ण जी , अपने पूरे बेभव के साथ विशाल रूप में दर्शन दे रहे हैं,परन्तु भक्त और भगवान के मध्य कुछ झरोखे से बने हुए थे , बिल्कुल वैसे ही जिनमें से अभी अभी हमने मंदिर के गर्भ गृह की मूर्ति के दर्शन किए थे।
    जाने उस चित्र में क्या भाव मुझे आकर्षित कर रहा था कि मैने गाइड से पूछ ही लिया कि ये चित्र किसका है ,एवम् इसके पीछे क्या कोई कथा है तो गाइड ने कहा कि अब आप यहां थोड़ी देर बैठिए , मै अब आपको इस मंदिर के इतिहास एवम् इस चित्र के पीछे की घटना को बताता हूं।सुनकर हैं उस प्रांगण में तसल्ली से बैठ गए।जिन भगवान श्रीकृष्ण जी के दर्शनों के लिए मै " उडुपी " आया था ,वो इच्छा तो उनकी ही कृपा से पूरी हो गई थी इसलिए अब इं बातों के प्रति मेरी उत्सुकता जग उठी थी।तभी गाइड की आती आवाज जैसे हमारे दिल मस्तिष्क पर गहराई से अपना प्रभाव छोड़ रही थी ,सुनिए ..... ।
      इतिहास के अनुसार तेरहवीं सदी में दक्षिण के ही एक प्रमुख संत श्री " माध्वाचार्य " जी महाराज ,श्रीकृष्ण जी की कथाओं को सुनकर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने स्वयं उस प्राचीन समय में ,जबकि याता यात के साधन नहीं के बराबर थे , अपना सब कुछ छोड़ कर वृंदावन श्रीकृष्ण के दर्शनों को आए।वृंदावन क कुंजगलियो में वे इतना राम गए कि उनका वापसी का विचार ही समाप्त हो गया।जब वृंदावन में बहुत समय बित गया तब उनकी माताजी के द्वारा भेजा गया एक संदेश माध्वाचार्य जी को वापस अपने पास बुलवाने वाला ,उनके गुरु जी के पास जा पहुंचा।गुरुजी ने जब इस संबंध में माध्वाचार्य से बात की तो उनके यह कहने पर कि वे भगवान श्रीकृष्ण को छोड़ने के स्थान पर मरना पसंद करेंगे तो उनके गुरुजी ने कहा कि जब तक मनुष्य की मां जीवित है तो वे भगवान से भी अधिक पूजित मानी जाती हैं इसलिए तुम्हे हर हालत में उडुपी वापस जाना ही होगा,ये उनकी आज्ञा है।माध्वाचार्य जी की कृष्णभक्ती को देख उन्होंने ये भी कहा कि तुम वहीं श्रीकृष्ण जी का एक मठ बनालो,ताकि माताजी के साथ साथ भगवान श्रीकृष्ण जी की भी सेवा अर्चना का अवसर वहीं तुम्हे मिल सके।इस प्रकार श्री माध्वाचार्य जी ने कृष्ण मठ की स्थापना की।उनके अनुसार दो वर्ष में एक बार इस मंदिर की सेवा अर्चना एवम् कार्यों के लिए नई समिति बनानी होगी।साथ ही उन्होंने कहा कि इस मठ में को भी दर्शनार्थी आएंगे उनके भोजन आदि की व्यवस्था भी मठ के साधु संत ही करेंगे।तब से आज तक इस कृष्णमठ की सम्पूर्ण सेवा एवम् भोजन की व्यवस्था मंदिर के पुजारी पूरी श्रद्धा सेवा के साथ करते है।सम्पूर्ण भारत में मनाए जाने वाले त्योहारों के साथ साथ उडुपी में भी इस कृष्णमथ के द्वारा एक, दो वार्षिक उत्सव मनाया जाय है जिसे पर्याय त्योहार भी कहते है।दो वर्षों में एक बार होने वाले इस त्योहार के लिए पूरे उडुपी शहर को मठ कि ही तरह सजाया जाता है ।इस उत्सव को मानने हेतु लगभग पूरा दक्षिण भारत जैसे उडुपी में ही आ जाता है।ये उत्सव तीन दिन तक मनाया जाता है।
     तभी गाइड ने दीवाल पर बने एक चित्र की ओर संकेत करते हुए कहा कि इस मठ के साथ भक्त और भगवन के संबंध की एक लोकप्रिय कहानी भी कहीं जाती है जो पूरी तरह से वास्तविक है।बात लगभग पांच सौ वर्ष पुरानी है ,जब की पूरे भारत में जाती , पांती,छुआ छूत का दौर था।उस समय एक चमार जो कि मंदिर के बाहर ही यात्रियों के जूते चप्पल कि मरम्मत किया करता था ,बदले में इतना ही मांगता था कि उसकी देनिक भोजन की आवश्यकता पूरी हो जाए ,उसके बाद वो मंदिर के बाहर ही से भगवान श्रीकृष्ण की पूजा किया करता था ।वह अच्छी प्रकार से जानता था कि अछूत होने के कारण उसे मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाएगा,इसलिए कार्य समाप्ति के बाद वो व्यक्ति जिसका नाम " कनक दास " था ,पूरे समय भगवान श्रीकृष्ण का ही ध्यान करता रहता था ।जब उसे लगा कि उसका अंत समय अब आने वाला है तो प्राय वो भगवन से प्रतिदिन एक ही प्रार्थना करता था कि मृत्यु से पहले उसे ,किसी भी प्रकार से भगवान श्री कृष्ण जी के विग्रह के दर्शन हो जाएं।उस समय उसने मठ के सभी पुजारियों से दूर से ही सही ,श्रीकृष्ण जी के विग्रह के दर्शनों के लिए अनुरोध किया ,परन्तु छोटी जात के होने के करें उसका अनुरोध ठुकरा दिया जाता रहा।समय बिताते बीतते ,समय के साथ साथ उसकी कृष्ण भक्ति इतनी जोर पकड़ती गई कि भगवान श्रीकृष्ण भी उसकी इच्छा पूरी करने को मजबूर हो गए।कहा जाता नहीं है अपितु ये अकाट्य सत्य है कि ऐसे ही एक दिन ,रोज की तरह भक्त कनक दास मंदिर के बाहर तन्मयता के साथ भगवान श्रीकृष्ण के विग्रह के दर्शनों के लिए प्रार्थना कर रहा था तो श्रीकृष्ण जी ने उसकी भक्ति की पुकार सुनते हुए,चूंकि वे जानते थे कि मठ के पुजारी कनकदास को मंदिर के अंदर नहीं आने देंगे,
अचानक भगवान श्रीकृष्ण जी के विग्रह के सामने की दीवार में अचानक एक बड़ा विस्फोट सा हुआ और जहां भक्त कनकदास खड़ा था ,ठीक उसके सामने विग्रह के एक दम सामने की दीवार में एक फुट के बराबर मोखला ,खिड़की या छेद बन गया जिसमें से देख कर भक्त कनकदास जी की भगवान श्रीकृष्ण जी के एक बार दर्शन करने की इच्छा पूरी हो गई।दर्शन करते करते कनकदास जी ने अपने प्राण त्याग दिए ,लेकिन श्रीकृष्ण जी के भक्त के रूप में उनकी ख्याति अमर हो गई।तभी आज भी प्रत्येक दर्शनार्थी विग्रह के सामने बने मोखले से ही भगवान श्रीकृष्ण जी के दर्शन करते हैं एवम् अपने को धन्य मानते है ।




    इस मंत्र मुग्ध वार्तालाप में जैसे समय का हमे कोई भान ही नहीं रहा।हैं तो जैसे उस मठ के पवित्र वातावरण में जैसे अपने अस्तित्व को ही भूल बैठे थे , कि तभी गाइड ने कहा कि मठ के भोजन का समय हो गया है ,क्या आप लोग मठ के भोजन को प्रसाद रूप में ग्रहण करना चाहेंगे।इनकार का तो प्रश्न ही नहीं था।इस लिए गाइड के साथ ही दोपहर के भोजन प्रसाद को ग्रहण करने हेतु मंदिर के ठीक ऊपर मैने विशाल भोजनालय की ओर बढ़ चले।




       सीढ़ियों के द्वारा जैसे ही ऊपर पहुंचे,एक विशाल गेलरी आई,जिसके एक तरफ सैकडों नल की टोंटिया ,हाथ धोने और पानी पीने के लिए लगी हुई थी।उनसे हाथ धोते हैं आगे बढ़े तो एक विशाल हाल मिला जिसमें फर्श के केवल से दो इंच की मोटाई के ,भोजन कर्ताओं के लिए स्थान बना था।उसके सामने ही यानी,दो इंच छोटी ,या नीची सतह थी जिस पर भक्त भोजन हेतु बर्तन रखते थे।अभी हम पंक्ति में बैठे ही थे कि कुछ साधु आगाए।एक हमे क्रम से स्टील कि थाली देता गया।उसके पीछे एक पहिए लगे बड़ा सा बर्तन था ,जो प्रत्येक दर्शनार्थी के सामने रुकता,,फिर उसने से एक अन्य बर्तन के द्वारा पके हुए चावल हमारी थाली में परोस दिए गए।उसके आगे बढ़ते ही दूसरा पहिए लगा बर्तन आ गया जिसमें सांभर जैसी दाल ,सीधे थाली में परोसे गए चावलों के ऊपर डाल दी गई।तुरंत ही भोजन करना प्रारंभ कर दिया गया।


सुबह से निराहार होने के कारण ,भोजन अति स्वादिष्ट प्रतीत हो रहा था।अब ये प्रसाद का स्वाद था या ,भूख का कि हम उत्तर भारतीय होने के कारण ,जिनका मुख्य भोजन गेंहू से बनी रोटियां होती हैं,को विस्मृत कर उस चावल सांभर के स्वाद में ही डूब कर रह गए।सच कहता हूं ,जब प्रसाद एवम् भूख का संबंध बनता है तो स्वाद का असर एक दम बे असर हो जाता है।अभी थाली का भोजन समाप्त ही हुआ था कि वे साधु और चावल सांभर लेकर आगये।परन्तु हमारा तो इतने ही से पेट भर गया था जबकि हमारे आस पास बैठे प्रत्येक श्रद्धालु दोबारा थाल भर भर कर भोजन कर रहे थे।अब चूंकि चावल उनका मुख्य भोजन है इस लिए शायद वे इतना ही खाते होंगे।प्रसाद पूरा खाने के बाद हम उठने के लिए इधर उधर देख ही रहे थे कि फिर से कुछ साधु एक और बड़े से बर्तन ले कर आ गए।वे एक बड़े से कटोरे के द्वारा एक सफेद पेय पदार्थ प्रत्येक दर्शनार्थी की थाली में भरते का रहे थे।हमने सोचा ,अरे ये तो रायता है ,बस फिर क्या था ,हमने भी अपनी थाली उस से भरवाली।अब जैसे ही अन्य भोजन करनेवालों को देख कर ,थाली सीधे मुंह से लगा ली क्यों कि चम्मच आदि का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता था।
      यह क्या ! ये पेय पदार्थ जाने क्या था ,रायता तो बिल्कुल भी नहीं था। हां ,स्वाद ,नमकीन था ,जीरे का छोंक भी लगा था पर दूसरे जहां इस पेय को स्वाद के लेकर पी रहे थे ,वहीं हम ,अब के लिया है तो पीना ही पड़ेगा के विचार से पीने लगे।सच कहूं ,हमे तो उसमे कोई स्वाद ही नहीं आ रहा था।परन्तु प्रसाद के नाम पर पी ही लिया।इसके बाद जब हम उठे और हाथ मुंह धोने के लिए नल के पास पहुंचे तो गाइड से पूछ ही लिया कि भाई ये किस किस्म का रायता था तो वह हंसने लगा।" सर जी ,वो कोई रायता नहीं था वो तो चावल का मांड था ,जिसे छोंक लगा कर भोजन के अन्त में पूरे दक्षिण भारत में पिया जाता है।ये अत्यंत स्वादिष्ट एवम् पोष्टिक होता है ,जिसे हम सब खूब पसंद करते हैं " ।अब सच कहें,हमे समझ ही नहीं आ रहा था कि उसे केसे बताएं कि उसे जो स्वाद आ रहा था ,उसे पीकर हम पर जो गुज़रा है उसका वर्णन केसे करें ।हमने अब चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी , और दर्शन कर,खा पीकर मंदिर से बाहर आ गए।
      वैसे तो उडुपी मठ की ,भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन की यात्रा चाहें तो यहीं समाप्त की का सकती है ,परन्तु आपका थोड़ा सा समय और ले कर ,आपको उडुपी शहर की एक अन्य यात्रा पर के जाना चाहूंगा ,जिसमें घूम कर आपको भी मंदिर के दर्शनों के समान ही आनंद आएगा।
     उडुपी शहर समुद्र के एक दम किनारे पर बसा हुआ है।अभी तो दोपहर का ही समय हुआ था ,वापसी की हमारी ट्रेन रात्रि को ही थी,इस लिए अब ऐसा तो हो नहीं सकता था कि हम समुद्र किनारे के शहर में आए हों, और फिर समुद्र किनारे के बीच पर नहीं जाए। बस ओटो पकड़ा और बिसेक मिनट में जा पहुंचे उडुपी के समुद्र के किनारे !
     विशाल दूर दूर तक फैला अरब सागर ,किनारे पर सुनहरी रेत का फैलाव ,इस रेत के बाद घने नारियलों के वृक्षों के जंगल ,जी हां दक्षिण भारत में समुद्र के किनारे इतने नारियल के वृक्ष उगते है कि हम तो उन्हें जंगल ही कहेंगे।ये नारियल के वृक्ष यहां हर तरफ उगे हुए है।जिधर भी जगह मिले ,दक्षिण की आबोहवा ऐसी कि तुरंत नारियल का वृक्ष वहां उग आता है।ऐसे खूबसूरत दृश्यों के मध्य समुद्र का यह किनारा एक अलग ही मनोहारी दृश्य पैदा कार रहा था।साथ ही मेरे जैसे अनेकों यात्री शायद इस मनोहारी दृश्य का आनंद लेने ही उडुपी के इस समुद्री तट पर आ पहुंचे थे !



    थोड़ी देर इस सुनहरे रेत से चमकते समुद्री किनारे पर घूमते ,दूर दूर गहरे नीले समुद्र में आते जाते जहाजों को देखते ,प्रकृति के इस अनुपम दृश्यों को देखते जाने कितना समय व्यतीत हो गया था कि अचानक देखा की एक बड़े से रंगबिरंगे पैराशूट से बंधे आदमी, खुले नीले समुद्र के ऊपर पक्षियों कि तरह उड़ रहे हैं।



अरे वाह ! ये क्या था , यही सब देखने हम इस तट के एक ओर पहुंच गए।देखा कि कुछ यात्री उड़ान संबंधी जानकारी ले रहे हैं।पूछने पर बताया गया कि उड़ान का किराया आठ सौ रुपए है,उड़ान तीन मिनट की है ,खतरे की आशंका ना के बराबर,लेकिन रोमांच असीमित है,सरकार द्वारा पूरी ट्रेनिग एवम् उपकरणों की मदद से विगत चार वर्षों से उड़ान करवा रहे है।बाद फिर क्या था उड़ने के लिए तैयार हो गए। जहां तक किराए कि बात तो मुझे स्मरण है की  यात्रा से वापसी पर सांझी छत स्थान से कटरा तक हेलीकॉप्टर की उड़ान एक मिनट ,बीस सेकंड की थी जिसका किराया उस समय आठ सौ था ,तो ये उड़ान तो तीन मिनट की है ,रही बात रोमांच की ,इस रोमांच के लिए ही तो हम ये सारी यात्राएं कर रहे है ,इनमें भी तो अत्यधिक रोमांच है।फिर क्या था ,ऐसे रोमांच के सुअवसर को कैसे छोड़ते,हम उड़ान के लिए तैयार थे।


     उड़ने से पूर्व ,हमे पैराशूट की सेफ्टी बेल्टों से जकड़ दिया गया, पैराशूट अत्यंत विशाल ,गोल एवम् रंगबिरंगे रूप में था।फिर हमे लाइफ जैकेट पहनदी गई ,वो इस लिए कि अधिकतर यात्रा समुद्र के ऊपर ही होगी तो अगर कभी नीचे गिरे तो पानी में डूबेंगे नहीं।फिर देखा कि एक मोटी रस्सी जो पैराशूट से बंधी थी उसका दूसरा हिस्सा समुद्र में खड़ी एक नाव से बंधा था,पूछने पर बताया गया कि उड़ने के लिए तेज हवा जरूरी होती है ,इस लिए नाव जब तेज चलेगी तो रस्सी की सहायता से उड़ने में तीव्रता आएगी ,साथ ही ये हमे उड़ते समय नियंत्रित क्षेत्र में बनाए रखेगी।फिर बताया की आपके साथ आपके पीछे एक सहायक भी उड़ेगा जो उड़ान को नियंत्रित करेगा।अब हम उड़ने के लिए तैयार थे।


      उड़ान के एक मिनट बाद हमारी सारी आकांक्षाएं सुरक्षित होने पर हम अब जिंदगी में पहली बार पैराशूट उड़ान का रोमांच ले रहे थे।पहली बार ही हम पक्षी के नजरिए से स्वतंत्र उड़ रहे थे और देख रहे थे नीचे धरती के अविस्मरणीय चित्रण।चूंकि नारियल के वृक्ष अक्सर समुद्र के किनारे बहुतायत में उगते हैं,जिनकी लंबाई भी अत्यंत विशाल होती है परन्तु इस समय तो वे केवल छोटे पॊधे की तरह ही प्रतीत हो रहे थे। एक ओर असीम समुद्र का विस्तार तो दूसरी ओर ऊपर विस्तृत नीला आसमान।वास्तव में हम उस समय एक ड्रोन विमान की तरह ही उड़ान कर रहे थे।


      जब हमने उडुपी शहर की ओर दृष्टि घुमाई तो नारियल के जंगलों में उसकी एक आध इमारतें ही चमक रही थी।तभी देखा की दूर एक विशाल मंडप और उस पर फहराती ध्वजा जो कि निस्संदेह उडुपी के कृष्ण मठ की ही थी,शाम के सूरज की किरणों में चमकती हुई एक अलग ही आभा पेश कर रही थी।उस समय हमारे हृदय में भी अध्यात्म ने जोर मारा क्योंकि इस समय हम ना धरती पर थे ,ना जल में थे और ना ही आकाश में ।लग रहा था कि यह उड़ान आत्मा की ही उड़ान थी।उस कृष्ण मठ के ऊपर के दर्शनों ने हमे यह सोचने को विवश कर दिया कि आज से पांच हजार वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण के कर्म के कारण आज भी उनका यशगान काल की सीमाओं को पीछे छोड़ ,उस फहराती ध्वजा की तरह लहरा रहा है।हमे भी श्रीकृष्ण के समान अपना पूरा जीवन कर्म ,अच्छे कर्म करने के लिए व्यतीत करना चाहिए ताकि हमारी पहचान समय कि बाधा को पीछे छोड़ भगवान श्रीकृष्ण की तरह हमेशा हमेशा के लिए अमर हो जाए !!
       

                                           जय श्री कृष्ण 
    

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