मंगलवार, 14 जुलाई 2020

कहानी……………. रोशनी जिंदगी की...!

                 " प्रिय बेटी रोशनी ,जब तुम मेरे इस पत्र को अपनी नई आँखों की नई रोशनी से पढ़ रही होगी तो शायद मेरे जीवन की सार्थकता सिद्ध हो रही होगी।बेटी ,मैने तुम पर कोई अहसान नहीं किया है ,अपितु ये एक पिता का अपनी संतान को ,जो उसे इस दुनिया में लाया था,उसे पूरी शिद्दत से जीने का अवसर दिया है ।प्रत्येक पिता का सर्व प्रथम एक ही उद्देश्य होता है कि उसके बाद उसकी संतान अपना जीवन पूरी खुशियों के साथ जिए। मै अपना जीवन तो जी चुका हूं रोशनी बेटी ,अब ये तुम्हारा जीवन है जिसे तुम आनंद ,संतोष एवम् खुशियों के साथ बिताओ। जो कमी तुम्हे विधाता ने जीवन प्रदान करते समय की,उसे मैने पूरी करने का ही प्रयत्न किया है ।सब भूल कर, अब तुम भी इस रंग बिरंगे ,रोशनी से भरे जीवन संसार का आनंद लो ।
                                                                                                               “  तुम्हारा पापा।"
                                 इस पत्र को पढ़ते पढ़ते जब मेरी मेरीऑंखें आंसुओं में डूबने लगी तो … नहीं ,नहीं , मै संसार के सबसे महान अपने पापा  की ,इस सबसे बड़े त्याग को बेकार नहीं जाने दूंगी,मैने अपनी सम्पूर्ण ताकत लगा कर अपनी आंखो में भरते समुद्र को रोका।तभी मेरे कंधे पर पीछे से किसी ने हाथ रखा ।" दीदी आप" ये मेरे अस्पताल के कमरे की नर्स अनीता का हाथ था।" नहीं बेटा अपने पापा के दिए इस अनमोल उपहार को ऐसे बेकार मत जाने दो,उठो ,चलो मै तुम्हे उनसे मिलने ले चलती हूं,तुम कल से पूछ रही थी ना कि तुम उनसे मिलना चाहती हो ,चलो" । हां , मै कल से उनसे मिलने को तड़प रही थी,यहां तक कि मेरे आंखों के ऑपरेशन के समय भी वे मेरे पास नहीं थे,जबकि वे स्वयं मुझे अस्पताल तक लाए थे। मै उनके इस व्यवहार से बहुत नाराज़ थी कि ऐसे समय में ,जब मुझे उनकी बहुत जरूरत थी ,वे मेरे साथ नहीं थे।आज तक ऐसा शायद ही कभी हुआ ही कि मेरे पापा ने कभी मुझे इतना अकेले छोड़ा हो ,लेकिन उनके लिखे इस पत्र ने तो जैसे सब बदल ही दिया था।मैने नर्स दीदी को इनकार कर दिया , और उनसे मुझे कुछ समय अकेले में बिताने को कहा।शायद उन्होने मुझे पत्र पढ़ते देख लिया था, जो उन्होंने ही मुझे ही ला कर दिया था।वे इस समय मेरी मनोदशा देख कर समझ गईं और ,मुझे धेर्य देते वापस  लौट गई।नर्स दीदी वापस लोट गई तो जैसे मै भी समय के अंतराल को भूल कर पिछले समय में वापस लौटने लगी ।एक एक घटना ,जबसे इस दुनिया में मैने होश सम्हाला था,किसी फिल्म की तरह मेरी आँखों के सामने घटने लगी,घटने लगी।
             वो शायद उम्र का तीसरा या चौथा साल होगा ,जब में अपने अस्तित्व को महसूस करने लगी थी।मेरे उस समय की दुनिया स्पर्श और आवाज की दुनिया थी।अब मै जानती हूं कि वो स्पर्श केवल ओर केवल मेरे पापा का ही था और आवाज ,जिसे में धीरे धीरे करके पहचान ने लगी थी,पापा की होती थी ।फिर धीरे धीरे मेरा परिचय  आसपास की अन्य आवाजों के साथ होने लगा था,मगर मुझे निश्चित अहसास था कि इन तमाम सारी आवाजों में एक आवाज थी जिसे सुनकर मुझे सबसे अधिक सुरक्षा ,आत्मीयता का अनुभव होता था ,क्योंकि मै उस समय तक पूरी तरह समझ चुकी थी कि उन अनगिनत आवाजों में जो आवाज मेरेचारों ओर गूंजती थी उनमें सबसे अलग होती थी मेरे " पापा " की आवाज,क्योंकि उम्र के बाद के कुछ सालों में में जान चुकी थी कि " मेरे शरीर में ऑंखें होने के बावजूद वे रोशनी से खाली थी, मै जन्म से अंधी थी " ।
               उस समय से मेरी दुनिया मेरे पापा की आवाज थी ।वे ही मेरा दिन ,वे ही मेरी शाम , और वे ही मेरा अस्तित्व थी
            कुछ और बड़ी होने के बाद धीरे धीरे मेरा परिचय अपनी आस पास की दुनिया से होने लगा।मुझे समझ में आने लगा कि मेरे आस पास की दुनिया मेरे पापा के अस्तित्व से भी अलग होती है ,बड़ी होती है।फिर एक दिन अचानक ही मैने अपने पापा की आवाज से पूछा " पापा ,ये मम्मी क्या चीज होती है" और पहली ही बार मैने समझा था कि मेरे पापा कि वो आवाज कुछ समय के लिए शांत हो गई थी।मेरे दुबारा पूछने पर जब उन्होंने मेरे गाल पर अपना हाथ रखा तो जाने केसे पहले ही परिचय में मै समझ गई थी वो स्पर्श रोज की तरह सामान्य नहीं था ,अपितु उस में एक कम्पन था । और जब मेरे माथे पर मुझे नमी का अहसास हुआ तो मै जान  गई थी कि वे आंसू थे ,वे निशब्द रो रहे थे।उन्होंने मुझे जिस कड़क पन के साथ अपनी बाहों में भर लिया था ,उसका भी अनुभव पहली ही बार हुआ था। मै जान गई थी कि मेरे पापा दुखी थे । मै अब बड़ी हो गई थी।
           समय की गहराइयों में डूब कर जब वापस वर्तमान की ऊंचाइयों में वापस आने लगी तो जैसे एक एक कर के बंद दरवाजे खुलने लगे। मै अपने पापा की दुनिया थी।पता नहीं कैसे ,जब भी मुझे उनकी आवश्यकता होती ,जब भी में उन्हें पुकारती ,वे तुरंत मेरे साथ मेरे सामने होते।मेरी हर जरूर जैसे मेरे सोचते ही पूरी हो जाती ।वास्तव में जैसे वे ही मेरी ऑंखें थे ,वे ही मेरी दुनिया थे।मुझे याद है कि उम्र कि यात्रा में जब मुझे  अपने आस पड़ोस के हम उम्र साथियों का साथ मिला तो एक दूरी हमेशा रहती थी ।जाने मुझे क्यों लगता था कि चाहे खेल हो या पढ़ाई हो या अन्य कोई भी काम ,एक अलग पन का बोध हर वक्त होता था। मै जाने क्यों अपने को उनके समकक्ष दिखाना चाहती थी ,परन्तु उस वक्त तक मै जान चुकी थी कि उन सब में , उन सब में ही नहीं ,शेष दुनिया में मेरे और उन सब में एक बहुत बड़ा अंतर था और वह अंतर था " मै उनकी तरह सामान्य नहीं थी , मै उनकी तरह खेल नहीं सकती थी , मै उनकी तरह दौड़ नहीं सकती थी मै….. उनकी तरह दुनिया को देख नहीं सकती थी। मै अब इतनी समझदार हो चुकी थी कि अब में इसका कारण भी अपने पापा से नहीं पूछती थी । मै जान चुकी थी कि मै अंधी थी।
          अब मैने पापा से अपनी और शेष दुनिया के अंतर का कारण नहीं पूछती थी। मै जान चुकी थी मेरा कोई भी इस से संबंधित प्रश्न, मेरे पापा को किसी अनजाने से मौन में डूबो देता था।
            धीरे धीरे मै समय के इस अंतराल में और आगे बढ़ने लगी तो एक दिन मैने स्वयं में ,स्वयं के व्यवहार में ,यहां तक कि स्वयं के शरीर में होने वाले परिवर्तन को अनुभव करने लगी।जो पापा मेरी दुनिया थे ,जो पापा मेरी ऑंखें थे ,उनसे भी में दुविधा में रहने लगी। मै क्या जानती थी कि पापा, मेरे हर संकेत को, मेरे कहने से पहले ही भांप जाते हैं ,क्या वे मेरे व्यवहार में आए इस परिवर्तन को नहीं जान पाएंगे। और ऐसे ही एक दिन जब उन्होंने मुझसे कहा कि  " रोशनी ,कल कुछ मेहमान हमारे घर आ रहें हैं तो उनके स्वागत के लिए, मैने अपने पड़ोस की आंटी को तुम्हारी सहायता के लिए कह दिया है,तो मुझे कुछ समझ नहीं आया।आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि मेरे ओर मेरे पापा के अतिरिक्त किसी अन्य ने कभी हमारी व्यक्तिगत सहायता की हो।लेकिन वे मेरे पापा थे , मेरी हर जरूरत बिना कहे समझ जाते थे ,ये मै जानती थी ।
       और  वो कल का दिन मेरी जिंदगी में जो मुझे हमेशा याद रहेगा ।यंत्रवत सी मै आंटी के साथ मेहमानों के स्वागत की तैयारी में सामर्थ्य पूर्वक  हाथ बता रही थी।मेहमान आए ,वे और पापा कुछ बात कर रहे थे कि कुछ देर बादअचानक उन्होंने मुझे पुकारा ,तो आंटी मुझे ले कर उनके सामने ले गई ।मुझे आज कुछ अजीब सा महसूस हो रहा था। मै खामोशी से अपने कानों से आंख का काम लेते हुए उन सब को देख रही थी।तभी मुझे प्रतीत हुआ कि आज कोई विशेष बात है ,क्योंकि मैने कभी भी अपने पापा को ,उनके स्वर को इतना कमजोर होते नहीं देखा था।फिर जो देखा … यानी जो सुना तो उस पर आज भी विश्वास नहीं होता।" मिस्टर माथुर ,ना आपके पास पैसा है , ना ही आपके पास कोई संपति है , और आप चाहते हैं कि मेरा अच्छा ,पढ़ा लिखा बेटा ,आपकी अंधी बेटी से शादी करे ,क्या इसी लिए आपने हमें पार्टी के बहाने बुलाया था" ।उसके बाद एक गहरी खामोशी ,जिसमें शायद मेरे पापा ही नहीं ,उनकी पूरी दुनिया ही डूब गई थी ,मुझे आज भी याद है।लेकिन आज तक ना कभी मैने इस बारे में पापा से पूछा , और ना ही कोई प्रश्न किया । हां,इतना अवश्य महसूस किया कि उस दिन के बाद मेरे पापा सामान्य नहीं रहे।उनके परिवर्तन को मै महसूस तो कर रही थी ,लेकिन उनसे कारण जानने की पता नहीं क्यों ,पहली बार मेरी हिम्मत नहीं रही।
         इस घटना के बाद वैसे तो कुछ खास नहीं बदला ,मगर बदला तो सिर्फ पापा का मुझ से खुलकर बोलना।एक दो दिन तो मुझे कुछ विशेष नहीं लगा ,परन्तु फिर मुझे अहसास होने लगा कि पापा कुछ अधिक ही गंभीर हो गए हैं।एक अजीब तरह के मौन ने हम दोनों के मध्य एक अनदेखी सी दीवार सी खींच दी थी। मै देख नहीं सकती थी तो क्या, मै उनमें आए बदलाव को उनके मौन के बावजूद स्पष्ट महसूस कर रही थी।
          इस घटना के कुछ दिनों के पश्चात् अचानक ही सुबह सुबह चाय पीते पापा बोले " बेटा रोशनी ,शहर के इस बड़े अस्पताल में ,मेरे एक परिचित का बेटा विदेश से आंखों की देखभाल की बड़ी डिग्री ले कर आया है।उसने मुझसे कहा है कि एक बार आप अपनी बेटी को  ले कर आएं,शायद मै कुछ उसके लिए कर सकूं,इसलिए तुम थोड़ी ही देर में तैयार हो जाओ,शायद कुछ चमत्कार हो जाए" । मै जानती थी कि पापा मुझे दो तीन बार बड़े बड़े डाक्टरों को दिखाने ले जा चुके थे और प्रत्येक की यही राय थी कि जन्म से अंधेपन के व्यक्तियों की आँखें ठीक होना असम्भव है,परन्तु कुछ दिन पहले हुए घटना क्रम  को देख कर मैने तुरंत हां कर दी। मै अब इतनी तो समझदार हो चुकी थी , कि अगर मेरी आंखों को ठीक होना होता तो अब तक मै देखने के काबिल हो जाती।परन्तु पापा का मन रख देने के लिए ही मैने हामी भरी।
         मुझे उस वक्त बड़ी हैरानी हुई कि डाक्टर साहब ने मेरी आंखों के कुछ टेस्ट करके बता दिया कि आप इन्हे इस अस्पताल में भर्ती करा दीजिए , मै पक्की तौर पर रोशनी की आँखों में रोशनी भर दूंगा।
         आज,अब जब दो दिन बाद जब मेरी आँखों से पट्टियां हटाने डाक्टर साहब आए तो उन्होंने पूछा कि तुम सब से पहले किसे देखना चाहती हो ? निस्संदेह मेरा उत्तर था " केवल ओर केवल अपने पापा को , और किसी को नहीं चाहे वो भगवान ही क्यों ना हो! पर पता नहीं कि उस समय क्यों एक खामोशी सी पूरे कमरे में  फैल गई।मुझे कुछ अजीब सा लगा ,फिर तुरंत ही मुझे ध्यान आया कि कल से मैने अपने पापा की आवाज नहीं सुनी है ,ऐसा क्यों ,ऐसे समय तो पापा यहीं होने ही चाहिए।फिर मैने अपने दिल को समझाया कि शायद वे मेरे ही इलाज के कारण इधर उधर होंगे।
       आंखों से पट्टी हटी,परन्तु मैने आँख नहीं खोली।उस समय मै एक छोटी सी घबराई सी बच्ची के रूप में ही महसूस कर रही थी। जिस क्षण की मैने कल्पना भी नहीं की थी , और जब वो समय आ पहुंचा था तो मै सहमी सी अपने पापा की गोद में ही छुपना चाहती थी।कुछ दिन पहले तक अपनी अंधेरी  दुनिया में ,जिसकी मै होश सम्हालने के समय तक पूरी तरह रम चुकी थी,उस अंधेरी दुनिया को छोड़ कर ,रोशनी की दुनिया में आने के लिए मै मानसिक रूप से बिल्कुल भी तैयार नहीं थी। मै बेकली की हद तक पापा को याद कर रही थी ,पर पापा कहां है,मेरे पास क्यों नहीं आ रहे , मै बार बार डाक्टर से पूछ रही थी मगर जाने क्यों कोई जवाब  नहीं दे रहा था।मैने स्पष्ट कह दिया कि जब तक मेरे पापा मेरे सामने नहीं आते मै अपनी आँख नहीं खोलूंगी ।
        इस गहरी खामोशी के समय फिर अनीता नर्स की आवाज मेरे कानों में गूंजी " बेटी मेरा विश्वास करो जब तुम आँख  खोलेगी तो वे जरूर सामने होंगे" ।समय बीत रहा था ।कुछ देर बाद अनीता नर्स ने मेरे सर को थप थपाया ,मुझे आश्वस्त किया " बेटी ,मेरा विश्वास करो ,आँखे तो खोलो ,तुम्हारे पापा तुम्हारे सामने जरूर होंगे। उन शब्दों ने जैसे एक सहमी, डरी सी बच्ची को गहरी दिलासा से भर दिया। मै जान रही थी कि अस्पताल स्टाफ के पास अन्य और भी काम  होंगे , और फिर मैने अनीता दीदी की बात पर भरोसा कर के धीरे धीरे अपनी पलकें खोलना शुरू किया।पहली बार अंधेरी दुनिया से रोशनी कि दुनिया में मेरा प्रवेश हो रहा था।मुझे पूरा विश्वास था कि पूरी आँख खोलते ही मेरे पापा सामने होंगे….. और मेरे सामने था पापा का लिखा ये पत्र !
      पत्र पढ़ते पढ़ते ,आंसुओं से धुंधले दिखाई देते शब्दों ने जैसे सब बता दिया था।
            मै बदहवास सी अनीता दीदी को घसीटते सी ,उनके साथ पापा के कमरे की ओर दौड़ पड़ी।कमरे के अंदर मेरे पापा दोनों आँखों पर पट्टी लपेटे ,मेरे आने के अहसास से ,अपने दोनो हाथ सामने फैलाए जैसे मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे।
         अगले ही पल मै अपने पापा की बाहों में थी ,नहीं ,नहीं वे ही मेरी  बाहों में थे।अब हम दोनों ही अंधकार के साए में डूबे हुए थे। मै अपनी दोनों, रोशनी से भरी आँखों को कस के बंद करने के कारण  और मेरे पापा अपनी बेटी को, अपनी रोशनी को, रोशनी देने के कारण।

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